मैंने फिर पूछा, 'तब तुम लोगों की फ़िक्र क्यों कर रही हो कि शांखा-सिन्दूर न पहना तो लोग बाग़ क्या कहेंगे? क्या कहेंगे? अरे, जो चाहें, सो कहें, कहने दो। लावारिस माल समझ भी लिया तो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? अगर तुम यह कहो कि तुम्हारी अनुमति के बिना ही कोई तुम्हारी देह पर हाथ लगायेगा, कोई तुम्हें तंग करेगा, तुम पर कोई टूट पड़ेगा, तो भी क्या आता-जाता है? तुम्हारे पास, तुम्हारी कटार तो रहती ही है। डरती क्यों हो?'
सप्तमी की आँखों में कोई और भय झलक उठा। वह भय था लम्बे समय से पूरे दम-खम के साथ, मन में विराज करता हुआ, संस्कार तोड़ने का भय! यह भय, सप्तमी की तरह और भी हज़ारों-हज़ार सप्तमियों में मौजूद है।
निम्न वित्त लड़कियाँ कैसे-कैसे काण्ड कर डालती हैं जो उच्च श्रेणी, उच्च शिक्षित, उच्च वित्त लड़कियों के द्वारा उन सबकी कल्पना करना भी असम्भव है। ये सैकड़ों सप्तमी, चूँकि क़ानून नहीं जानतीं, इसलिए मानती भी नहीं। उनके आहार जुटाने में, जो लोग भी रुकावट बनते हैं, वे लोग ऐसा कुछ जो कुछ भी देखती हैं, पूरी ताकत से उसे उखाड़ फेंकती हैं। वे लोग इस बात की कतई परवाह नहीं करती कि लोग क्या कहेंगे। ज़बर्दस्त ताकत और साहस के साथ, ऐसी औरतें जिन्दा रहती हैं। ऐसा कोई, कहीं नहीं है, जो दो पैसों से औरतों की मदद करे या एक जून खाना दे कर उनको सहयोग करे। ये औरतें हर दिन जंग करती हैं, अन्न के एक-एक दाने के लिए जूझना पड़ता है उन लोगों को। ये लोग कभी स्कूल नहीं गयीं, अ-आ भी नहीं जानतीं। लेकिन उछल कर कैसे ट्रेन पकड़ी जाती है, वे जानती हैं। कोई कन्धे पर हाथ रख दे, तो कैसे पूरे खानदान के नाम गालियाँ उगलते हुए, झटक कर अपने को छुड़ा लेना होता है, वे लोग जानती हैं। उन्हें यह भी आता है कि कोई उनके पैसों की तरफ़ हाथ बढ़ाये तो वह हाथ कैसे मरोड़ देना होता है। रात के अंधेरे में अगर कोई दरवाज़ा तोड़ कर, अन्दर कमरे में दाखिल हो, तो उसके सिर पर कैसे वार बिठाना होता है, यह वे लोग बखूबी जानती हैं। सिर्फ यही नहीं जानतीं कि हाथ का शांखा कैसे उतार कर फेंक देना चाहिए, माँग का सिन्दूर कैसे पोंछ देना चाहिए। आज भी अधिकांश औरतें, संस्कारों की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं, यहाँ तक कि दुर्दान्त साहसी औरतें भी!
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