लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
नारी की रक्षा के लिए नारी का मान-सम्मान बचाने के लिए अलग से कोई कानून बनाने की ज़रूरत नहीं है। नारी राष्ट्र की नागरिक है। यह कर्तव्य राष्ट्र का होता है कि वह सभी नागरिकों की सुरक्षा का विधान करे। राष्ट्र अगर अपने तमाम नागरिक या जनगण को सुरक्षा दे तभी बेहद स्वाभाविक तरीके से औरतों को भी ज़रूरी सुरक्षा मिल जायेगी। राष्ट्र क्या ऐसा करता है। यदि ऐसा करता, तो सरकार अनुमोदित विवाह, तलाक, उत्तराधिकार वगैरह क़ानूनी-वैषम्य की शिकार नारी को नहीं बनना पड़ता। यदि ऐसा करता तो दिन ही क्यों, रात को भी नारी निश्चिन्त मन से रास्ता-घाट, कर्मक्षेत्र में आती-जाती। उसे किसी भी प्रकार के निग्रह का शिकार नहीं होना पड़ता। राष्ट्र अगर ऐसा करता तो नारी घर-घर सुख-शान्ति और चैन से रह पाती।
नारी की सुरक्षा कहीं नहीं है। सुरक्षा के लिए बहुत-से क़ानून बनाये गये हैं। कहीं-कहीं इनका प्रयोग भी हो रहा है। लेकिन सच्ची सुरक्षा नारी को कहीं नसीब नहीं है। सिर्फ़ क़ानून से सारी समस्याएँ हल नहीं की जा सकतीं। आज अगर पुरुष नारी पर आक्रमण नहीं करता तो वह महज क़ानून के डर से। लेकिन पुरुष जिस दिन से नारी पर इस वजह से आक्रमण न करे कि वह नारी का इन्सान के तौर पर सम्मान करता है उसी दिन इस समस्या का सच्चा समाधान होगा, इससे पहले नहीं। श्रद्धा और सम्मान अन्दर से आता है। अगर अन्दर से न आये, बाहर से आरोप किये गये, कृत्रिम उपायों से जिस भी कला या संस्कृति का निर्माण क्यों न किया जाये, चटकी बजाते ही सारा कुछ टूट-फूटकर बिखर जायेगा।
क़ानून का भय तो आज रहता है, कल नहीं रहता। इन्सान का भय धीरे-धीरे गुज़रते वक़्त के साथ दूर होता है। दुर्नीतिग्रस्त समाज में, अन्त में भय नामक कोई चीज़ किसी में नहीं बची रहती। कोई भी शान से सीना तानकर वह आतंक चलाये जा सकता है। क़ानून का डर दिखाकर नारी-निर्यातन बन्द नहीं किया जा सकता, कभी किया भी नहीं जायेगा। निर्यातन बन्द करने का एकमात्र उपाय है-पुरुषों की मानसिकता बदलना। औरत को कमज़ोर समझने, सेक्स-सामग्री, खिलौना, दासी, मनोरंजन की चीज़ या उत्पादन की मशीन समझने की मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी तब तक कभी भी इस समाज में सुरक्षा नहीं पा सकती।
सवाल यह उठता है कि पुरुषों की यह मानसिकता आखिर किन लोगों ने तैयार की? यह मानसिकता राष्ट्र-व्यवस्था, समाज-व्यवस्था, कानून-व्यवस्था और शिक्षा-व्यवस्था ने तैयार की है। हर व्यवस्था ही पुरुषतान्त्रिक और पुरुषकेन्द्रित होती है। एक मायावती के ज़रिये राजनैतिक दुनिया को चौंकाया तो जा सकता है लेकिन समाज को नहीं बदला जा सकता है। समाज में और अधिक मेधा जैसी, मायावती जैसी औरतों की ज़रूरत है। अधिकाधिक दृढ़ता से इन्सानों का अड़ जाना ज़रूरी है। समता के लिए और अधिक जंग की ज़रूरत है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं