बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - युद्ध राम कथा - युद्धनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान
"उग्रदेव!"
लक्ष्मण ने आंखें खोलकर सीता को देखा। कुछ क्षणों तक देखते रहे, और बोले, "भाभी...!"
आगे वे कुछ बोल नहीं सके। उनका कंठ भर्रा आया था और आँखें छलछला गई थीं।
"आप लोग अन्य आहतों को देखें, सीता अत्यंत विनीत भाव से बोलीं, देवर की देखभाल मैं कर लूंगी।"
प्रभा और सुषेण ने कोई आपत्ति नहीं की। क्षतों और औषधियों
के विषय में कुछ आवश्यक सूचनाएं देकर, वे अन्य आहतों की ओर बढ़ गए। रावण के शक्ति प्रहार से हुए बड़े घाव को औषधि-युक्त रुई से साफ करते हुए सीता बोलीं, "पीड़ा असहनीय है सौमित्र!"
"नहीं भाभी!"
"तो आंखें क्यों छलछला आई हैं।" सीता की आंखों में परिहास था, "रोते भी हो और मानते भी नहीं। हठी बालक!"
लक्ष्मण की परिहास-मुद्रा नहीं लौटी, "सोचता हूं, आपको सकुशल लौटाया न जा सकता, तो मैं अपने-आपको कैसे क्षमा कर पाता।"
"और इस भयंकर युद्ध में ऐसे-ऐसे घाव खाए हैं तुमने देवर! यदि तुम्हें कुछ हो जाता, "सीता गम्भीर हो गई थी, "तो मैं स्वयं को कैसे क्षमा करती?"
"भाभी! पंचवटी में मैं आश्रम में इसलिए नहीं रुका था-"
"मैं जानती हूं।" सीता ने लक्ष्मण की बात पूरी नहीं होने दी, "बाद में मैंने उस घड़ी को बहुत कोसा था सौमित्र! वर्ष भर कोसती ही रही थी। क्यों मैंने वैसा सोचा। क्यों मैंने वैसे कटु वाक्य कहे-" सीता मौन होकर पुनः बोलीं, "अपने प्रिय की सुरक्षा के लिए चिंतित, मेरा मन बहुत शंकालु हो गया था।"
"समझता हूं।" लक्ष्मण धीरे से बोले, "बाद में मैंने भी इस विषय में बहुत सोचा था, और यही पाया था कि भैया को बार-बार जोखिम के मुंह में जाते देख और मुझे, पीछे, सुरक्षित बैठे देख, आपका शंकालु हो जाना स्वाभाविक ही था।" सीता एक, उदास-सी मुस्कान अधरों पर ले आई, "थोड़ी-सी ईर्ष्या इसलिए भी जागी थी कि तुम अपने भैया पर मुझसे भी अधिक अधिकार जताते थे।" लक्ष्मण मुस्कराए भर। बोले कुछ नहीं।
सीता ने पट्टी बांध दी, "अब कभी तुम पर अविश्वास नहीं करूंगी।"
लक्ष्मण पुनः मुस्कराए, "अब अवसर ही नहीं आने दूंगा।"
"अब विश्राम करो देवर!" सीता ने लक्ष्मण के माथे पर स्नेह-भरा हाथ फेरा। अन्य घायलों के उपचार में सहायता करने के लिए सीता सुषेण और प्रभा की ओर बढ़ गई।
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