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बन्दिनी

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7015
आईएसबीएन :978-81-8143-986

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मानवीय व्यवस्था के लिए संवेदना और विचार से पूर्ण तसलीमा की कविताएँ...

Bandini - A Hindi Book - by Taslima Nasrin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तसलीमा नसरीन की ख्याति उनके उपन्यासों, उनकी आत्मकथा और स्त्रियों की मुक्ति से सम्बन्धित उनके लेखों के आधार पर निर्मित हुई है। लेकिन यह भी सच है कि वे एक संवेदनशील कवयित्री भी हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में भी उन विचारों को एक भिन्न रूपाकार में व्यक्त करने की कोशिश की है जो उन्होंने अपनी अन्य कृतियों में व्यक्त किये हैं और जिनका सम्बन्ध मनुष्य, समाज और राजनीति से है। हालाँकि जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, ‘मैंने राजनीति कभी नहीं की। राजनीति की समझ भी मुझे कम है। लेखक-कलाकारों को लेकर राजनीति करना क्या बन्द नहीं हो सकता ? लेखक/लेखिका को क्या लिखने और मुक्त चिन्तन का परिवेश नहीं दिया जाना चाहिए ? जी हाँ, मेरी अपील है कि लेखक/लेखिका को लिखने का अधिकार दिया जाए।’

राजनीति से कोई वास्ता न रखने का दावा करने के बावजूद जब तक मनुष्य की मुक्ति का सम्बन्ध किसी समाज और उसकी राजनैतिक व्यवस्था से है तब तक साहित्य का राजनीति से अलग होना सम्भव नहीं है। प्रकट ही एक बेहतर और मानवीय समाज व्यवस्था के लिए जो प्रयत्न किये जायेंगे वे विचार और संवेदना, दोनों ही की माँग करेंगे। तसलीमा की कविताएँ इसी मानवीय व्यवस्था के लिए संवेदना और विचार को प्रस्तुत करती हैं। यही उनकी सफलता का राज़ है।

मैं कैसे जी रही हूँ

ठीक खिड़की के उस पार खड़ी है—मृत्यु !
दरवाज़ा खोलते ही, निःसंकोच देखती है, मेरी आँखों में,
बैठना हो, तो आकर बैठ जाती है, सामने, कुर्सी पर !
कुछ तय नहीं, मेरी हथेली पर रख सकती है, अपने हाथ,
अगले ही पल मुझे झटका देकर खींच ले जाएगी,
जहाँ उसे ले जाना है।
अब, उठते-बैठते, सोते-जागते, खड़े होते ही, मुझे लगता है,
मृत्यु मुझे आड़ से देख-देखकर हँस रही है !
बाथरूम में पानी की आवाज़ तक में,
बजती रहती है मौत की आहट !
शाम उतरते ही चुपके-चुपके आ खड़ी होती है मृत्यु,
कानों में फुसफुसाकर, दे जाती है अपना नाम-पता।
गहरी रातों में भी, मौत की स्तब्धता की आवाज़ से
टूट जाती है नींद बार-बार !
जैसे ही निकलती हूँ, कमरे से बाहर,
मृत्यु भी चली आती है पीछे-पीछे !
जहाँ भी जाती हूँ, चाहे जिस भी बस्ती या प्रासाद में,
मौत भी साथ-साथ होती है।
जिस तरफ भी घुमाती हूँ गर्दन, वह भी घूमकर देखती है, उसी ओर !
जब मैं देखती हूँ आसमान, वह भी देखती है,
बाज़ार की भीड़ में भी, चिपकी रहती है मेरी देह से।

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