लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
नहीं, 'बहू' कहने का रिवाज सिर्फ प्रचलित 'बोली' है, ऐसा नहीं है। शुद्ध भाषा में भी इसका ख़ासा प्रचलन है। दुनिया भर की पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर ही पढ़ती हूँ- 'कूदकर, वधू द्वारा आत्महत्या'। वधू का खून! वधू का बलात्कार! वधुओं के बारे में कोई न कोई ख़बर तो होती ही है। वधू कौन हैं? वही एक जवाब! औरत! औरतों को वधू क्यों कहा जाता है? इसलिए कि वे औरतें विवाहिता हैं। औरतें क्या विवाह के बाद, औरत नहीं रहतीं? सब 'बहू' हो जाती हैं? पुरुष तो विवाह से पहले या बाद में पुरुष ही रहता है। मैंने ऐसी ख़बर तो कभी नहीं पढ़ी-'वर की आत्महत्या'। वर का खून! वर का बलात्कार! या ‘पति द्वारा आत्महत्या'। पति का खून! पति का बलात्कार! यानी नाम द्वारा नहीं, लिंग द्वारा भी नहीं! यानी औरत, महिला, नारी, रमणी वगैरह द्वारा नहीं, अपनी शिक्षा-दीक्षा, काम-काज द्वारा भी नहीं, प्रतिभा, पारदर्शिता द्वारा भी नहीं, औरत का परिचय, पुरुष के साथ उसके रिश्ते के मुताबिक पहचाना जाता है।
जब बाजार से सौदा वगैरह लेने जाती हूँ तो मछली वाला जो मुझे पहचानता भी नहीं, मुझे 'भाभी जी' कह कर बुलाता है। अगर मैं उन लोगों की भाभी हुई तो उन लोगों के 'भइया' कौन हैं, मैंने एक दिन जानना चाहा। नहीं, वे लोग किसी 'भइया' को नहीं जानते थे। महिला देखते ही वे लोग समवेत स्वर में भाभी को आवाजें देने लगते हैं। आदत है! सिर्फ़ मछलीवाले को ही दोष क्यों हूँ, वहाँ जितने भी 'वाले' हैं सभी एक ही राह के राही हैं। टेलीविजन पर 'आहार-ज्योनार' के कार्यक्रम में, चाहे जो भी महिला खाना पकाने आये, मीठे-मीठे मुस्कराते हुए, सभी महिलाओं को 'भाभी जी' सम्बोधित किया जाता है। यानी वह किसी न किसी पुरुष भइया की बीवी होती है! यही है महिला का परिचय।
आदत! आदत न होने की कोई वजह नहीं है इसलिए आदत पड़ गयी है। इन्सान आखिर अपने परिवार-परिजन, अपने चारों तरफ़ के लोगों से ही सीखता है न। उन लोगों ने यही सीखा है कि औरतों का हमेशा ही कोई न कोई 'प्रभु' कोई मालिक होना चाहिए। पुरुष प्रभु औरत नामक प्राणियों की सुरक्षा होते हैं। उन्हें तालीम मिली है कि औरतों को दहेज दे कर, पुरुष प्रभुओं के नियन्त्रण में, परनिर्भर लता की तरह जीना पड़ता है। उन लोगों ने यह भी सीखा है कि औरतों का कोई पृथक अस्तित्व नहीं होना चाहिए।
आमतौर पर औरतें पति पर सामाजिक और अर्थनैतिक तौर पर निर्भरशील होती हैं। लेकिन सच तो यह है कि औरतें जब तक राजनैतिक, अर्थनैतिक और सामाजिक तौर पर पुरुषों के बराबर होती हैं, उतने दिनों उन लोगों का खुद अपने निजी परिचय के साथ ज़िन्दा रहना, निश्चित रूप से मुश्किल है। जितने दिनों तक वे लोग शारीरिक स्वाधीनता अर्जित नहीं करतीं, उतने दिनों उन लोगों की मानसिक स्वाधीनता भी अरबी के पत्तों पर पड़े पानी की बूँद की तरह है। पल भर रहा, देखते ही देखते दुलक गया।
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं