लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
अरे, जिससे प्रेम करते हो, उसी के संग जीवन बिताओ। जिसके साथ मन मिला है, उसी के साथ देह मिलाओ, क्योंकि देह में ही बसता है, मन रूपी पाखी भी। बस, सिर्फ मन हो जिसके संग, उसी से मिलाओ अंग-अगर सब लोगों में ऐसी ईमानदारी होती, तो तलाक़ की संख्या बढ़ जाती। प्यारहीन रिश्ते को सालोंसाल टिकाये रखने की कोशिश न की जाती। अगर औरत की आत्मनिर्भरता बढ़ जाती, सचेतनता बढ़ जाती, तब तलाक़ की संख्या भी निश्चित रूप से बढ़ जाती। अपने को लगातार अपमानित होने देने के लिए औरत राज़ी नहीं होती। चूँकि पति-पत्नी दो अलग-अलग कारणों से तलाक़ नहीं देते, तलाक़ देने से बचते हैं इसलिए व्यभिचार की संख्या बढ़ती जा रही है। खैर बढ़ेगी तो सही! एक वक्त आयेगा जब समाज में दुखी दम्पति और व्यभिचार का रोग छा जायेगा। बहुत-से लोग 'व्यभिचार' को बेहद रक्षणशील मानते हैं। मैं ऐसा नहीं मानती, रिश्ता चाहे किसी भी तरह का हो, रिश्ते में विश्वसनीयता होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है, तो वह ढकोसला है, व्यभिचार है। रिश्ते में अगर प्रेम हो, तो एक-दूसरे के प्रति विश्वास होगा ही होगा। यह जबरन पहरा बिठाकर, कानून बनाकर नहीं लाया जा सकता। लेकिन अगर प्रेम न हो तो उस रिश्ते को जिलाये रखना सिर्फ अपने को ही यन्त्रणा नहीं देता, बाल-बच्चों को भी देता है। बच्चे हर रोज़ नफरत देखते हैं, झगड़ा-झंझट, हिंसा और मार-पीट देखते हैं। यह सब देखते-देखते क्या वे बच्चे, स्वस्थ-सन्दर, हृदयवान. युक्तिवादी इन्सान के तौर पर बड़े हो सकते हैं। असम्भव! अगर जाति के भविष्य के नज़रिये से भी सोचूं, तो भी, हमें अपने प्यारहीन, कड़वे माहौल से बच्चों को दूर ही रखना चाहिए। सभी लोगों के कल्याण के लिए, औरत-मर्द दोनों के हित के लिए, बच्चों के हित के लिए स्वस्थ समाज के कल्याण के लिए, घर-घर दुःसह जीवन गुज़ारने वाले लोगों में प्यारहीन रिश्ते तोड़ ही देना चाहिए। जिसे टूटना है, वह टूट ही जाये। अगर टूटने नहीं देंगे, तो नया कुछ गढ़ा कैसे जायेगा? सड़ी-गली पुरानी चीज़ को छाती से चिपकाये हुए क्या सुन्दरता का सपना देखा जा सकता है?
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं