ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
सिंहगढ़ में कुंजरसिंह को छोटी रानी की सेना के आने का और उसके उद्देश्य का समाचार मिल गया था। इन दोनों का संयुक्त दल सिंहगढ़ के फाटक खुलवाकर भीतर पहँच गया। कुंजरसिंह को अलीमर्दान के दस्ते का हाल मालूम न था। रामदयाल अलीमर्दान के साथ-साथ था। डोले में रानी की सवारी सबसे पहले दाखिल होकर दूसरी ओर चली गई। कुंजरसिंह सबसे पहले रानी के पास गया। पैर छूकर खड़ा हो गया। परिश्रम और थकावट के सारे चिह्न उसके मुख पर थे, परंतु हर्ष की भी रेखाएँ चमक रही थीं; जैसे धूल में सोना दमक रहा हो।
रानी ने कृतज्ञ कुंजरसिंह से कहा, 'खास दलीपनगर में लड़ाई हो रही है। सैयद की फौज देवीसिंह से पालर की ओर लड़ रही है और स्वयं सैयद को रामदयाल यहाँ लिवा लाया है। उसकी सहायता न होती, तो तुमसे मिल पाना असंभव होता।' और कुंजर के नतमस्तक पर हाथ फेरा।
हर्ष की रेखाएँ उसी थकावट की बाढ़ में डूब गईं। कुंजर की आँखों में तारे छिटक उठे। अलीमर्दान का नाम सुनते ही शरीर में पसीना आ गया। जब उसका सिर उठा, रानी ने देखा, एक क्षण पहले का उत्फुल्ल मुख मुरझा गया है, जैसे कमल को पालामार गया हो।
रानी इस परिवर्तन को न समझ सकी, परंतु यह उन्हें भासित हो गया कि कृतज्ञता के स्थान पर उसके नेत्रों में रुखाई, उपेक्षा और घबराहट अधिक है। 'क्या है कुंजरसिंह? क्या कहना चाहते हो?' रानी ने पूछा। 'कुछ नहीं कक्कोजू!' कुंजर ने उत्तर दिया, 'मुझ सरीखे तुच्छ मनुष्य के लिए आपने जो कष्ट उठाया है, वह व्यर्थ गया-सा जान पड़ता है।'
इस रुखाई से रानी तिलमिला उठीं। बोलीं, 'तुम सदा से रोते-से ही बने रहे। क्या इस विजय से तुम्हें राजसिंहासन अपने अधिक निकट नहीं दिखाई पड़ रहा है? सेना एक-आध रोज विश्राम कर ले कि तुरंत दलीपनगर के ऊपर प्रबल आक्रमण कर दिया जाएगा और जनार्दन, देवीसिंह, लोचन इत्यादि बागियों को उनके किए का भरपूर बदला दे दिया जाएगा।'
'महाराज'-कुंजरसिंह कहता-कहता रुक गया। 'बोलो, बोलो, कुंजरसिंह, क्या कहते हो?' रानी जरा चिढ़कर बोलीं।
सामने से रामदयाल को और उससे थोड़े ही पीछे अलीमर्दान को देखकर कुंजरसिंह ने कहा, 'अभी कक्कोजू विश्राम करें, बहुत परिश्रम किया है। अवकाश मिलने पर निवेदन करूँगा।' रानी का डोला किले के भीतर महलों में चला गया और कुंजरसिंह मुड़कर रामदयाल के पास पहुंचा।
रामदयाल ने महत्त्वपूर्ण दृष्टि और मिठास-भरे स्वर में जुहार किया, धीरे से बोला, 'कालपी के नवाब साहब हैं। इन्होंने बात रख ली।'
कुंजरसिंह चुपचाप चलती-फिरती मूर्ति की तरह बिना कोई भाव प्रदर्शित किए अलीमर्दान के पास पहुँचा। अभिवादन किया।अलीमर्दान को जान पड़ा, इस स्वागत में अतिथि-पूजा की अनुभूति नहीं है; परंतु उसने अपनी कुढ़न को तुरंत दबा लिया। हँसकर और चिल्लाकर बोला, 'सिंहगढ़ के बहादुर शेर राजा कुंजरसिंह का दर्शन हो रहा है न?'
कुंजरसिंह ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया। उसका आंतरिक भाव जो कुछ भी रहा हो, परंतु उसमें इतनी शिष्टता थी कि हर्ष का उत्तर खिन्नता से न दे।
अपने स्थान पर ले जाते हुए कुंजरसिंह ने मार्ग में कहा, 'आपका किसी तरह का कोई समाचार हम कैदियों को यहाँ मिलना भाग्य में न बदा था। इसलिए अकस्मात् सुनकर उचित रूप से आपकी अगवानी न हो सकी।'
'सिपाही की अगवानी सिपाही किस तरह करता है राजा साहब?'
कुंजरसिंह की रुखाई में कुछ कमजोरी आई। बोला, 'नवाब साहब, यदि अगवानी की त्रुटियों को अच्छे भोजन-पान आदि से दूर कर सकता, तो भी मेरे लिए कुछ कृतकृत्य होने की बात थी, परंतु हम लोगों के पास रूखे-सूखे के सिवा यहाँ और कुछ नहीं है। इसलिए और भी लज्जित हैं।'
रामदयाल ने, जो पीछे-पीछे चला आता था, कहा, 'महाराज, नवाब साहब बड़े कट्टर सैनिक हैं। इन्हें लड़ाई की धुन में खाना-पीना कुछ नहीं सूझता।'
कुंजरसिंह सबसे पहले अपने जीवन में अपने को 'महाराज' शब्द से संबोधित पाकर एक क्षण के लिए चकित और रोमांचित हो गया। कुछ कहना चाहता था, न कह सका।
अलीमर्दान हँसकर बोला, 'राजा साहब, रामदयाल ने बड़ी सहायता की है। आपके शुभचिंतकों में ऐसे कुशल मनुष्य का होना गर्व की बात है। एक छोटी-सी सेना के बराबर इस अकेले का काइयाँपन है।'
कुंजरसिंह ने संयत शब्दों में उसकी प्रशंसा की परंतु उनमें काफी कृपणता थी और रामदयाल को वह खटकी। कुंजरसिंह के स्थान पर पहुँचकर अलीमर्दान ने तय किया कि रात को आनंदोत्सव मनाया जाये।
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