लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
जिन औरतों का नाम हो चुका है, जो मन्त्री या अभिनेत्री बन चुकी हैं, जो औरतें कट्टरपंथियों के नियन्त्रण से बाहर हैं, उन्हें तो अब कुचल-पीसकर, निश्चिह करना सम्भव नहीं है, इसीलिए उन लोगों के विरुद्ध निन्दा-आलोचना की लहर उठती है, सड़कों पर फूस के पुतले फूंके जाते हैं, जुलूस निकाले जाते हैं। मैं जब ये सारी ख़बरें सुनती हूँ तो थर्रा उठती हूँ। मैं भूल जाती हूँ कि वे अनाम औरतें, कुचली-पीसी जा रही हैं, निर्यातित हो रही हैं, निश्चित हो रही हैं। उन लोगों पर धर्म, संस्कृति, पुरुषतन्त्र और राजनीति का बुलडोज़र चल रहा है, वह क्या आज से है? औरतें निभृत और एकान्त में खामोशी से बेआवाज़ रोती रहीं, रो चुकीं। अब तो वे लोग रोना भी भूल चुकी हैं, वे लोग मुँह बन्द करके सहती रही हैं। अब तो, यह सहने को भी उन लोगों ने नियम मान लिया है। आज वे लोग मर रही हैं, अब तो इस मरने को भी उन लोगों ने नियम मान लिया है।
नीलोफ़र और शिल्पा अपनी-अपनी तरह से प्रतिवाद कर ही सकती हैं। फिलहाल उन लोगों पर मीडिया की सुरक्षा है लेकिन मन्त्री-पद और अभिनेत्री रूप अगर चला गया तो असुरक्षित हो जायेंगी। आज चूँकि वे लोग मन्त्री और लोकप्रिय अभिनेत्री जैसी ऊँचाई पर आसीन हैं, इसलिए कट्टरपंथियों की अवज्ञा के बावजूद, उन लोगों को सुरक्षा मिली हुई है। इस समाज की नज़र में उच्चता, हमेशा ही पौरुष की समानार्थी रही है। दुनिया में जितनी अच्छी-अच्छी खूबियाँ हैं उन सभी को पुरुषत्व कहा जाता है। जो कुछ बुरा है, वह सब औरताना! नीलोफ़र या शिल्पा को यह जो लोगों का समर्थन मिला है, वह उन दोनों के पौरुष की ऊँचाई के कारण, औरत होने के कारण नहीं। वे दोनों जो थोड़ा-बहुत निग्रहीत हो रही हैं, वह इसलिए कि वे दोनों औरत हैं। अगर वे दोनों उस ऊँचाई पर न होतीं तो और ज़्यादा निग्रहीत होती। जिन लोगों ने नीलोफ़र या शिल्पा का समर्थन किया है, उनमें से कितने लोग उन आम औरतों का कितना-सा समर्थन करते हैं जिनको किसी भी प्रकार की सुरक्षा नसीब नहीं?
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं