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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...



:२:

दूसरे दिन राजा ने पालर की विशाल झील में, जो आजकल गढ़मऊ की झील के नाम से विख्यात है, खूब स्नान किया। बीमारी बढ़ी या नहीं यह तो उस समय किसी ने नहीं जाना परंतु राजां के दिमाग को कुछ ठंडक जरूर मिली और वह उस दिन उतने उतावले नहीं दिखाई पड़े। अवतार की बात वह भल गए और किसी ने उन्हें उस समय स्मरण भी नहीं दिलाया। 


स्नान करने के बाद कुंजरसिंह को उक्त अवतार के दर्शन की लालसा हुई। पंद्रह-सोलह वर्ष पहले नरपतिसिंह दाँगी के घर लड़की उत्पन्न हुई थी। जब वह गर्भ में थी, उसकी माँ विचित्र स्वप्न देखा करती थी। लड़की के उत्पन्न होने पर पिता को ऐसा जान पड़ा मानो प्रकाशपुंज ने घर में जन्म लिया हो। उसकी माँ लड़की को जन्म देने के कुछ मास उपरांत मर गई।

नरपति दुर्गा का भक्त था और जागते हए भी स्वप्न-से देखा करता था। गाँववाले उसे श्रद्धा और भय की दृष्टि से देखते थे।
वह कन्या रूप-राशि थी। उस पर देवत्व के आरोप होने में विलंब न हुआ। अविश्वास करने के लिए कोई स्थान न था। बालिका दाँगी की लड़की में इतना रूप, इतना सौंदर्य कभी न देखा गया था। गाँव के मंदिर में दर्गा की मूर्ति थी,शिल्प की कला ने उसे वह रूपरेखा नहीं दे पाई थी. जो इस बालिका में सहज ही भासित होती है। ज्यों-ज्यों उसने वय प्राप्त किया, त्यों-त्यों अंग सुडौल होते गए, सौंदर्य की विभूति बढ़ती, निखरती गई और गाँववाले नरपतिसिंह की उस कन्या को किसी निभ्रांत सिद्धांत की तरह स्वीकार करते गए। कभी विश्वास से फल हुआ और कभी नहीं भी। पहले बालिका को पूजार्चा बहुधा नरपतिसिंह के ही घर पर होती रही, पीछे बालिका द्वारा मंदिर में स्थापित मूर्ति की पूजा कराई जाने लगी। जैसे आरंभ में लोग नव-निर्मित मंदिर में बहुधा पूजन के लिए जाया करते हैं, और कुछ समय बाद अपने घर में ही बैठे-बैठे मंदिर में स्थापित मूर्ति की वंदना करने लगते हैं, उसी तरह नरपतिसिंह की कन्या के प्रति कई वर्ष गुजर जाने पर भी अविश्वास या अश्रद्धां तो किसी ने भी प्रकट नहीं की, परंतु पूजा का रूप पलट गया। अटक-भीर पड़ने पर कभी-कभी कोई-कोई प्रत्यक्ष पूजा भी कर लेता था। परंतु देवी के नाम पर शुरू-शुरू में जो बड़े-बड़े मेले लगे थे उनमें क्षीणता आ गई। लोगों के आश्चर्य में ओज न रहा। उस कन्या को देवी का अवतार मानते हुए न केवल गाँव के लोग ठठ-के-ठठ जमा होकर उसके घर पर या मंदिर में जाते थे बल्कि बाहर के दूर-दूर के लोग भी अब मानता मान-मानकर आते थे।

कुंजरसिंह के मन में देवी के दर्शन की इच्छा तो हुई, परंतु लज्जाशील होने के कारण अकेले जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। कोई शायद पूछ बैठे, क्यों आए? देवी अवश्य है यवती भी है।' संयोग से लोचनसिंह मिल गया। साथ के लिए सपात्र-कुपात्र की अपेक्षा न करके लोचनसिंह से कहा, 'दाऊजू, देवी-दर्शन के लिए चलते हो?'
उसने उत्तर दिया, 'किन बातों में पड़े हो राजा? दाँगी की लड़की दुर्गा नहीं होती। देहात के भूतों ने प्रपंच बना रखा होगा।'
कुंजरसिंह की इच्छा ने जरा हठ का रूप धारण किया। बोला, 'अवतार के लिए कोई विशेष जाति नियुक्त नहीं है, देख न लो।'
लोचनसिंह ने विरोध नहीं किया। आगे-आगे लोचनसिंह और पीछे-पीछे कुंजरसिंह नरपतिसिंह के मकान का पता लगाकर चले। वह घर पर मिल गया।
लोचनसिंह ने बिना किसी भूमिका के प्रस्ताव किया, 'तुम्हारी लड़की देवी है? दर्शन करेंगे।'
नरपति की बड़ी-बड़ी लाल आँखों में आश्चर्य छिटक गया। बोला, 'कहाँ के हो? 'दलीपनगर के राजकुमार।' उत्तर देते हुए लोचनसिंह ने कुंजर की ओर इशारा किया।
'इस तरह दर्शन करने के लिए तो यहाँ देवता भी नहीं आते।' संदेह के स्वर में नरपति ने कहा।
'तब किस तरह देख पाएंगे?' 'मंदिर में जाओ।'

कुंजरसिंह की हिम्मत टूट गई। लौट पड़ने की इच्छा हुई। परंतु पैर वहीं अड़-से गए। धीरे से लोचनसिंह से कहा, 'तो चलो दाऊजू' और नरपति के खुले हुए घर की ओर मुँह फेर लिया। पौर के धंधले प्रकाश में उसे एक मख दिखाई पड़ा, जैसे अँधेरी रात में बिजली चमक गई हो। आँखों में चकाचौंध-सी लग गई।
लोचनसिंह ने कुंजर के प्रस्ताव को एक कंधा जरा-सा हिलाकर अस्वीकृत कर दिया। नरपति से बोला, 'मंदिर में पाषाण-मूर्ति के दर्शन होंगे। हम लोग यहाँ तुम्हारी लड़की को, जो देवी का अवतार कही जाती है, देखने आए हैं।'

प्रस्ताव की इस स्पष्ट भाषा के कारण कुंजरसिंह को पसीना-सा आ गया।

नरपतिसिंह ने जरा सोचकर कहा, 'हमारी बेटी देवी है, इसमें जरा भी संदेह जो भी करता है, उसका सर्वनाश तीन दिन के भीतर ही हो जाता है। तुम लोगों को यदि दर्शन करना हो, तो मंदिर में चलो। यहाँ दर्शन न होंगे। कोई मेला या तमाशा नहीं है। नारियल, मिठाई, पुष्प, गंध इत्यादि लेकर चलो, मैं वहाँ लिवाकर आता हूँ।'
नरपति की आँखों में विश्वास के बल को और हवा में लंबे-लंबे केशों की एक लट को उड़ते हुए देखकर लोचनसिंह की अदम्यता नहीं डिगी।
पूछा, 'इत्यादि और क्या?' दृढ़तापूर्ण उत्तर मिला, 'सोना-चाँदी और क्या?' लोचनसिंह के उत्तर देने के पूर्व ही कुंजरसिंह ने नम्रता के साथ कहा, 'बहुत अच्छा।' नरपति तुरंत घर के भीतर अदृश्य हो गया और किवाड़ बंद कर लिए।


लोचनसिंह ने कुंजर से कहा, 'मन तो ऐसा होता है कि तलवार के एक झटके से लंबे केशवाले इस सिर को धूल चटा दूँ, परंतु हाथ कुंठित है।'
'चुप-चुप।' कुंजर आदेश के उच्चारण में बोला, 'बाजार से सामग्री मँगवा लो।'
लोचन बाजार की ओर, जिसमें केवल दो दकानें थीं, चला गया और कुंजर नरपति के चबूतरे के एक कोने को झाडकर छिपने की सी चेष्टा करता हुआ वहीं बैठ गया।
इतने ही में दो आदमी और आप वेशभषा से मसलमान सैनिक जान पड़ते थे। उनमें से एक ने कुंजर से पछा, 'क्योंजी नरपति दाँगी का यही मकान है?'
'हाँ, क्यों? 'देवी के दर्शनों को आए हैं?' 


कुंजर को यह अच्छा न मालूम हआ। बोला 'होगा कहीं, क्या मालूम।' तीव्र उत्तर न दे सकने के कारण उसे अपने ऊपर ग्लानि हुई। वह कहने और कुछ करने के लिए आतुर हुआ।
वे दोनों उसी चबूतरे पर बैठ गए। काठ क्षण उपरांत लोचनसिंह एक पोटली में पूजन की सामग्री लिए हुए आ गया। कहने लगा, 'बनिया हमको धोखा देना नाहता था। दो धौल दिए तब अभागे ने ठीक भाव पर सामग्री दी।'
लोचनसिंह ने उन दो नवागंतुकों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
घर की कुंडी खटखटाकर पुकारा, जा की सामग्री ले आए हैं। लिवाकर आ जाओ।'
भीतर से कर्कश स्वर में उत्तर लिया, 'मंदिर चलो।' लोचनसिंह कुंजर को लेकर मंदिर की ओर चला, जिसकी उड़ती हुई पताका नरपति के मकान से दिखाई पड़ रही थी।

लोचन और कुंजर के मंदिर पहुँचने के आधी ही घड़ी पीछे नरपति अपनी लड़की को लेकर आ गया। वे दोनों मुसलमान सैनिक भी पीछे-पीछे आकर मंदिर के बाहर बैठ गए। कुंजरसिंह ने देखा। मन खीझ गया। परंतु नरपति के ऊपर उन दोनों सैनिकों की उपस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
कुंजरसिंह ने रूप, लावण्य और पवित्रता के उस अवतार को देखा। एक बार देखकर फिर आँख नहीं उठाई गई। दुर्गा की पाषाण-मूर्ति की ओर स्थिर दृष्टि से देखने लगा।
'पूजा करो।' नरपति ने आदेश दिया। 'किसकी पूजा करूँ?' कुंजर ने सोचा और एक बार रूप-राशि की ओर देखकर फिर पाषाण-मूर्ति पर अपनी दृष्टि लगा दी।
लोचनसिंह ने बिना संकोच के लड़की को ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखा। उसने आँखें नीची कर लीं। लोचनसिंह बोला, 'किसकी पूजा पहले होगी?'
नरपति ने मूर्ति की ओर संकेत किया।
कुंजर ने भक्ति के साथ मूर्ति का पूजन किया। सोचा, 'अब सदेह सजीव देवी की पूजा होगी।'
'इनका क्या नाम है?' लोचन ने पूछा। 'दुर्गा, दुर्गा का अवतार।' उत्तर मिला।

कुंजर प्रश्न और उत्तर से सिकुड़-सा गया, परंतु नाम जानने की उठी हुई उत्सुकता ठंडी नहीं पड़ी। लड़की के मुख पर इस बेधड़क प्रश्न से हलकी लालिमा दौड़ आई। लोचन ने फिर शिष्टता के साथ पूछा, 'यह नाम नहीं, यह तो गुण है। घर में इस बेटी को क्या कहते हो?'
'कुमुद-पर तुम्हें इससे क्या? पूजा हो गई। अब चढ़ावा चढ़ाकर यहाँ से जाओ। दूसरों को आने दो।' नरपति ने कहा। लोचन के दाँत से दाँत सट गए, परंतु बोला कुछ नहीं।

कुंजर ने अपने गले से सोने की माला और उँगली से हीरे की अंगूठी उतारकर मूर्ति के चरणों में चढ़ा दी। नरपति ने प्रसन्न होकर माला हाथ में ले ली और अँगूठी लड़की को पहना दी, जिसका नाम उसके मुँह से कुमुद निकल पड़ा था। कुमुद ने पहले हाथ थोड़ा पीछे हटाया। परंतु पिता की व्यग्रता ने उसकी उँगली को अँगूठी में पिरो दिया।

नरपति ने कुंजर से पूछा, 'आप कौन हैं?' । कुंजर के मुँह से नम्रतापूर्वक निकला, 'राजकुमार।' लोचन ने गर्व के साथ कहा, 'यह हैं दलीपनगर के महाराजाधिराज के कुमार राजा कुंजरसिंह।'

कुमुद ने धीरे से गरदन उठाकर कुंजरसिंह की ओर पैनी निगाह से देखा। लालिमा मुख पर नहीं दौड़ी और न आँखें नीची पड़ीं। फिर सरल, स्थिर दृष्टि से मंदिर के एक कोने की ओर देखने लगी।

नरपतिसिंह ने कुमुद से कहा, 'देवी, पूजक को प्रसाद दो।' कुमुद मिठाई के दोने से एक लड्ड उठाकर कुंजर को देने लगी। नरपति ने रोककर कहा, 'यह नहीं।' और गेंदे का एक फूल भस्म के दो-चार कणों से लपेटकर कुमुद के हाथ में दिया और कहा, 'यह दो। राजकुमार के लिए प्रसाद उपयुक्त कुमुद ने अँगूठीवाले हाथ में गेंदे का फूल लिया। हाथ, सोने, हीरे और गेंदे के फूल के रंगों में आधे क्षण के लिए स्पर्धा-सी हो उठी। श्रद्धापूर्वक कुंजर ने वह फूल अपनी अंजलि में ले लिया और कुमुद की बडी-बडी.सरल,संदर आँखों में अपने सकोच चंचल नेत्र मिलाकर पुष्प को पगड़ी में सयत्न खोंस लिया। फिर कुमुद से आँख मिलाने का साहस नहीं हुआ।
परंतु कुमुद की आँखों में संकोच या लज्जा का लक्षण नहीं था।

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