लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


ये सब कोई ऐसी बातें नहीं हैं जो लोग न जानते हों। जिसमें बोध-बुद्धि होती है, वे लोग इस बारे में बहस में नहीं पड़ते। लेकिन मैंने देखा, इसी कलकत्ते में चन्द पढ़े-लिखे लोग यह कहते हैं कि वधू-निर्यातन और महिलाओं के शोषण के क़ानून, भारत में सबके अनुकूल नहीं हैं।

अनुकूल क्यों नहीं हैं, यह पूछने पर किसी ने बेहद गम्भीर आवाज़ में कहा, 'मुर्शिदाबाद के किसी गाँव की किसी औरत पर जो क़ानून लागू होता है, कलकत्ता के गड़ियाहाट की किसी बहुमंजिली इमारत के फ्लैट में रहने वाली औरत पर फिट नहीं बैठता।'

'क्यों? फिट क्यों नहीं बैठता?' यह पूछने पर जो जवाब मिला, उसका सारांश कुछ यूँ था 'गाँव की अनपढ़ औरतों पर जिस क़िस्म का अत्याचार होता है, वैसा शहरी, पढ़ी-लिखी औरतों पर नहीं होता। गाँव की औरतों को मार-मारकर अधमरा कर डालने के बावजूद वे लोग मुकदमा वगैरह नहीं ठोंकतीं, लेकिन शहरी औरतें मामूली-सी भी मार खाती हैं, तो वे लोग फोर ट्वेन्टी नाइन दिखा देती हैं।'

मैं काफ़ी देर तक सन्न बैठी रही।

मेरे उस विस्मय की बेसुधी छंटने से पहले ही कोई धड़धड़ाकर कहने लगा, 'असल में औरतें इस कानून का अत्यन्त दुरुपयोग कर रही हैं। यह क़ानून पुरुष-विरोधी क़ानून है। मार खाकर औरतें थाने में रपट लिखा सकती हैं। लेकिन, भई, फोर नाइन्टी एट क्यों? इस कानून का फ़ायदा उठाते हुए ढेरों बेकसूर मर्दो को परेशान किया जा रहा है। शहरी लोग यह कहानी समझ गये हैं, इसीलिए तो बैकलेश हो रहा है।

मारे-गुस्से के उन मर्दो की आँखें लाल सुर्ख हो उठी थीं। निगाहें औरतों के प्रति घृणा उगल रही थीं।

मुझे किसी सरकारी रिपोर्ट की याद हो आयी, जिसके मुताबिक भारत की दो-तिहाई शादीशुदा औरतें घरेलू-हिंसा या घरेलू-निग्रह की शिकार हैं। हाँ, मेरे मन में तीखी जिज्ञासा जाग उठी कि इन दो-तिहाई औरतों में से कितनी औरतों ने वधू-निर्यातन का मामला दायर किया? नहीं, मुझे उनकी संख्या मालूम नहीं है। लेकिन मेरा अन्दाजा है कि एक या एकाधिक लाख नियतित औरतों में से शायद एकाध औरतों ने ही कानून का सहारा लिया होगा। जो औरतें मामला दायर नहीं करतीं, उन लोगों के पास केस न करने की सैकड़ों वजहें मौजूद हैं। वे कारण हैं-(1) उन लोगों को जानकारी ही नहीं है कि वधू-निर्यातन-क़ानून जैसा कोई कानन है। (2) वे लोग आर्थिक रूप से अपने पति पर निर्भर करती हैं। अब, वे पति के खिलाफ केस करती हैं तो पति उनका खाना-कपड़ा बन्द कर देगा या घर से ही खदेड देगा। तब वे कहाँ जायेंगी, क्या खायेंगी, क्या पहनेंगी? (3) वे खुद भी कमाती तो हैं, मगर तलाक हो गया तो अकेली की कमाई से आराम की ज़िन्दगी सम्भव नहीं होगी। (4) अगर केस किया तो मेरा पति मार-मारकर मेरी हड्डी-पसली तोड़ देगा। वह जान तक ले सकता है। औरतों को हर वक़्त यही डर लगा रहता है। (5) केस ठोंक दिया. तो लोग-बाग़ बदनामी करेंगे, थू-थू करेंगे। (6) तलाक हो गया तो बाल-बच्चे तकलीफ पायेंगे। (7) ऐसा भी तो हो सकता है कि पति फिर मेहरबान हो जाये। (8) तलाक़ हो गया तो ज़िन्दगी बर्बाद हो उठेगी। तलाकशुदा औरत की इस समाज में दर्दशा का कोई अन्त नहीं है। (9) किसी दूसरे मर्द से विवाह किया तो मुमकिन है कि उसका भी चरित्र ऐसा ही हो। इसलिए क्या ज़रूरत है? (10) यह समूचा समाज ही ऐसा है। जाने कितनी ही औरतें अत्याचार बर्दाश्त करती रहती हैं। अगर वे लोग अपनी जुबान बन्द रख सकती हैं, तो वे क्यों नहीं? (11) पीहरवाले मामला-वामला करने के बजाय समझौता कर लेने की सलाह दे रहे हैं (12) भगवान ने ही जब जोड़ी मिला दी है। अब यह जोड़ी तोड़ने का मतलब है, भगवान के खिलाफ़ जाने का पाप कमाना।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book