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			 ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
    
:१:
मकर-संक्रांति के स्नान के लिए दलीपनगरी के राजा नायकसिंह पहूज में स्नान करने के लिए विक्रमपुर आए। विक्रमपुर पहूज नदी के बाएँ किनारे पर बसा हुआ था। नगर छोटा-सा था.परंतराजा और राजसी ठाठ-बाट के इकटेहोजाने सेचहल-पहल और रौनक बहुत हो गई थी।
दूसरे दिन दोपहर के समय स्नान का मुहूर्त था। बिना किसी काम के ही राजा के कुछ दरबारी संध्या के उपरांत राजभवन में मुजरा के बहाने गपशप के लिए आ गए। जनार्दन शर्मा मंत्री न था, तथापि राजा उसे मानते बहुत थे। वह भी आया।
बातचीत के सिलसिले में राजा ने जनार्दन से कहा, 'पहूज में तो पानी बहुत कम
      है। डुबकी लगाने के लिए पीठ के बल लेटना पड़ेगा।' 
      'हाँ महाराज!' जनार्दन ने सकारा, पानी मुश्किल से घुटनों तक होगा। थोड़ी दूर
      पर . एक कुंड है, उसमें स्नान हो, तो वैसी मर्जी हो।' 
      अधेड़ अवस्था का दरबारी लोचनसिंह जो अपने सनकी स्वभाव के लिए विख्यात था,
      बोला, 'दो हाथ के लंबे-चौड़े उस कुंड में डुबकी लगाकर कीचड़ उछालना होली के
      हुल्लड़ से कम थोड़े ही होगा।' 
जिस समय लोचनसिंह राजा के सामने बातचीत करने के लिए मुँह खोलता था, अन्य दरबारियों का सिर घूमने लगता था। उमर के साथ-साथ राजा के मिजाज में गरमी बढ़ गई थी। बहुधा आपस में अकेले में, लोग कहा करते थे, पागल हो गए हैं। लोचनसिंह की बात पर राजा ने गरम होकर कहा, 'तब तुम सबको कल कोस-भर नदी खोदकर गहरी करनी पड़ेगी।'
लोचनसिंह बोला, 'मैं अपनी तलवार की नोक से कोस-भर पहूज नदी तो क्या बेतवा को
      भी खोद सकता हूँ। हुक्म-भर हो जाए।' 
      राजा को कोप तो न हुआ, परंतु खीज कुछ बढ़ गई। कुछ कहने के लिए राजा एक क्षण
      ठहरे। सैयद आगा हैदर राजवैद्य एक सावधान दरबारी था। मौका देखकर तुरंत बोला.
      महाराज की तबीयत कुछ दिनों से खराब है। धार्मिक कार्य थोड़े जल से भी पूरा
      किया जा सकता है। अगर मुनासिब समझा जाए, तो गहरे, ठंडे पानी में देर तक डुबकी
      न ली जाए।' 
लोचनसिंह तुरंत बोला, 'ऐसी हालत में मैं महाराज को पानी में अधिक समय तक
      रहने ही न दूँगा। जितना पानी इस समय पहूज में है, वह बीमारी को सौ गुना कर
      देने के लिए काफी है!' 
      राजा ने दृढ़तापूर्वक कहा, 'यही तो देखना है लोचनसिंह। बीमारी बढ़ जाए तो
      हकीमजी के हुनर की परख हो जाए और यह भी मालूम हो जाए कि तुम मुझे पानी में एक
      हजार डुबकियाँ लगाने से कैसे रोक सकते हो?' 
      लोचनसिंह बोला, 'हकीमजी का कहना न मानकर जब महाराज को डुबकी लगाने पर उतारू
      देखूगा, तब अपना गला काटकर उसी जगह डाल दूंगा, फिर देखा जाएगा, कैसा हौसला
      होता है।' 
लोचनसिंह की सनक से राजा की भड़क का ज्वार बढ़ा। बोला, 'शर्माजी, पहूज में
      स्नान न होगा। उसमें पानी नहीं है। पहले तुमने नहीं बतलाया, नहीं तो इस
      कंबख्त नदी की तरफ सवारी न आती।' 
      'महाराज, महाराज!' जनार्दन ने सकपकाकर कहा, 'मुझे स्वयं पहले से मालूम न था।'
      
      राजा बोले, 'बको मत। तुम्हारे षड्यंत्रों को खूब समझता हूँ। कुंजरसिंह को
      बुलाओ।' 
कुंजरसिंह राजा की दासी का पुत्र था। वह राज्य का उत्तराधिकारी न था, तो भी राजा उसे बहुत चाहते थे। राजा के दो रानियाँ थीं। बड़ी रानी उसे चाहती थी, इसलिए छोटी का उस पर प्यार न था। राजा बहत वृद्ध न हए थे। इधर-उधर के कई रोगों के होते हुए भी राजवैद्य ने आशा दिला रखी थी कि उत्तराधिकारी उत्पन्न होगा। इसीलिए राजा ने दूसरा विवाह भी कर लिया था और दासियों के बढ़ाने की प्रवृत्ति में भी' चाहे पागलपन से प्रेरित होकर चाहे किसी प्रेरणावश, बहुत अधिक कमी नहीं हुई थी। यह देखकर राजसभा के लोगों को विश्वास था किसी-न-किसी दिन पुत्र उत्पन्न होगा।
कुंजरसिंह आया। बीस-इक्कीस वर्ष का सौंदर्यमय बलशाली युवा था। राजा ने उसे
      अपने पास बिठाकर कहा, 'कल पहज में स्नान न होगा।' 'क्यों काकाजू?' कुंजरसिंह
      ने संकोच के साथ पूछा। 'इसलिए कि उसमें पानी नहीं है। राजा ने उत्तर दिया,
      'हमको व्यर्थ ही यहाँ लिवा लाए।' 
      कुंजरसिंह राजा के विक्षिप्त स्वभाव से परिचित था। जनार्दन और लोचनसिंह ने
      कहा, 'हकीमजी कहते हैं, नहाने से बीमारी बढ़ जाएगी।' 
      -:- 
      कुंजरसिंह ने धीरे से कहा, 'दलीपनगर में ही मालूम हो जाता तो यहाँ तक आने का
      कष्ट महाराज को क्यों होता?' 
      आत्मरक्षा में हकीम को कहना पड़ा, 'थोड़ी देर के स्नान से कुछ नुकसान न
      होगा।' 
      राजा बोले, 'तब पालर की झील में डुबकी लगाई जाएगी, बड़े सवेरे डेरा पालर
      पहुँच जाए।' 
      पालर ग्राम विक्रमपुर से चार कोस की दूरी पर था। चारों ओर पहाड़ों से घिरी
      हुई पालर की झील में गहराई बहुत थी। उसमें डुबकियाँ लगाने के परिणाम का
      अनुमान करके आगा हैदर काँप गया। बोला, 'ऐसी मर्जी न हो। झील बहुत गहरी है और
      उसका पानी बहुत ठंडा है।' 
      'और तुम्हारी दवा घूरे पर फेंकने लायक।' राजा ने हँसकर और फिर तुरंत गंभोर
      होकर कहा, 'तुम्हारे कुश्तों में कुछ गुण होगा और तुम्हारी शेखी में कुछ
      सचाई, तो झील में नहाने से कुछ न बिगड़ेगा। नहीं तो रोज-रोज के मरने से तो एक
      ही दिन मर जाग कहीं अच्छा।' 
      जनार्दन विषयांतर के प्रयोजन से बोला, 'अन्नदाता, सुना जाता है पालर में एक
      दाँगी के घर दुर्गाजी ने अवतार लिया है। सिद्धि के लिए उनकी बड़ी महिमा है।'
      
      'तुमने आज तक नहीं बतलाया?' राजा ने कड़ककर पूछा और तकिये पर अपना सिर रख
      लिया। 
लोचनसिंह ने उत्तर दिया, 'सुनी हुई खबर है। गलत निकलती तो कहनेवाले को यों
      ही अपने सिर की कुशल के लिए चिंता करनी पड़ती।' __ 'चुप-चुप।' राजा ने तमककर
      कहा, 'बहुत बड़बड़ मत करना, नहीं तो पीछे पछताओगे।' 
      'मूड़ ही कटवा लेंगे आप?' लोचनसिंह अदम्य भाव से बोला, 'सो उसका मुझे कुछ डर
      नहीं है।' 
      राजा प्रतिहत से हो गए। 
      उपस्थित उलझाव का एक ही सुलझाव सोचकर कुंजरसिंह ने कहा, 'काकाजू, पालर चलकर
      संक्रांति का स्नान हो जाए और उस अवतार-कथा की भी मीमांसा कर ली जाए।' 
      किसी दरबारी को विरोध करने का साहस नहीं हुआ। लोचनसिंह कोई नवीन
      उत्तेजनापूर्ण बात कहने को ही था कि राजा ने जनार्दन से प्रश्न किया, 'इस
      अवतार को हुए कितने दिन हो गए?' 
      'सुनता हूँ, अन्नदाता कि वह लड़की अब सोलह-सत्रह वर्ष की है।' जनार्दन ने
      राजा को प्रसन्न करने के लिए उत्तर दिया, पालर में तो उसके दर्शनों के लिए
      दूर-दूर से लोग आते हैं।' 
      राजा ने कहा, 'कल देखेंगा।' जनार्दन जी कड़ा करके बोला, 'परंतु महाराज!' 'हर
      बात में परंतु।' राजा ने टोककर कहा, 'क्या परंतु?' 
      'पालर बड़नगरवालों के राज्य में है।' जनार्दन ने उत्तर दिया, 'बिना
      पूर्व-सूचना के पराए राज्य में जाने का न-मालूम क्या अर्थ-अनर्थ लगाया जाए।
      सब तरफ गोलमाल 
      छाया हुआ है। दिल्ली में तो गड़बड़ ही मची हुई है।' 
      राजा ने बात काटकर कहा, 'तुम दलीपनगर को गड़बड़ में डाल दोगे। देखो शर्मा, एक
      बात है, हम पालर में डाका डालने तो जा नहीं रहे हैं, जो पहले से बड़नगरवालों
      को सूचना दें। वे हमारे भाई-बंध हैं। कोई भय की बात नहीं है। तैयारी कर दो।'
      
      आगा हैदर को भी राजा की हाँ-में-हाँ मिलानी पड़ी, कोई डर नहीं शर्माजी, किसी
      साँडनी-सवार के जरिए सूचनाभिजवा दी जाए। बड़नगर यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है।
      यदि दूरी का मामला होता, तो और बात थी।' 
      			
						
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