लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
जिस दिन नारी-पुरुष, दोनों ही नारी को इन्सान के तौर पर श्रद्धा-सम्मान देना सीख जायेंगे, उस दिन नारी-विरोधी कोई क्रिया-कलाप, कोई भी क़ानून, कोई भी कुसंस्कार, इस समाज में नहीं टिक पायेगा। तब नारी की सुरक्षा के लिए बार-बार क़ानून प्रणयन करने की भी ज़रूरत नहीं होगी। जो श्रद्धा करता है वह औरत का बलात्कार नहीं कर सकता, औरत की तस्करी नहीं कर सकता, सम्मान करने वाला कोई भी व्यक्ति औरत को वेश्यावृत्ति की ओर नहीं धकेल देता, उसे आग में नहीं जलाता।
नारी-निर्यातन के विरुद्ध कानून क्या कम हैं? कितने शोषकों को सज़ा मिलती है? कितनी नारियों को इस समाज में सच्चे अर्थों में सुरक्षा मिलती है? यहाँ रोग का इलाज न करके रोग के लक्षणों का इलाज किया जाता है। ऐसी हालत में रोग कैसे ठीक होगा?
रात आठ बजे के बाद, मर्द अगर असभ्य, अभव्य, अगणतांत्रिक, अमानुष हो उठता है, तो उस पुरुष को सज़ा देने का इन्तज़ाम किया जाये। नारी को क्यों सज़ा दी जाये? नारी अगर रात के वक़्त काम करने को लाचार हो जाये, तो वे लोग नौकरी की सुविधा से वंचित हो जायेंगी। एक नुक़सान टालने के लिए एक और विराट नुक़सान के अलावा यह क्या और कुछ है? यह बात भी लोगों के लिए समझनी ज़रूरी है कि जो पुरुष रात आठ बजे के बाद बदमाशी कर सकते हैं, वे दिन-दोपहर भी बदमाशी पर आमादा हो सकते हैं। जो बदमाशी नहीं करता, वह आधी रात को भी नहीं करता।
असल में बदमाशी उजाले या अन्धेरे पर निर्भर नहीं करती। यह मानसिकता पर निर्भर करती है और मानसिकता सुशिक्षा पर निर्भर करती है। सुशिक्षा निर्भर करती है, शिक्षा-व्यवस्था पर! शिक्षा-व्यवस्था निर्भर करती है, राजनीति पर! आजकल पुरुषतन्त्र और वैषम्य की राजनीति की जय-जयकार होती है। समता के विश्वासी नारी-पुरुष, जब तक वैषम्य को जड़ से नहीं उखाड़ फेंकते, जब तक व्यवस्थाओं में आमूल परिवर्तन नहीं होता, तब तक नारी को चूहों की तरह बस जीते रहना होगा। विपत्ति देखते ही बिल में छिप जाना होगा। लेकिन चूहों के बिल में ही क्या चूहे की सुरक्षा कायम रहती है? जैसे निरीह चूहे की सुरक्षा नहीं होती, वैसे ही नारी की भी सुरक्षा नहीं होती।
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं