लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
यह समाज, औरत-मर्द, दोनों को ही यह सबक सिखाता-पढ़ाता आया है कि मर्द ज़रा ज़्यादा इन्सान होता है, औरत ज़रा कम इन्सान होती है। ऐसे बहुत-से काम हैं जो औरत को नहीं करने चाहिए। मसलन उसे बोलना नहीं चाहिए, देखना नहीं चाहिए, सोचना नहीं चाहिए। औरत तन से कमज़ोर होती है, मन से कमजोर होती है। औरत आज़ादी के लायक नहीं है। यही शिक्षा पाते-पाते, औरत का 'आत्मविश्वास' टूटकर, चूर-चूर हो कर बिलकुल निःशेष ही हो गया है। इसलिए औरतें एकजुट नहीं होती, विरोध नहीं करती, मुक़ाबला नहीं करतीं, लात नहीं मारतीं। औरत-विरोधी समाज के ख़िलाफ़ कभी जूं तक नहीं करतीं, बल्कि आदर आह्लाद, बढ़ावा दे-दे कर, उसे सर पर बिठाये रखती हैं।
मर्द यह समझते हैं कि समाज में औरत-मर्द में जो विषमता है, वह औरतों की समस्या है, उन लोगों की नहीं। इसके पीछे आन्दोलन करने की जिम्मेदारी औरतों की है. उन लोगों की नहीं। यह वैषम्य विलप्त करने का दायित्व अकेली औरत का है। मर्द दाय-दायित्वहीन की तरह सैर-तफ़रीह करते फिरते हैं। लेकिन अगर कोई मर्द इस समाज का रत्ती-भर भी भला करने का मन बनाये, तो पहले उसे वैषम्य मिटाने का दायित्व लेना होगा। किसी एक इन्सान द्वारा दूसरे इन्सान पर अत्याचार बरसाने का नियम अगर बहाल रहा, तो कोई समाज स्वस्थ नहीं हो सकता, सुन्दर होने की तो दूर की बात है। समाज को स्वस्थ बनाने का दायित्व अकेले औरत पर क्यों? मर्द-औरत दोनों पर क्यों नहीं? समाज तो औरत-मर्द, दोनों का ही है। तो क्या इसका मतलब यह है कि मर्द यह वैषम्य दूर नहीं करना चाहता? मर्द समता या समानाधिकार नहीं चाहता? अगर चाहता तो ऊपर के मुहाल में जो महान पुरुष बैठे हुए हैं, वे लोग एक फूंक में यह वैषम्य जड़ समेत उखाड़ क्यों नहीं फेंकते?
इसलिए कि अगर यह वैषम्य उखाड़ फेंका तो महिलाओं की बेइज्जती का मौका नहीं मिलेगा। भारतीय समाज जिस परिवार की तारीफें करता आ रहा है, वहीं यह जघन्य अपराध भी जारी है। बालिकाओं और लड़कियों का बलात्कार जारी है। पिता, काका, दादा, जेठू, नाना के परिवार में नन्ही-सी बालिका सुरक्षित नहीं है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
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- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
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- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं