ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
परिचय
सुरतानपुरा (परगना मोंठ, जिला झाँसी)-निवासी श्री नंदू पुरोहित के यहाँ मैं
प्रायः जाया करता था। उन्हें किंवदंतियाँ और कहानियाँ बहुत आती थीं। वह
कहते-कहते कभी नहीं थकते थे, चाहे सुननेवालों को सुनते-सुनते नींद भले ही आ
जाए।
एक रात मैं उनके यहाँ गया। नींद नहीं आ रही थी, इसलिए एक कहानी कहने के लिए प्रार्थना की। जरा हँसकर बोले, 'तुम भाई, सो जाते हो। कहानी समाप्ति पर 'ओफ्फो!' कौन कहेगा?'
मैंने उनसे कहा, 'काका, आज नहीं सोऊँगा, चाहे होड़ लगा लो।' 'अच्छा, वह बोले,
'भैया, मैं आज ऐसी कहानी सुनाऊँगा, जिस पर तुम कविता बनाकर छपवा देना।'
वह पढ़े-लिखे न थे, इसलिए हिंदी की छपी हुई पुस्तकों को प्रायः कविता की
पोथियाँ कहा करते थे।
'विराटा की पद्मिनी' की कहानी उन्होंने सुनाई थी। यह कहानी सुनकर मुझे उस समय तो क्या, सुनने के बाद भी बड़ी देर तक नींद नहीं आई। परंतु खेद है, उसके प्रस्तुत रूप के समाप्त होने के पहले ही उन्होंने स्वर्गलोक की यात्रा कर दी, और मैं उन्हें परिवर्तित और संवर्द्धित रूप में यह कहानी न बता पाया!
पद्मिनी की कथा जहाँ-जहाँ दाँगी हैं, झाँसी जिले के बाहर भी, प्रसिद्ध होगी। उपन्यास लिखने के प्रयोजन से मैंने नंदू काका की सुनाई हुई कहानी के प्रचलित अंशों की परीक्षा करने के लिए और कई जगह उसे सुना। विराटा के एक वयोवृद्ध दाँगी से भी हठपूर्वक सुना। उस वयोवृद्ध ने मुझसे कहा था, 'अब का धरो इन बातन में? अपनो काम देखो जू। अब तो ऐसे-ऐसे मनुष होने लगे कै फूंक मार दो, तो उड़ जाएँ।' इसके पश्चात् मैंने विराटा, रामनगर और मुसावली की दस्तूरदेहियाँ सरकारी दफ्तर में पढ़ीं। उनमें भी पद्मिनी के बलिदान का सूक्ष्म वर्णन पाया। मुसावली की दस्तूरदेही में लिखा है कि मसावली-पीठ के नीचे के दो कुओं को एक बार दतिया के महाराज ने खुदवाया था। कुएँ पक्के थे, परंतु अब अस्त-व्यस्त हैं।
देवीसिंह. लोचनसिंह, जनार्दन शर्मा, अलीमर्दान इत्यादि नाम काल्पनिक हैं, परंतु उनका इतिहास सत्य-मूलक है। देवीसिंह का वास्तविक नाम इस समय नहीं बतलाया जा सकता। अनेक कालों को सच्ची घटनाओं का एक ही समय में समावेश कर देने के कारण मैं इस पुरुष के संबंध की घटनाओं को दूसरी घटनाओं से अलग करके बतलाने में असमर्थ हूँ। जनार्दन शर्मा का वास्तविक व्यक्तित्व एक दुखांत घटना है, जिस तरह जनार्दन शर्मा ने जाल रचकर देवीसिंह को राज्य दिलाया था, उसी तरह यह इतिहास और किंवदंतियों में भी प्रसिद्ध है, परंतु वास्तविक जनार्दन का अंत बड़ा भयानक हुआ था।
कहा जाता है, राजा नायकसिंह के वास्तविक नामधारी राजा के मर जाने के बाद उनकी रानी ने प्रण किया था कि जब तक जनार्दन (वास्तविक व्यक्ति) का सिर काटकर मेरे सामने नहीं लाया जाएगा, तब तक मैं अन्न ग्रहण न करूंगी। रानी का एक सेवक जब उस बेचारे का सिर काट लाया, तब उन्होंने अन्न ग्रहण किया। यह घटना झाँसी के निकट के एक ग्राम गोरामछिया की है।
लोचनसिंह के वास्तविक रूप को इस संसार में विलीन हुए लगभग बीस वर्ष से अधिक नहीं हुए। वह बहुत ही उदंड और लड़ाकू प्रकृति के पुरुष थे। मेरे मित्र श्रीयुत् मैथिलीशरणजी गप्त ने उनके एक उदंड कृत्य पर 'सरस्वती' में 'दास्ताने' शीर्षक से एक कविता भी लिखी थी।
परंतु जैसा मैं पहले कह चुका है. उपन्यास-कथित घटनाएँ सत्य-मूलक होने पर भी अपने अनेक कालों से उठाकर एक ही समय की लड़ी में गूंथ दी गई हैं, इसलिए कोई महाशय उपन्यास के किसी चरित्र को अपने वास्तविक रूप का संपूर्ण प्रतिबिंब न समझें और यदि कोई बात ऐसे चरित्र की उन्हें खटके तो बुरा न मानें। इसी कारण मैं उपन्यास-वर्णित मख्य चरित्रों का विस्तृत परिचय इस समय न दे सका।
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