लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
वैसे औरत की निष्ठरता देख कर लोग भला शंकित क्यों हो उठते हैं? क्योंकि जैसा प्रचार किया गया है, औरत से वही अपेक्षा की जाती है। नारीमात्र ही ममतामयी होती है। चूंकि यही धारणा दिमाग़ में घर कर गयी है इसलिए निष्ठुरता पूरी-पूरी तरह अप्रत्याशित होती है। पुरुषों की निष्ठुरता भले सह ली जाये, औरत की निष्ठुरता बर्दाश्त से बाहर है।
असल में स्वाधीनता और समानाधिकार के लिए जो संग्राम जारी है, वह तो एक आदर्श के लिए संग्राम है। इस आदर्श में औरत भरोसा कर सकती है, पुरुष भरोसा नहीं भी कर सकता है। इसका उल्टा भी हो सकता है! औरत इन आदर्शों में बिलकुल भी विश्वास नहीं करती, लेकिन पुरुष करते हैं। (ऐसे पुरुष, जो नारी स्वाधीनता में विश्वास करते हैं-उन लोगों की संख्या नितान्त ही कम है। विश्वास होने के बावजूद औरतों के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय तरीके से शामिल होने वालों की संख्या और भी कम है।) इसलिए नारी-अधिकार के बारे में लिखी गयीं मेरी रचनाएँ अगर सभी औरतों को पसन्द न आयें, तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। यह पुरुषतान्त्रिक समाज इतना तो अहमक नहीं है कि सभी नारियों को नारी स्वाधीनता के बारे में सचेत करे और अपनी स्वाधीनता की घोषणा सुनते ही औरतें हाथ उठाकर समर्थन दें। पराधीन रहते-रहते अधिकांश औरतें पराधीनता को ही अपना आश्रय मान लेती हैं। उन लोगों के जीवन में लोहे की दीवार के छेद से हो कर जितनी-सी रोशनी आती है, उतनी-सी धूप उनकी है, उतनी-सी स्वाधीनता उनकी है।
मैं औरतों की पूर्ण आज़ादी की बात करती हूँ और बहुत-सी औरतें इसे अतिशयता मानती हैं। बहुत बार ऐसा भी होता है कि औरतों की आज़ादी के बारे में, मैं जो कहती हूँ, वह औरतों को जितनी समझ में आती हैं, उससे ज़्यादा पुरुष समझ जाते हैं। मेरी बातें उन लोगों की समझ में आ जाती हैं क्योंकि पुरुषों को आज़ादी जीने की आदत पड़ चुकी है, इसलिए आज़ादी का मतलब वे लोग जानते हैं। पुरुष मेरे लेखन के खिलाफ़ बोलते हैं, क्योंकि वे सही-सही समझ जाते हैं कि मेरे कहने का क्या अर्थ है। औरतें मेरी लेखनी-विरुद्ध आचरण करती हैं क्योंकि वे ठीक-ठीक नहीं जानतीं कि मैं क्या कहना चाहती हूँ। दोनों के विरोध की भाषा एक होती है, हाँ वजह भिन्न-भिन्न होती है।
पुरुषतान्त्रिक समाज में औरत ही शिकार है। जैसे यह सच है, वैसे ही नारी ही आत्मघाती होती है यह भी सच है आज अगर औरतें अपने अधिकारों के मामले में सचेत होती, आत्मपरिचय के संकटमोचन में, अगर वे लोग अलग-अलग न हो कर संगठित होती. औरत-औरत में अगर और ज्यादा सम्पर्क होता. परस्पर के प्रति अगर सहानुभूति और श्रद्धा ज़रा और बढ़ जाती, अगर वे लोग अन्तरंग हो कर एक-दूसरे के प्रति सहयोग में हाथ मिलाती, क्षमता बढ़ाने में औरत अगर औरत का साथ देती तो पुरुषतन्त्र में और गहरी दरारें पड़ जातीं और वह भयंकर रूप से चूर-चूर हो जाता। यह दुनिया रहने लायक बन जाती।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं