लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
औरत की समस्याओं का क्या वाक़ई यह कोई समाधान है? जहाँ उसे एक पुरुष के आश्रय से, किसी दूसरे पुरुष के आश्रय में जाने को लाचार होना पड़ता है? इससे तो बेहतर यह होता कि, औरत को अगर किसी के आश्रय की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, अगर वह खुद ही, अपने लिए काफ़ी होती। काश, किसी की करुणा की परवाह न करके, अगर वह जी पाती। अपने आत्मसम्मान और आत्मविश्वास के साथ वह जी पाती। काश, औरतें दुर्विनीत और दुःसाहसी होतीं।
जिस समाज में औरत की शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान कुछ भी ज़रूरी विषय नहीं है, जहाँ औरत की इच्छा का कोई मोल नहीं है, जहाँ औरत को जन्म से ले कर मौत तक, दूसरों की इच्छाओं के लिए खासकर पुरुषों की इच्छा के लिए जीना पड़ता है, वहाँ किसी एक राज्य की अदालत की राय, किसी एक औरत के जीवन में ऐसा कौन-सा परिवर्तन लायेगी? समाज तो पहले जैसा ही है, पहले की तरह नारी-विद्वेषी।
अगर गौर किया जाये, तो मंजू के लिए पति के पास रहना या प्रेमी के पास रहना, एक ही बात है। दोनों ही जगह वह आश्रिता है। दोनों ही जगह उसे बिना किसी शर्त के अपना सर्वस्व निवेदन करना होगा। अब, पुरुष अपनी इच्छा मुताबिक चाहे तो उसे लात जमाये, चाहे उसे चूम ले। मंजू का वर्तमान भविष्य अब पुरुष के चरित्र और मन-मिज़ाज पर निर्भर करेगा। एक औरत के जीवन में इससे बड़ी असुरक्षा और क्या होगी? औरत की ज़िन्दगी में सबसे बड़ी असुरक्षा का नाम है-पुरुष! औरत का जितना नुक़सान, पुरुष करता है, उतना नुक़सान दुनिया में और कोई नहीं करता।
औरत जब तक खद अपना आश्रय नहीं बनती, तब तक वह निश्चित रूप से असुरक्षित रहेगी। मुझे मालूम है, बहुत-से लोग नाराज़ हो कर यह कहेंगे कि सारे ही पुरुष तो बुरे नहीं होते, कितने ही पुरुष हैं, जो भले हैं, शरीफ हैं। हाँ, मैं भी जानती हूँ। लेकिन यह जो औरत को पुरुष की भलमनसाहत पर निर्भर करना पड़ता है, यह भी तो उसके लिए, एक किस्म की असहाय स्थिति है। पुरुष की भलमनसाहत जितने दिनों टिकी रहती है, औरत सुरक्षित रहती है। मंद पुरुष से, अमंद पुरुष तक जाना, उस अमंद पुरुष से, और भी निम्नतर अमन्द पुरुष तक जाना यानी चरखी की तरह पुरुष के दरवाज़े-दरवाजे, गोद-गोद घूमना ही, औरत का काम है? पुरुषों की मन्द प्रवृत्तियों से ही नहीं, उनकी निर्ममता, निष्ठुरता, अत्याचार, अनाचार से ही नहीं, बल्कि पुरुषों की भलमनसाहत, उन लोगों की दान-दक्षिणा-दया, करुणा और कृपा से भी अपने को बचाना भी औरतों के लिए बेहद ज़रूरी है। पुरुषों की निष्ठुरता से किसी हाल भी कमतर नहीं है, उन लोगों की करुणा या कृपा। ये सब औरत को मुग्ध और मोहाच्छन्न किये रखता है। औरत प्रतिवाद की भाषा खो बैठती है। बुद्ध और गूंगी, बहरी हो कर, औरतें पुरुषों के चरणों पर फूल निवेदन करती हैं और उन लोगों को ज़्यादा मैगालोमैनियाक दैत्य बना देती हैं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं