लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
हालाँकि नारीवादियों के दबाव की वजह से कर्नाटक सरकार ने रात की नौकरी में औरतों पर पाबन्दी लगाने का मामला फिलहाल स्थगित रखा है, लेकिन नौकरी में औरतों पर निषेधाज्ञा आरोप करने की एक कोशिश ज़रूर हुई थी, यह भूलने से नहीं चलेगा। आज अगर कर्नाटक जैसे राज्य में अपनी सुरक्षा के लिए अगर घर में कैद रहना पड़े औरतों को इस ढंग से सुरक्षा देनी पड़े तो अन्यान्य पिछड़े राज्यों के सबसे अच्छा यही है कि वे लोग घर से बाहर न निकलें-तब तो औरतें भीषण असुरक्षा में रहेंगी, वैसे अगर बाहर निकलना ही पड़े, तो सुरक्षा की व्यवस्था चाकचौबन्द की जाये। चलमान कारागार जिसका और एक नाम, बुर्का है, इसका इस्तेमाल करना होगा, ताकि बुरे लोगों की नज़र न पड़े। इन्सान हमेशा से ही अन्धेरे की ओर इसी तरह चलता रहा है। अन्धेरा हमेशा से ही इसी तरह इन्सानों को निगलता रहा है।
लेकिन इन्सान उजाले की तरफ़ भी तो बढ़ता है। इस भारतवर्ष में मन को है; घर से बाहर क़दम रखने वाली औरत दिन-रात मेहनत करके, सफलता अर्जित करने वाली औरत। दूसरी तरफ़ औरतों को पंगु बनाने, पराजित और परनिर्भर बनाने के पैंतरे कसे जा रहे हैं।
भारत में विज्ञान और धर्म जैसे साथ-साथ निवास करते हैं, औरत की जय और पराजय भी वैसी ही साथ-साथ चलती है। उजाले और अन्धेरे ने एक-दूसरे को अपने आलिंगन में कस लिया है, इसलिए आशंका होती है। अगर मुँह-बाये, अन्धेरे की पोर-पोर में तमाम रोशनी प्रवेश कर जाये, अगर सारी जय, सारे विज्ञान, सारी युक्ति, सारी मुक्ति, सारी ममता, सारी मानवता अन्धेरे को निगल ले तो वैसे अँधियारे की ताकत कुछ कम नहीं होती।
नारी की रक्षा के लिए नारी का मान-सम्मान बचाने के लिए अलग से कोई कानून बनाने की ज़रूरत नहीं है। नारी राष्ट्र की नागरिक है। यह कर्तव्य राष्ट्र का होता है कि वह सभी नागरिकों की सुरक्षा का विधान करे। राष्ट्र अगर अपने तमाम नागरिक या जनगण को सुरक्षा दे तभी बेहद स्वाभाविक तरीके से औरतों को भी ज़रूरी सुरक्षा मिल जायेगी। राष्ट्र क्या ऐसा करता है। यदि ऐसा करता, तो सरकार अनुमोदित विवाह, तलाक, उत्तराधिकार वगैरह क़ानूनी-वैषम्य की शिकार नारी को नहीं बनना पड़ता। यदि ऐसा करता तो दिन ही क्यों, रात को भी नारी निश्चिन्त मन से रास्ता-घाट, कर्मक्षेत्र में आती-जाती। उसे किसी भी प्रकार के निग्रह का शिकार नहीं होना पड़ता। राष्ट्र अगर ऐसा करता तो नारी घर-घर सुख-शान्ति और चैन से रह पाती।
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं