लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
मैंने तरुण को समझाया, 'यह जो तुम दो लाख रुपये खर्च करके दहेज दे रहे हो, इससे तो बेहतर है कि ये रुपये तुम अपनी बहन की पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करो। अभी वह उच्च माध्यमिक में पढ़ रही है न! अभी क्या उसके विवाह की उम्र है? बहन को वकील बनाओ। उसके बाद तो दहेज की ज़रूरत नहीं पड़ेगी न? और जिस घर में अपनी बहन को भेज रहे हो, वहाँ उसका परनिर्भर जीवन कैसा होगा, यह उसे नहीं मालूम ! मुमकिन है वह अत्याचार करे, हर रात उसे मारे-पीटे, मुमकिन है, उसे निकाल बाहर करे, तब? परनिर्भर लड़की को फिर अपने पीहर लौट आना पड़ेगा। वहाँ भी वह परनिर्भर ही होगी। उठते-बैठते उसे ताने-व्यंग्य सहने होंगे। उसके दुर्भोग की सीमा नहीं रहेगी। इससे कहीं अच्छा है कि वह लड़की पढ़े-लिखे, अपने पैरों पर खड़ी हो जाये। उसके बाद उसे किसी के आसरे-भरोसे नहीं बैठना होगा। वह शान से सिर उठाकर जी सकेगी।
तरुण इस बार पहले से भी ज़्यादा ज़ोर से हँस पड़ा मानो ऐसी ज्ञानहीन इन्सान, उसने अपनी ज़िन्दगी में नहीं देखी। उसकी यह धारणा बन गयी कि मुझमें वास्तव में बद्धि बिलकल नहीं है।
'तुम्हारी बहन क्या अब पढ़ाई-लिखाई छोड़ देगी? आगे नहीं पढ़ेगी?'
'जी, यह तो उसके ससुरालवालों की इच्छा पर निर्भर करता है। वे लोग अगर चाहेंगे कि उसकी पढ़ाई-लिखाई जारी रखेंगे, अगर नहीं चाहेंगे, तो रोक देंगे।
'तुम्हारी बहन की इच्छा का कोई मोल नहीं है?'
तरुण फिर हँस पड़ा।
उसने हँसते-हँसते ही कहा, 'यह कैसी बात? अरे, वह तो लड़की है।'
काफ़ी देर तक खामोशी या स्तब्धता के बाद मैंने कहा, 'तो क्या वह लड़की पति और ससुराल की सम्पत्ति बन जायेगी?'
तरुण ने फिर एक बार हँसकर जवाब दिया, 'जी हाँ, बेशक! नियम ही ऐसा है।'
मैं समाज के नीति-नियमों के बारे में कुछ नहीं जानती, इस बारे में तरुण को पक्का विश्वास हो गया। उसे मुझ पर ज़रा तरस ही आया।
अब कुछ दिनों बाद तरुण की बहन किसी की बीवी, किसी की भाभी, किसी की चाची, किसी की मामी बनकर ज़िन्दगी शुरू कर देगी। उसकी ज़िन्दगी, किसी और ज़िन्दगी में विलीन हो जायेगी। उसका अस्तित्व भी किसी और अस्तित्व में गुम हो जायेगा। इसी तरह तरुण की बहन की तरह ही जाने कितनी लड़कियाँ निःशेष हो रही हैं; अपना कोई परिचय रचने के बजाय, पुरुषतन्त्र की आग में आत्माहुति दे रही हैं। अपनी समूची सम्भावनाओं को धू-धू करती आग में फूंककर किसी दूसरे की शरण में, दूसरे की कृपा पर, दूसरे की भीख पर, ये लड़कियाँ जीती रहती हैं। यूँ जीते रहने को मैं भला और कुछ भी कहूँ, इसे जीना हरगिज़ नहीं कह सकती।
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- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
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- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
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- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
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