पुरुष वधू-निर्यातन क़ानून के विरोधी हैं क्योंकि बीवी पर मनमाना अत्याचार करने में यह क़ानून बाधक है। औरत तो मर्द की अधिकृत सामग्री होती है। अपनी अधिकृत औरत पर अगर लात- से, थप्पड़-तमाचे बरसाकर अगर अपने वश में न रख सके तो और किसे रखेंगे? औरत अगर संगम के लिए राज़ी न हो तो उसका बलात्कार न किया जाये तो उनका पौरुष कहाँ जायेगा? यह क़ानून पुरुष के पौरुष पर चोट करता है। इसीलिए वे चाहते हैं कि शहरी, शिक्षित औरतें भी गाँव की दरिद्र, अशिक्षित, निर्यातित औरत जैसी हो जायें। वे लोग भी मुँह बन्द किये, पीठ बिछाकर सारे अत्याचार सहना सीख लें। औरतें अगर नहीं सह पातीं तो पुरुषों को गुस्सा चढ़ जाता है। सिर से पाँव तक वे लोग जल-भुन जाते हैं।
हाँ, पुरुष लोग नहीं चाहते कि औरतें अपने अधिकार के बारे में जागरूक हों। वे नहीं चाहते कि औरत आज़ादी का अर्थ समझ ले या उनमें कोई आत्मसम्मान-बोध बचा रहे। इसीलिए निहायत धूर्त तरीके से यह वास्ता देते हुए कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है, यह इल्ज़ाम लगाते हुए बहाने से इस कानून के ख़िलाफ़ बोलते रहते हैं।
यह कोई नयी बात नहीं है। दुनिया के किसी भी देश में औरत पर पुरुषों के अन्याय, अनाचार, अत्याचार के ख़िलाफ़ जब भी कोई कानून बना है, नारी-अधिकार-विरोधी पुरुष इसी तरह नाराज़ हुए हैं, फूत्कार उठे हैं, चीखे-चिल्लाये हैं। ऐसे लोगों में सभी किस्म के लोग शामिल थे, बल्कि किसान-खेतिहर के मुक़ाबले शहर के तथाकथित पढ़े-लिखे पुरुषों की संख्या ज़्यादा थी।
जब भी कोई औरत मार खा-खाकर कूबड़ हुई पीठ सीधी करती है, अपने सिर को ऊँचा करके खड़ी हो जाती है, अब मार न खाने की क़सम खाती है, पुरुष वर्ग उस औरत की तरफ़ उँगली उठाकर कहता है-'यह बदचलन औरत है! भ्रष्ट औरत!' यह कोई नयी बात भी नहीं है। सभी देश, सभी समाज में, यह सब घटता ही रहा है! घटता रहेगा।
भारतवर्ष में जो दो-तिहाई विवाहिता औरतें, अपने पति द्वारा निर्यातित होती हैं जिस दिन हर निर्यातित औरत यानी दो-तिहाई औरतें वधू-निर्यातन के मामले में अपने अत्याचारी पति को जेल की सलाखों के पीछे ठूस देंगी, उस दिन मैं समझूगी कि इस भारत देश की औरतें साधारण होते हुए भी अब जागरूक हो गयी हैं। मामूली-सा ही सही, उन लोगों में आत्मसम्मान बोध अभी बच रहा है। जिस दिन उन लोगों के दिल से डर निकल जायेगा, दुविधा मिट जायेगी, उस दिन मैं समझूगी कि औरतों ने शान से सिर उठाकर जीने की योग्यता अर्जित कर ली है। अगर आत्म-सम्मान बोध मौजूद हो तो अपने पैरों पर खड़े होने का भी कोई न कोई उपाय निकल ही आयेगा।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि औरतें जिस हद तक अपने पति द्वारा किये गये अत्याचार सहती हैं, लांछित होती हैं, अपमान झेलती हैं, उतना अन्य किसी के द्वारा नहीं होतीं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी औरत का उस हद तक हत्यारा नहीं होता, जितना उसका अपना पति! हमें यह बात भी अपने दिल से नहीं मिटाना चाहिए कि औरतें जिस कारण से सबसे ज़्यादा आत्महत्या करने को लाचार होती हैं, वह कारण है-उसका पति!
...Prev | Next...