लोगों की राय

लेख-निबंध >> गाँधी की शव परीक्षा

गाँधी की शव परीक्षा

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6883
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

286 पाठक हैं

शोषण में निरीहता, अहिंसा और दरिद्रनारायण की सेवा आदि सिद्धान्तों का मूल्यांकन...

Gandhi Ki Shav Pariksha - A Hindi Book - by Yashpal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘गाँधी की शव परीक्षा’ में शोषण में निरीहता, अहिंसा और दरिद्रनारायण की सेवा आदि सिद्धान्तों का मूल्यांकन करते हुए कहा गया है कि ‘गाँधीवाद’ जनता की मुक्ति, सामन्तकालीन घरेलू उद्योग-धंधों और स्वामी सेवक के सम्बन्ध की पुनः स्थापना में समझता है जो इतिहास की कब्र में दफन हो चुकी हैं। मुर्दा व्यवस्थाएँ आदर्श समाज को विकास की ओर ले जाने का काम नहीं कर सकतीं। उनका उपयोग, उन्हें समाप्त कर देने वाले कारणों को समझने के लिए या उनकी शव-परीक्षा के करने के लिए हो सकता है।

समर्पण


गाँधीजी ने इस देश के सार्वजनिक जीवन में राजनैतिक नेता के रूप में प्रवेश किया था। गाँधीजी ने देश की राजनैतिक मुक्ति के लिये जनता के सामने जो राजनैतिक कार्यक्रम रखा था, उसे गाँधीदर्शन और गाँधीवाद का नाम दिया गया था परन्तु गाँधीजी ने देश की अधिकांशतः अशिक्षित, भोली, रूढिग्रस्त जनता का विश्वास पाने के लिए अपने राजनैतिक कार्यक्रम को भगवान की प्रेरणा का मार्ग बताकर धर्म-विश्वास का रूप दे दिया था। गाँधीजी ने जनता की दृष्टि में एक राजनैतिक नेता के स्थान में महात्मा और आध्यात्मिक शक्ति के नायक का रूप ले लिया था।
गाँधीजी ने देश की स्वतन्त्रता के संघर्ष का नेतृत्व करते हुए स्वतंत्रता के जिस रूप को आदर्श माना था, उससे देश के सर्व-साधारण जीवन के अवसर की स्वतन्त्रता नहीं पा सके। हमारे देश के शासन की बागडोर जिन लोगों के हाथ में है, वे आज भी गाँधीवाद की ही दुहाई दे रहे हैं। विडम्बना यह है कि दगेश का शासक वर्ग गाँधीवाद को न तो शासन की नीति के रूप में और न अपने जीवन के आदर्शों के रूप में व्यावहारिक मानता है। यह वर्ग गाँधीवाद का उपदेश देश के साधनहीन सर्व-साधारण के लिये ही उपयोगी समझता है।

गाँधीवादी नीति पर चलने का दावा करने वाली शासन व्यवस्था, तेरह वर्षों में देश के सर्व-साधारण के जीवन से कठिनाई को दूर करने के लिये क्या कर सकी है, यह देश की जनता अपने अनुभव से जानती है। सर्वोदय को ध्येय मानने वाले दरिद्रनारायण के पुजारी गाँधीवाद की इस विफलता का कारण समझने के लिये उसके सिद्धान्तों की परख आवश्यक है। जनता के लिये यह समझना आवश्यक है कि उनकी भौतिक समस्याओं और कठिनाइयों का उपाय, गाँधीवाद अध्यात्म द्वारा सम्भव है या आर्थिक और राजनैतिक प्रयत्नों द्वारा ? इस विचार के प्रयोजन से ‘गाँधीवाद की शव परीक्षा’ का यह सातवाँ संस्करण ‘सर्व साधारण की मुक्ति का मार्ग’ शीर्षक से प्रस्तुत है।

जुलाई 1941
यशपाल

गाँधीवाद की आधुनिक सार्थकता


हमारा देश और हमारी जनता प्राण-रक्षा की समस्या से व्याकुल हैं। हमारे देश का शासन सम्भाले लोगों का दावा है कि गाँधीवाद के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक आदर्श ही हमारी समस्याओं को सुलझाकर समाज में सब लोगों के लिए विषमता रहित सुव्यवस्था स्थापित कर सकेंगे। दूसरे सिद्धान्तों या कार्यक्रम पर चलने से व्यक्तिगत और राष्ट्रीय रूप में हमारा सर्वनाश हो जायेगा। अपने वर्तमान और भविष्य का पूरा बोझ अपने शासक नेताओं पर ही न छोड़कर हम स्वयं भी इस विषय में कुछ सोच-विचार कर सकते हैं।

गाँधीवाद की व्याख्यायें और गाँधीवाद कार्यक्रमों के अनुभव पिछले बत्तीस वर्ष से हमारे सामने हैं। इन बत्तीस वर्षों में गाँधीवाद ने हमारी किन समस्याओं को हल किया है ? गाँधीवाद ने देश के सर्वसाधारण को जीवन का अवसर पाने के पथ पर आगे बढ़ाया है या वह हमारे अभाव से मुक्ति के लिये व्याकुल समाज के पाओं की बेड़ी बना हुआ हैं ? इस प्रश्न पर सोच-विचार किये बिना, आँख मूँदकर अपना भाग्य गाँधीवादी सरकार की नीति के हाथों में बने रहने देना, अब सचेत और जागरूक जनता के लिये सह्य नहीं हो सकता।

पिछले बत्तीस वर्षों से ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ और गाँधीवाद प्रायः समानार्थक रहे हैं या गाँधीवाद कांग्रेस के शरीर में आत्मा और चेतन-शक्ति के रूप में बना रहा है। कांग्रेसी सरकार अपनी स्थापना के दिन से गाँधीवादी आदर्शों पर चलने का दावा करती आ रही है इसलिये कांग्रेस और कांग्रेसी सरकार के व्यवहार का उत्तरदायित्व या श्रेय गाँधीवाद पर ही मानना होगा। इस पीढ़ी के लोगों ने कांग्रेस को अहिंसात्मक रूप से स्वतन्त्रता का आन्दोलन करने वाली संस्था से पुलिस और फौज की शक्ति और दमनकारी कानूनों द्वारा शासन करने वाली शक्ति के रूप में परिणित हो जाते देखा है। एक दिन कांग्रेस-अन्न-वस्त्र की समस्या से पीड़ित, मार खाने के लिये तैयार स्वयं सेवकों की शक्ति पर निर्भर करती थी और देश के सामन्ती और पूँजीपति वर्ग के लोग अविश्वास और आशंका की दृष्टि से देखते थे। शासन शक्ति पा लेने के बाद कांग्रेस मुख्यतः सामन्ती और पूजीपति वर्ग की ही विश्वासपात्र बन गयी है। यह सोचना आवश्यक है कि कांग्रेस मे ऐसा परिवर्तन ला सकने वाली प्रवृत्तियाँ गाँधीवाद की ही देन हैं अथवा उनका मूल अन्यत्र हैं ?

गाँधीवाद के नेतृत्व में भारत की जनता ने जैसा स्वराज्य पाया है, उसका बीज कांग्रेस के स्वराज्य के लिये आन्दोलन के ढंग में ही मौजूद था। कांग्रेस आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता थी, उसका आध्यात्मिकता का दावा और तथाकथित अहिंसा और सत्याग्रह की नीति। गाँधीवाद सत्याग्रह और अहिंसा की इस नीति का मुख्य प्रभाव था, शोषित जनता को अपनी मुक्ति के लिये क्रान्तिकारी संधर्ष से रोके रहना। कांग्रेस के इतिहास में जब कभी जनता वास्तविक रूप में आन्दोलन के मोर्चे पर आई और उसने विदेशी सरकार की नींव को उखाड़ने के लिये उसकी आर्थिक व्यवस्था को पलटने का यत्न किया, उस समय गाँघीवाद की अहिंसा, हिन्दू सेना के सम्मुख खड़ी कर दी जाने वाली गाय के रूप में, जन-आन्दोलन के सामने आ खड़ी हुई। देश की करोड़ों साधनहीन जनता की नित्य होती हिंसा को समाप्त करने की चिंता गाँधीवाद को नहीं रही। ठीक विपरीत इसके, गाँधीवाद को सदा व्यवस्था के पलटने से होने वाली बगावत की हिंसा का ही भय रहा है। गाँधीजी को यह भय सताता था कि अंग्रेजी शासन मे देश के शोषण से लखपति भी सात पैसे कमाने वाले मजदूर बन जायेंगे1 परन्तु पीढ़ियों से सात पैसे कम कर अन्न-वस्त्र के लिए छटपटाते रहने वाले किसान-मजदूर को आत्मनिर्णय का अधिकार कैसे मिले; यह चिंता गाँधीजी को नहीं थी।

गाँधीवाद ने जनता के आन्दोल को धक्का पहुँचा कर भी विदेशी शासन की आर्थिक व्यवस्था को टूट जाने के भय से बचाया। गाँधीवाद की इस नीति का तात्पर्य कामरेड स्तालिन के शब्दों से स्पष्ट हो जाता है। उपनिवेशों मे पूँजीपति वर्ग की नीति के सम्बन्ध मे स्तालिन का कहना है-‘‘पूँजीपति वर्ग नेता साम्राज्यवाद की अपेक्षा क्रान्ति से ही अधिक भयभीत रहते हैं। यह लोग देश की अपेक्षा अपनी तिजोरियों की ही अधिक चिन्ता करते हैं। यह लोग क्रान्ति के घोर विरोधी होने के कारण देश के किसान-मजदूरों के विरुद्ध साम्राज्यवादियों के सहायक और साझीदार बने रहते हैं।’’ गाँधीवाद अहिंसा की नीति का ऐतिहासिक विश्लेषण करने पर हम उसमे भी यही प्रवृत्तियाँ पाते हैं।

गाँधीवाद निरीहता, अहिंसा और दरिद्र नारायण की सेवा का दम भरते-भरते आज देश की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था पर निरंकुश अधिकार रखने वाले वर्ग का हथियार बन गया है। कांग्रेस ने जिस नीति से देश का शासन अपने हाथ मे ले लिया है, उस, नीति को रक्तहीन क्रान्ति कहते हैं और इस नीति का श्रेय गाँधीवाद को देते हैं।
यह ठीक है कि देश के शासक बदले गये हैं परन्तु क्रान्ति कहीं नहीं हुई न शासन दरिद्र नारायण के हाथ में आया है। इस रक्तहीन क्रान्ति से दरिद्र नारायण की अवस्था मे यही परिवर्तन आया कि उनकी अवस्था बदतर हो गई है। दरिद्र नारायण को पूजा का दिलासा दे-देकर गाँधीवाद ने शासन की बागडोर देश की शोषक श्रेणी के हाथ कैसे थमा दी, इसमें गाँधीवाद स्वयं ठगा गया या गाँधीवाद के त्याग और अंहिसा के सिद्धान्तों का अनिवार्य क्रियात्मक परिणाम यही होना आवश्यक था; यह सब समझने के लिये और भविष्य में देश के लिये गाँधीवाद की उपयोगिता समझ सकने के लिये गाँधीवाद के सिद्धान्तों की विवेचना आवश्यक है।

गाँधीवाद सामन्ती और पूँजीवादी शोषण व्यवस्था के परिणामों को देखकर इस व्यवस्था को बदलने और सर्व-साधारण जनता की मुक्ति के मार्ग का निर्देश नहीं करता बल्कि वह सामन्ती और पूँजीवादी व्यवस्था में, इस व्यवस्था को समाप्त कर देने वाले अन्तरविरोध उत्पन्न हो गये देखकर, उससे भी पहले की व्यवस्था को आदर्श बताता है।
1. कांग्रस का इतिहास, पट्टाभि सीतारमैया, पृष्ठ 619

और इन शोषक व्यवस्थाओं को चिरंजीव बताने का यत्न करता है। गाँधीवाद जनता की मुक्ति, सामन्तकालीन घरेलू उद्योग-धन्धों और स्वामी-सेवक के सम्बन्ध की पुनः स्थापना में समझता है जो इतिहास की कब्र मे दफ़न हो चुकी है। मुर्दा व्यवस्थायें और आदर्श समाज को विकास की ओर ले जाने का काम नहीं कर सकते। उनका उपयोग, उन्हें समाप्त कर देने वाले कारणों को समझने के लिये या उनकी शव-परीक्षा करने के लिये ही हो सकता है।

प्रथम प्रकाशनः जुलाई 1941  
-यशपाल

गाँधीवाद का परिचय स्वयं गाँधीजी के शब्दों में इस प्रकार हैः-


‘‘गाँधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं, न मैं अपने पीछे कोई सम्प्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने किसी नये तत्व या सिद्धान्त का आविष्कार किया है। मैंने तो सिर्फ जो शाश्वत सत्य है, उनको अपने नित्य के जीवन और प्रतिदिन के प्रश्नों पर अपने ढंग से उतारने का प्रयास मात्र किया है। मुझे दुनिया को कोई नयी चीज नहीं सिखानी है। सत्य और अहिंसा अनादिकाल से चले आये हैं।’’ इसी सत्य और अहिंसा को चरितार्थ करना गाँधीजी का और उनके अनुयाइयों की संस्थाओं का आदर्श और उद्देश्य है। इस विषय में गाँधीजी आगे कहते हैं।–
‘‘ऊपर जो कुछ मैंने कहा है, उसमें मेरा सारा तत्व ज्ञान-यदि मेरे विचारों को इतना बड़ा नाम दिया जा सकता है, तो समा जाता है। आप उसे गाँधीवाद न कहिये; क्योंकि उसमें ‘वाद’ जैसी कोई बात नहीं है।’’ 2

गाँधीवाद को गाँधीजी के शब्दों में ही यदि समझाना हो तो सत्य और अहिंसा की साधना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य हैं। मनुष्य व्यक्तिगत रूप से सत्य और अहिंसा की साधना से आध्यात्मिक उन्नति करके पूर्णता प्राप्त कर सकता है और सामूहिक रूप से इन गुणों की साधना द्वारा समाज में ‘रामराज्य’ स्थापित हो सकेगा। गाँधीवाद का सामाजिक और राजनैतिक आदर्श ‘रामराज्य’ हैं। संक्षेप में गाँधीवाद का आदर्श अहिंसा और सेवा द्वारा रामराज्य की स्थापना हैं और यही उसका कार्यक्रम और साधन भी है।

जिस आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम का प्रचार गाँधीजी ने किया है, उसे गाँधीवाद के नाम से पुकारे जाने का गाँधीजी ने विरोध किया है परन्तु उनके अनुयायी अपने सिद्धान्तों और कार्यक्रम को जनता के सम्मुख रखते समय अपने सिद्घान्तों के साथ गाँधीजी का नाम जोड़ देना उपयोगी समझते हैं। वे लोग दूसरे सिद्धान्तों से अपने सिद्धान्तों की तुलना करते समय, अपनी पुस्तकों, समाचार-पत्रों और बातीचीत में ‘गाँधीवाद’ शब्द का ही प्रयोग करते हैं इसलिये गाँधीजी की नीति, सिद्धान्तों और कार्यक्रम की चर्चा करने के लिए ‘गाँधीवाद’ शब्द का उपयोग किया जाये तो अनुचित न होगा; न उसमें गलतफहमी के लिए ही कोई गुंजाइश होनी चाहिये।
गाँधीजी ने विनय और त्याग का आदर्श अपनाया था। अपने नाम से सम्प्रदाय चलाने की महत्तवकांक्षा से इन्कार कर देना ही उन्हे शोभा देता था परन्तु वास्तव में,
1.    अपने कार्यक्रम के सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के विचार-‘हरिजन बन्धु’ 29-3-1936 ।
2.    कांग्रेस का इतिहास, पृष्ठ 430 ।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book