लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
हम औरतें अब क्या करें : हमें एक दिन दिया गया है। हम वह दिन पालन करेंगी। कोई-कोई हमसे कहेंगी कि हम खूब मजे में हैं, लेकिन दूर-दराज के पिछड़े गाँवों में शायद कुछ औरतें सकुशल नहीं हैं। असल में वे लोग कोशिश नहीं करतीं। इसलिए उन लोगों को उनका अधिकार नहीं मिलता। वैसे, अगर इच्छा हो तो क्या नहीं हो सकता।
कोई-कोई औरत कहेगी, हम कुशल नहीं हैं। हम घर-बाहर निर्यातित हो रही हैं। इस समाज में पुरुषतन्त्र और धर्म, संस्कार और संसार, प्रथा और पर्दा, परम्परा और संस्कृति-सभी नारी-विद्वेषी हैं। इस समाज में और यौन-सामग्री के अलावा और कुछ भी नहीं है। औरत तो बस, पुरुष और पुरुष के तन्त्र-मन्त्र सेवा के लिए है। इस धार्मिक पुरुषतान्त्रिक सड़े-गले, पुराने-धुराने संस्कारों से ढके समाज को तोड़ कर, बिलकुल नये और वैषम्यहीन समाज का गठन करना होगा।
कोई कहेगा कि इस किस्म की क्रान्ति के लिए सिर्फ औरतों को ही आगे आना होगा?
कोई कहेगा कि औरत-मर्द, दोनों को ही आगे आना होगा?
कोई इस दिवस में वेश्याप्रथा का गुणगान करेगा। कोई वेश्याप्रथा निर्मूल करना चाहेगा। औरतें ही औरत को 'सामग्री' बनने की हिमायत करेंगी, जबकि बहुतेरी औरतें, औरत की सामग्री बनने के विपक्ष में बोलेंगी। दो-पक्ष, दो-दो किस्म की राय जाहिर करेंगी और महिलाओं में कभी एकता नहीं होगी। वे हमेशा द्विखंडित रहेंगी। हर साल की तरह इस साल भी! इन पलों में पुरुषतन्त्र को और भी हज़ारों वर्षों तक टिकाये रखने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है?
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं