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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


मुझे इस बात पर कतई विश्वास नहीं होता कि नवनीता देवसेन ने मेरी कोई किताब नहीं पढ़ी। वैसे कोई भी किताब या कोई भी रचना पढ़े बिना ही मन्तव्य करने वाले लोग समाज में नहीं हैं, ऐसा नहीं है। लेकिन मैं उन्हें उन लोगों की क़तार में क्यों शामिल करूँ? वे जिम्मेदार इन्सान हैं। जब वे खुद अपना वक्तव्य पेश कर रही हैं, तो ज़रूर गैर-ज़िम्मेदार की तरह उन्होंने नहीं कहा होगा। मैं तो यह जानती हूँ, कि इस किस्म का मन्तव्य वे लोग ही करते हैं जिन लोगों ने मेरी रचनाएँ नहीं पढ़ीं, या पढ़ने के बावजूद समझी नहीं हों। बांग्लादेश में भी कुछ लोग ऐसे थे, पश्चिम बंगाल में भी! लेकिन नवनीता देवसेन के स्तर की किसी लेखिका से ऐसा इल्ज़ाम, मुझे पहले कभी नहीं मिला था। यह काफ़ी कुछ चरित्रहनन जैसा था। अगर मैं अपने मानववादी आदर्श और नीति के प्रति श्रद्धाशील न रहूँ, सच बोलने जैसी ईमानदारी अगर खो दूँ तो मैं खुद ही क़बूल कर लूंगी कि मुझमें चरित्र जैसी कोई चीज़ नहीं है। लेकिन, जो मैं नहीं हूँ। अगर कहा जाये कि मैं वही हूँ तो वह चरित्र हनन नहीं, तो और क्या है? मेरी संज्ञा में चरित्रहीनता के साथ यौनता का कोई सरोकार नहीं होता, सरोकार होता है शठता, नीचता, बेईमानी, झूठ, प्रतारणा, छलना और चतुराई का।

ई टी.वी. पर 'परम्परा' में नवनीता देवसेन और मुझे ले कर दो कार्यक्रम किये गये। हमसे पहले अनेक कवि, साहित्यकार, कलाकारों को इसमें आमंत्रित किया जा चुका था और उनका कार्यक्रम टेलीकास्ट भी हो चुका था। लेकिन जाने किस रहस्यमय कारण से नवनीता तसलीमा जोड़ी का इन दोनों कार्यक्रमों में से एक भी, इतने वर्ष गुज़र जाने के बाद भी, आज तक टेलीकास्ट नहीं हुआ। कार्यक्रम में, मैंने यह जानने का आग्रह जाहिर किया था कि नवनीता देवसेन जैसी व्यक्तित्व-सम्पन्न इन्सान, आज भी पति की पदवी धारण किये हुए हैं, इसकी क्या वजह हैं? उसी नाम के उनके महिला लेखिका संगठन में अन्य किसी महिला-लेखिका को शामिल होने का अधिकार है, मेरा क्यों नहीं है-मैंने यह भी जानना चाहा था। दोनों ही कार्यक्रम ख़ासे विदग्ध नारीवादी कार्यक्रम थे। लेकिन आजकल प्रतिष्ठित संस्थानों के कार्यकर्ताओं को जैसे धुन सवार रहती है कि वे लोग चुन-चुनकर, नारीवादी कार्यक्रमों पर कैंची चलाते हैं।

काफ़ी लम्बे अर्से से धर्म और पुरुषतन्त्र की आलोचना करते हुए लिखती-कहती रही हूँ, क्योंकि मैं मानवाधिकार में विश्वास करती हूँ। मेरी नज़र में औरत-मर्द, दोनों ही मनुष्य हैं। औरत चूँकि औरत होने की वजह से समाज में निग्रहीत होती रही है,

कुचली-पीसी जाती रही है, चूँकि औरत की आज़ादी और समानाधिकार पाने के ख़िलाफ़, सैकड़ों तरह के पुरुषतान्त्रिक षड्यन्त्र विराजमान हैं, इसलिए मैं सभी नारी-विरोधी नियम-नीति और कुटिल-जटिल षड्यन्त्र का प्रतिवाद करती हूँ। चूंकि मैं प्रतिवाद करती हूँ, इसलिए कोई मुझे नारीवादी कहता है, कोई मानववादी कहता है और मूर्ख लोग परम निश्चिन्त लहजे में बोलते रहते हैं-मैं पुरुष-विद्वेषी हूँ।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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