लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ देश-प्रेम का दिखावा करते हैं! बड़े-बड़े बुद्धजीवी देश-प्रेम का परचम लहराते हैं, लेकिन झूठ को भी स्वीकार कर लेने में भी इन लोगों जैसा पारदर्शी और कोई नहीं है। खुद प्रेसिडेण्ट होने के बावजूद, रूजवेल्ट ने एक दिन कहा था-'इट इज़ अनपैट्रिक नॉट टु टेल द ट्रथ, वेदर एबाउट द प्रेसिडेण्ट और एनीवन एल्स!' यानी 'तुम्हारे मन में देश-प्रेम जैसा कुछ भी नहीं है, अगर तुम सच छिपा लेते हो, वह सच भले किसी भी इन्सान के बारे में हो या देश के राष्ट्रपति के बारे में ही क्यों न हो।' यहाँ नाच-गाना होता है! सरकारी काव्य-पाठ आयोजित होता है। अनगिनत कवि उस काव्य-पाठ में शामिल होते हैं, आनन्दपूर्वक वे लोग प्रेम और विरह की कविताएँ पढ़ते हैं। हालाँकि उन लोगों की बगल से ही सिंगर के बारे में प्रतिवेदन-जुलूस गुज़र रहा होता है। बड़े-बड़े कवि जुबान पर ताला जड़े बैठे रहते हैं। अगर कहीं वे ज़ुबान का ताला खोलें, तो उनका कहीं कोई नुक़सान न हो जाये। लेकिन क्या वे लोग सिंगुर की अनशनरत औरतों से भी ज़्यादा कुछ खोयेंगे? शहरी सम्भ्रान्त कवियों का नुक़सान क्या सच ही उन औरतों से ज़्यादा होगा?
दार्शनिक वॉल्टेयर कितने पहले ही कह गये हैं-इट इज़ डेंजरस टु बी राइट, व्हेन, द गवर्नमेंट इज़ रांग! आज भी हम यही देखते हैं और हर पल इस कथन की सच्चाई को महसूस करते हैं। चारों तरफ़ औरतें ही जान जोखिम में डालती हैं। अनशन में औरतें ही दम तोड़ेंगी! पुरुष तो बस, अनशन तोड़ता है। औरतें अनशन नहीं तोड़तीं। ऐसी निःस्वार्थ, निर्भीक, ईमानदार और साहसी औरतें अगर राज्य या राष्ट्र या विश्व चलातीं तो दुनिया और भी खूबसूरत हो उठती।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं