लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
हाल ही में बनाया गया, नारी-निग्रह कानून के मुताबिक, सज़ा औरत को नहीं, सिर्फ़ मर्द को देने वाला यह नया क़ानून, ज़रा सभ्य क़ानून है। इन प्रभुओं ने औरत को ले कर काफ़ी खेल खेल लिया। भारतीय मर्दो पर इसका इतना गहरा असर पड़ा है कि वे लोग इस खेल में ख़ासे सिद्धहस्त हो गये हैं। अब व्यभिचार की सज़ा व्यभिचारियों को ही देने का इन्तज़ाम हो रहा है यानी जो सज़ा के लायक हैं, उन्हीं लोगों को सज़ा देने का प्रबन्ध किया जा रहा है। सही अपराधी के हाथ में हथकड़ी-बेड़ी डालने की व्यवस्था की जा रही है। पति-प्रभुओं के पुरखों को काफ़ी छूट दी गयी थी लेकिन अब नहीं।
औरत पर सच ही बेहद तरस आता है। खुद ही गोली खाती है और गोली खाने के जुर्म में खुद ही फाँसी चढ़ जाती है। घूम-फिरकर, तरह-तरह से औरत की ही मृत्यु होती है। एक मृत्यु के बाद दुबारा मृत्यु! इतनी-इतनी बार कोई मरता है भला? औरत की तरह सैकड़ों बार कोई मरता है? ऐसे एक भयंकर नारी-विरोधी समाज में बैठकर, भले इसका प्रयोग किया जाये या न किया जाये, औरत के पक्ष में लाये गये इन नये कानूनों का स्वागत करती हूँ और महिलाओं को हज़ारों-हज़ार मुबारकवाद देती हूँ। अब, मर्द के झूठ का, छल का, आधिपत्य, षड्यंत्र, तन्त्र, द्विचारिता-त्रिचारिता-चतुर्चारिता का शिकार औरतों को न होना पड़े। मर्द का अनाचार, अन्याय, मर्द की बदमाशी, व्यभिचार, अब किसी औरत को सर्वहारा न करे। औरत, मर्दो द्वारा काटे-बकोटे, नोचे-खरोंचे जाने से बचे। वह हमेशा के लिए जी उठे।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं