लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
औरत खूबसूरत कैसे बने, इस बारे में सैकड़ों इश्तहार चारों तरफ़ छाये हुए हैं। सिनेमा में, टीवी में, बिलबोर्ड में, पत्र-पत्रिकाओं में, खिलौने में! खूबसूरती की भूल-भुलैया में औरतों को इस क़दर फँसा दिया गया है कि समूची ज़िन्दगी, ज़िन्दगी भर की सारी कमाई सौन्दर्य-चर्चा में ही ख़र्च कर देनी होगी। अपने अधिकार-अनधिकार के बारे में सोचने के लिए औरतों को फुर्सत ही नहीं मिलेगी। इसके अलावा गाँठ के रुपये भी सौन्दर्य-चर्चा में यूँ फुर्र हो जायेंगे कि ज़िन्दगी का आखिरी सहारा भी कुछ नहीं बचेगा। हमारी बच्चियाँ-किशोरियाँ-युवतियाँ इस धूर्त जाल में फँस गयी हैं। अगर गौर से पर्यवेक्षण किया जाये तो पता चलेगा कि नब्बे प्रतिशत औरतों का ख्याल होता है कि वे लोग पर्याप्त सुन्दरी नहीं हैं। उनकी छातियाँ छोटी-छोटी हैं, टाँगें चिकनी-सपाट, कमर मोटी, पिछाड़ी बेढब, बाल पतले-पतले, रंग मैला, नाक चपटी, आँखें भी छोटी-छोटी, त्वचा सिकुड़ी हुई। अपने बदन के बारे में किसी न किसी अंग को ले कर औरतों में असन्तोष और ग्लानि दिनोंदिन बढ़ रही है। औरतों का अपना आत्मविश्वास कम कर देने की राजनीति बेहद जोरों पर है। आत्मविश्वास ही न हो, अपने बारे में फिक्र-परेशानी ही अगर दूर न हो तो पुरुषतन्त्र को चुनौती देने का साहस और शक्ति, दोनों ही कपूर की तरह उड़ जाती है और अपनी स्वाधीनता के सवाल पर ज़रूरी सचेतनता भी सड़-गलकर नष्ट हो जाती है।
सबसे ज़्यादा अफसोस की बात यह है कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता, औरतों को एक कदम आगे बढ़ा रही है लेकिन दो क़दम पीछे भी खींच लेती है। शिक्षित और आत्मनिर्भर औरतों में अपने शरीर को लेकर हताशा तेज़ी से बढ़ती जा रही है, और ऐसे में उनकी समूची मेधा उनके अपने शरीर पर खर्च हो रही है। मौलिकता को अलविदा कह कर, वे लोग शरीर को बनावट में इस क़दर मोड़े रखने की कोशिश करती हैं, ताकि प्रसाधन-वाणिज्य, प्रचार-माध्यम और पुरुषतन्त्र की मिली-जुली साजिश में प्रस्तावित नारी-देह के साथ अपने शरीर का अंग-अंग मेल खा जाये। 'अगर मिल गया तो किला फतह! समाज ने औरत को इस ढंग से विजेता होना सिखाया है। इसी तरह औरत ने अपनी बोध-बुद्धि का विसर्जन करना सीखा है।
इस मामले में आजकल की औरतों के मुकाबले सिर्फ उन लोगों की दादी-नानियाँ ही नहीं, दादी-नानी की भी दादी-नानी भी बहुत-बहुत ज़्यादा आज़ाद थीं। उन पर सुन्दरी होने का दबाव बिलकुल नहीं था। उस जमाने में दासी होने का गुण हो बस, चल जाता था। लेकिन आजकल सिर्फ़ दासी बनने से ही काम नहीं चलता, 'रूपसी दासी' बनना पड़ता है। सटीक माप की छाती, कमर, टाँगें, नितम्ब न हों, तो औरत पास नहीं हो सकती। त्वचा अगर कसी हुई न हो, चमड़ी का रंग अगर ठीक-ठाक न हो, तो उसे पास नम्बर नहीं मिलेगा। यह दुनिया मर्दो की-दुनिया है। यह समाज, घर-गृहस्थी पुरुषों की है। यहाँ औरत असल में समूचा का समूचा 'शरीर' है, और कुछ भी नहीं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं