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मसीहा

खलील जिब्रान

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6730
आईएसबीएन :978-81-7028-764

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एक मसीहा के छब्बीस ज्ञान और विवेकपूर्ण उपदेशों के माध्यम से गहरे जीवन-दर्शन को समझाती खलील जिब्रान की पुस्तक The Prophet का हिन्दी अनुवाद...

Mashia

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

ख़लील जिब्रान की यह बैस्ट सैलर पुस्तक एक विश्वस्तरीय गौरव-ग्रंथ है और हर काल में इसे सम्मानपूर्ण कृति का स्थान मिला है। बीसवीं सदी में, बाइबिल के अतिरिक्त किसी और किताब की इतनी प्रतियां नहीं बिकी हैं जितनी इसकी बिकी हैं। खलील जिब्रान (1883-1931) लेबनान में जन्में, किन्तु उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा अमेरिका में बिताया और अपने जीवन में उन्होंने पच्चीस पुस्तकें लिखीं। उन्होंने उपन्यासकार, निबंधकार, कवि, चित्रकार तथा मूर्तिकार के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित की। यह पुस्तक ख़लील जिब्रान की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है और संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है।
एक मसीहा थे जो विदेश में बारह वर्ष बिताकर अपने घर लौट रहे थे जब उन्हें रास्ते में कुछ लोगों ने रोका और उनसे जीवन के विविध पक्षों के बारे में जानना चाहा। मसीहा ने छब्बीस ज्ञान और विवेकपूर्ण उपदेशों के माध्यम से उन्हें गहरा जीवन-दर्शन समझाया। ख़लील जिब्रान की यह पुस्तक इसी जीवन-दर्शन को सामने लाती है। इस पुस्तक में उनका चित्रांकन भी लिया गया है जो इसे और भी अधिक प्रभावशाली बनाता है।

 

मसीहा

अपने देश से बिछड़ने के बाद अलमुस्तफा ने आर्फलीज नगर में अपने जीवन के बारह सुनहरे वसन्त बिता दिए थे।
बारह वर्ष बाद भी उसके दिल में अपने देश की याद और आंखं में देश की ओर वापस जाने वाले ज़हाज की व्याकुल प्रतीक्षा बसी हुई थी।
आखिर बारह साल बाद एक दिन......
इलूल (असौज) महीने की सातवीं तारीख को उसने नगर के परवर्ती पर्वत शिखर पर चढ़कर देखा, एक जहाज समुद्र पर छाए गहरे कुहासे को चीरता उसी ओर बढ़ रहा था।
उस घड़ी अलमुस्तफा के हृदय-कपाट स्वयं खुल गए। मन का उल्सास क्षितिज तक फैले सागर की तरंगों से खेलने लगा, आह्लाद- प्लावित पलकें मन के मौन मन्दिर में प्रभु-चरणों पर झुक गईं।
लेकिन पर्वत शिखर से उतरते समय कदम भारी हो गए, मन पर उदासी छा गई।
उसने सोचा :

क्या मैं वियोग की पीड़ा से शून्य ही यहां से विदा हो सकूंगा ?
इस नगर में मेरे दिन दु:खों से दुर्वह और रातें एकान्त पीड़ा से अनुतप्त बीती हैं। लेकिन इस अनुताप और एकान्त को छोड़ते हुए मन विह्नल हो रहा है।
इस नगर की वीथियों में मैंने मन के मोती बिखेरे हैं और इन पर्वतों के अंचल में स्वप्निल आशा- अभिलाषाएं सांस ले रही हैं ! विरह-वेदना का अनुभव किए बिना मैं कैसे उनसे विदाई ले सकता हूं !
उन्हें तन के जीर्ण वस्त्र की तरह उतारकर मैं कैसे उनकी याद अलग कर सकता हूं। उनसे बिछड़ते हुए मुझे अनुभव होता है, मानों मैं अपनी देह की त्वचा को देह से अलग कर रहा हूं।
किन्तु अब मैं यहां और ठहर भी नहीं सकता।
अतल समुद्र का आह्वान सबको बुला लेता है; मुझे भी बुला रहा है; मुझे भी जाना ही होगा।
अब यहां जड़वत् स्थिर रहने का अर्थ होगा, बर्फ में स्फटिक बनकर निर्जीव सांचों में ढल जाना। यह कैसे होगा, जब कि समय के पंख रात की ज्वालाओं में जल रहे हैं।
मैं चाहता हूं, आर्फलीज की हर चीज समेट कर ले जाऊं।
मगर कैसे ?
अधर और जिह्वा से पंख पाकर भी वाणी उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सकती।
हंस को भी, जब वह मानसरोवर की ओर उड़ता है, अपना नीड़ छोड़ना पड़ता है।
पहाड़ की तलहटी पर आकर अलमुस्तफा फिर समुद्र की ओर मुड़ा और उसने देखा कि उसके देश का जहाज़ देश के मल्लाहों के साथ तट की ओर बढ़ रहा था।

उसकी आत्मा पुकार उठी, जननी-जन्मभूमि के पुत्रों ! सागर-तरंगों पर खेलने वालो ! सहस्रों बार तुमसे सपनों में मिला हूं किन्तु आज जागृति में, जो स्वप्न से भी गहन है, पहली बार साक्षात् हो रहा है।
मैं अपनी बेचैनी के पंखों को पोल बनाकर साथ चलने को तैयार हूं।
अब इस शान्त, सहमी-सी हवा में मुझे कुछ ही सांस और लेने हैं, और शायद अन्तिम बार अपनी ममताभरी आंखों से इस धरती का स्पर्श करना है।
उसके बाद मैं भी तुम्हारे साथ के समुद्र-प्रवासियों में से एक प्रवासी बनूंगा।
जो अनन्त परिधि सागर ! ओ निद्राविलीन माता ! तू ही मुक्त भाव से अविराम बहती जलधाराओं के अन्तिम विराम है।
अब इस धारा का एक ही मोड़ शेष है।
इसके बाद मैं तेरे संग चलूंगा; जैसे एक अनन्त बूंद अनंत सागर के संग।
उसने देखा कि नगर के नर-नारी अपने अधजुते खेतों से नगर-द्वार की ओर दल-के-दल बढ़े आ रहे थे।
उनके अधीर होठों पर उसका ही नाम था।
अलमुस्तफा अपने सा कह उठा :

क्या वियोग का यह दिन ही मिलन का दिन होगा ?
जिन्होंने अनुनय-विनय की कि वह (अलमुस्तफा) उनसे विदा न हो। अलमुस्तफा मौन था। उसका मस्तक झुक गया था, उसके वक्ष पर अश्रुधारा प्रवाहित थी।
यह बात केवल पड़ोस में खड़े लोगों ने देखी।
तदुपरान्त सब लोग मंदिर-प्रांगण की ओर चल पड़े।
वहां एक देवालय से अलमित्रा नाम की देवी बाहर आई, जो साधिका थी।
अलमुस्तफा ने उसकी ओर अत्यधिक स्निग्ध- कोमल भाव से आंख उठाई। यह वही थी, जिसने अलमुस्तफा को प्रवास के प्रथम दिन अपना विश्वास देकर आत्मीय बनाया था।
देवी ने अलमुस्तफा का इन शब्दों में स्वागत किया :
ओ परम तत्त्व के शाश्वत शोधक ! ईश्वर के दूत ! तुमने अपने देश की ओर जाने वाले जहाज़ के लम्बे मार्ग की अनन्त प्रतीक्षा की है।
आज वह जहाज़ आ गया है- तुम्हें अब जाना ही होगा। मैं जानती हूं, बीते दिन की स्मृतियों और भविष्य के स्वप्नों की गहरी उत्सुकता तुम्हारे प्राणों को अधीर कर रही है।
हमारे प्रेमपाश तुम्हें नहीं बांधेंगे। स्वार्थ तुम्हारे पैरों की ज़जीर नहीं बनेगा।
लेकिन हमारी यह प्रार्थना है कि विदा होने से पहले हमें अपना ‘सत्य’ दे जाओ।
हम उस ‘सत्य’ को अपनी सन्तानों को देंगे, वे अपनी सन्तानों को, और इस प्रकार वह अमर रहेगा।
तुमने हमारी चिन्ताओं में साथ दिया है और जागते हुए तुमने हमारी नींद के हँसने-रोने की भी सुना है।
इसलिए अब हमें ही हमारे आगे अनावृत्त करो और जन्म व मृत्यु के मध्य के जो गहन रहस्य तुमने देखे हैं, उन्हें प्रकट करो।
अलमुस्तफा ने कहा : आर्फलीज-निवासियों ! मैं तुमसे वही कह सकता हूं जो तुम्हारी अन्तरात्मा कहती रही है; उसके सिवाय मैं तुमसे क्या कह सकता हूं !
तुम प्रश्न करो, मैं अपने शब्दों में तुम्हारे ही अन्तर में निहित सत्य को प्रकट करने का यत्न करूंगा।
तब नगर- निवासियों ने एक-एक अपने मन में छिपे प्रश्नों को प्रकट किया।

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