लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
मैंने फिर पूछा, 'तब तुम लोगों की फ़िक्र क्यों कर रही हो कि शांखा-सिन्दूर न पहना तो लोग बाग़ क्या कहेंगे? क्या कहेंगे? अरे, जो चाहें, सो कहें, कहने दो। लावारिस माल समझ भी लिया तो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? अगर तुम यह कहो कि तुम्हारी अनुमति के बिना ही कोई तुम्हारी देह पर हाथ लगायेगा, कोई तुम्हें तंग करेगा, तुम पर कोई टूट पड़ेगा, तो भी क्या आता-जाता है? तुम्हारे पास, तुम्हारी कटार तो रहती ही है। डरती क्यों हो?'
सप्तमी की आँखों में कोई और भय झलक उठा। वह भय था लम्बे समय से पूरे दम-खम के साथ, मन में विराज करता हुआ, संस्कार तोड़ने का भय! यह भय, सप्तमी की तरह और भी हज़ारों-हज़ार सप्तमियों में मौजूद है।
निम्न वित्त लड़कियाँ कैसे-कैसे काण्ड कर डालती हैं जो उच्च श्रेणी, उच्च शिक्षित, उच्च वित्त लड़कियों के द्वारा उन सबकी कल्पना करना भी असम्भव है। ये सैकड़ों सप्तमी, चूँकि क़ानून नहीं जानतीं, इसलिए मानती भी नहीं। उनके आहार जुटाने में, जो लोग भी रुकावट बनते हैं, वे लोग ऐसा कुछ जो कुछ भी देखती हैं, पूरी ताकत से उसे उखाड़ फेंकती हैं। वे लोग इस बात की कतई परवाह नहीं करती कि लोग क्या कहेंगे। ज़बर्दस्त ताकत और साहस के साथ, ऐसी औरतें जिन्दा रहती हैं। ऐसा कोई, कहीं नहीं है, जो दो पैसों से औरतों की मदद करे या एक जून खाना दे कर उनको सहयोग करे। ये औरतें हर दिन जंग करती हैं, अन्न के एक-एक दाने के लिए जूझना पड़ता है उन लोगों को। ये लोग कभी स्कूल नहीं गयीं, अ-आ भी नहीं जानतीं। लेकिन उछल कर कैसे ट्रेन पकड़ी जाती है, वे जानती हैं। कोई कन्धे पर हाथ रख दे, तो कैसे पूरे खानदान के नाम गालियाँ उगलते हुए, झटक कर अपने को छुड़ा लेना होता है, वे लोग जानती हैं। उन्हें यह भी आता है कि कोई उनके पैसों की तरफ़ हाथ बढ़ाये तो वह हाथ कैसे मरोड़ देना होता है। रात के अंधेरे में अगर कोई दरवाज़ा तोड़ कर, अन्दर कमरे में दाखिल हो, तो उसके सिर पर कैसे वार बिठाना होता है, यह वे लोग बखूबी जानती हैं। सिर्फ यही नहीं जानतीं कि हाथ का शांखा कैसे उतार कर फेंक देना चाहिए, माँग का सिन्दूर कैसे पोंछ देना चाहिए। आज भी अधिकांश औरतें, संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं, यहाँ तक कि दुर्दान्त साहसी औरतें भी!
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं