लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
दोपहर का समय, कोई जानकार व्यक्ति वहाँ से गुजर भी नहीं रहा था। पानवाले,
लांड्रीवाले, पनचक्कीवाले से पूछना व्यर्थ। तभी मैंने देखा-दो लड़के कन्धों पर
बस्ता रखे चले जा रहे हैं। मैंने उन्हें रोका और बच्चों के कार्यक्रम के
कंपीअरवाली मधुरता से पूछा, 'अच्छा बच्चो, जरा यह तो बताओ कि यदि हमें कभी यह
पता लगाना हो कि उत्तर दिशा कहाँ है, तो हम क्या करेंगे?'
वे आश्चर्यपूर्ण मिचमिची आँखों से कुछ देर मेरी ओर देखते रहे। फिर उनमें से
एक जो अपेक्षाकृत तेज था, उसने कहा, 'ध्रुवतारा उत्तर दिशा में चमकता है। यदि
हम उस ओर देखते हुए सीधे खड़े रहें, तो हमारे सामने उत्तर, पीठ पीछे दक्षिण,
दाहिनी ओर...'
'शाबाश बच्चो, मगर जैसे दिन का समय हो और किसी को यह जानना हो कि उत्तर दिशा
कहां है, तो उसे क्या करना होगा?' मैंने रोककर फिर पूछा।
'इसके लिए हमें कुतुबनुमा देखना चाहिए, जिसकी सुई सदैव उत्तर दिशा बतलाती
है।'
'शाबाश वच्चो, धन्यवाद!' फिर मैंनै दिव्य व्यक्ति से पूछा, 'आपके पास
कुतुबनुमा है?'
'क्या होता है कुतुबनुमा?' दिव्य उत्तर मिला।
'अच्छा बच्चो, यदि किसी के पास कुतुबनुमा न हो, तो वह उत्तर दिशा कैसे
पहचानेगा, जरा यह तो बताओ।'
'यह हमें नही पता।'
'हमारे कोर्स में नहीं है।' दूसरै बच्चे ने कहा।
मैंने दिव्य व्यक्ति की ओर असहाय दृष्टि से देखा। जवाब में उन्होंने सूर्य की
ओर देखा, फिर शंख की ओर देखा।
'एक कुतुबनुमा इस समय होना जरूरी है।'
'क्या होता है कुतुबनुमा?'
'एक प्रकार का यन्त्र होता है, जो दिशा बताता है।'
'धिक्कार है, हम दिशा जानने के लिए भी यान्त्रिकता के गुलाम हो गए। दिशाएँ,
जो चिरकाल से अटल हैं और सदा रहेगी परन्तु हम उन्हें भूल गए। हम सब कुछ भूल
गए।'
'ठीक कह रहे हैं आप। मैं तो शंख बजाना भी भूल गया। छोटा था, तब खूब बजा लेता
था। हमारी क्रिकेट टीम के किसी खिलाड़ी का एक रन भी बन जाता या हमारे बालक से
एक विकेट भी आउट हो जाता तो मैं खुशी में बाउंड्री पर खड़ा शंख बजाया करता
था।' मैंनै कहा।
'साधना का यह चरम क्षण व्यर्थ जा रहा है बाबू मैंने सात दिनों तक
मन्त्र-साधना कर इस शंख में वह शक्ति उत्पन्न की है कि जिधर फूँक दूं, वही
दिशा भस्म हो जाए, पर मुझे यह बतानेवाला कोई नहीं है कि उत्तर दिशा कहाँ है?
कहां है उत्तर दिशा, कहाँ है?' उन्होंने व्यथित स्वरों से कहा और शंख हाथ में
लेकर चारों ओर घूमने लगे और उनके साथ मैं भी घूमने लगा।
क्या किया जा सकता था? उनकी पीड़ा उस ऐक्टर की तरह थी।, जो महाभारत ड्रामे में
पार्ट कर रहा हो-'हाय, यह ब्रह्मास्त्र कहीं
गलत न छूट जाए, कोई मुझे इतना बता दे कि उत्तर दिशा कहाँ है? कहाँ है! कहाँ
है उत्तर दिशा, नाथ!'
वह तेजोमय उन्नत ललाटवाला व्यक्ति अपने करों में एक दिव्य शक्ति-सम्पन्न शंख
लिए खड़ा पूछ रहा है-'उत्तर दिशा कहाँ है!' इसका उत्तर किसी के पास नहीं है।
सच यह है कि कुतुबनुमा नहीं है। एक वैज्ञानिक तथ्य का अभाव सारी मन्त्रबल की,
आत्मबल की शक्ति को निरर्थक कर रहा है।
'परम श्रद्धेय!' मैंने हाथ जोड़कर कहा, 'जब तक शंख से कुतुबनुमा अटैच नहीं
होगा, आपकी साधना इसी प्रकार व्यर्थ जाएगी। कुतुबनूमा अनिवार्य है, शंख की
तरह ही अनिवार्य है।'
उन्होंने अपने दिव्य नेत्रों से मेरी ओर यों देखा, जैसे वे किसी परम नास्तिक
की ओर देख रहे हों, जिसे भारतीय संस्कृति का मर्म नहीं मालूम। मैं डर गया।
कहीं आवेश में वे अपना शंख मुझ पढ़े-लिखे पर ही नहीं फूँक दें, जो उत्तर दिशा
नहीं जानता।
सूर्य अपनी बारह बजेवाली ऊँचाई से हट रहा था। साधना का उच्चतम क्षण खिसक रहा
था। तेजोमय ललाट का वह दिव्य व्यक्ति काफी देर तक चौराहे पर निराश-सा पैर
पटकता रहा और फिर अपना शंख लिए एक ओर चला गया।
मैं क्या कर सकता था! पता नहीं, उत्तर थी या दक्षिण, मगर पानवाले की दिशा में
बढ़ जाने के अतिरिक्त मैं क्या कर सकता था!
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