नारी विमर्श >> पुरवा पुरवामंजु सिंह
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हम कितना पिछड़ गये हैं अपने जीवन में तनावग्रस्त भी कोई जीवन होता है—बोझा सा ढोते चले-चले हैं, बस भागे चले जा रहे हैं....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हम कितना पिछड़ गये हैं अपने जीवन में तनावग्रस्त भी कोई जीवन होता है-
बोझा सा ढोते भागे चले-चले हैं, बस भागे चले जा रहे हैं- तभी डा० समर्पिता
की विचार धारा भंग हो गयी किसी की चहचहाती आवाज़ को सुन-भोलू भईया तुम,
अरे इ टेसन वाली मेमसाब जी इतै-गोदी में काले-सफेद रंग का बकरी का बच्चा
उछालती ऊंचे-ऊंचे घेरदार लहंगे को लहराती आश्चर्य से डा० समर्पिता की ओर
देखती पूछ रही थी। वह चंचल बाला।
मजबूत तने सा होता है पिता का वात्सल्य, जिसके लहलहाते साये में प्रस्फुटित, पुष्पित, विकसित होता है बचपन। मां की सूनी अंखियां, मासूम की मासूमियत में गयी समा-यह तो बरखू दादा और धनकिया माई का गंगा जमुना प्यार था, जो बिहारी का सूना कोना फलने-फूलने लगा। कभी अनुभव ही नहीं होने दिया बरखू भैया ने कि वह पितृ-विहीन है।
मजबूत तने सा होता है पिता का वात्सल्य, जिसके लहलहाते साये में प्रस्फुटित, पुष्पित, विकसित होता है बचपन। मां की सूनी अंखियां, मासूम की मासूमियत में गयी समा-यह तो बरखू दादा और धनकिया माई का गंगा जमुना प्यार था, जो बिहारी का सूना कोना फलने-फूलने लगा। कभी अनुभव ही नहीं होने दिया बरखू भैया ने कि वह पितृ-विहीन है।
विनम्र निवेदन
उस दिन स्वर्गलोक में असीम शान्ति बिखरी पड़ी थी। भोर का बाल- रवि मुस्करा
रहा था, हिमाच्छादित हिमगिरि, रजत सा जग-मग, जग-मग चमक रहा था। मानसरोवर
की मौजों में तैरता राजहंस, धवलता के उस साम्राज्य को और भी धवल बना रहा
था।
खिले-खिले परिजात-पुष्पों की दिव्य-सुगन्धि तैर रही थी चहुँ ओर। सुन्दरता के इस संसार में, फूलों के उद्यान में ‘शिव’ अपनी ‘प्रिया’ संग विहार कर रहे थे- तभी सधः खिले, ओस-मुक्ताओं से भीगे-भीगे गुलाबी कमल की पांखड़ियों सदृष प्रिया पार्वती के मुस्कुराते मृदुओंष्ठों को निहारते मुग्ध हो गये शिव- इस मुस्कुराहट को सर्वजनीन करने की तीव्र अभिलाषा जागृत हो गयी, भोले के भोले उर में-
सप्त-किरणों की डोरी में, सतरंगी सपने सजे, सप्तरंगी कल्पनाओं के सुन्दर रुपहले, सुनहरे संसार में फैल गयी प्रकाश-किरणों की लाली, लाल हो गयी गुलमोहर सारी, खिल-खिलकर हंस पड़ा वह अनुरागमय अमलतास।
दूर-दृष्टि सुजान ‘‘ब्रह्मा’’ ने दिन-रात्रि के मान्निदर डार दिये इस मानव में दो विरोधक-भाव-दुख न हो तो सुख को कौन चीन्हेगा, घृणा न हो तो प्रेम को कौन जानेगा। भावना के इस जगत में थी अलौकिक शान्ति, सर्वत्र थी हरियाली और खुशहाली- तभी फैल गया माया का जाल, जाल फैलता गया, प्रपंच बढ़ता गया और एक दिन ऐसा भी आया जब मैं और मेरे के मकड़जाल में फंस कर रह गया वह निरीह मानव- अब नफरत, घृणा, हिंसा, लोभ, अहंकार और तृष्णा के इस तेजी से फैलते जाल को देख क्रोधित हो उठे ‘‘शिव’’- कहां गयी वह प्रिया की प्यारी मुस्कान, कहाँ गया वह प्यारा प्रेमीमन ?
परमात्मा का परमतत्व पल में हो गया विलीन। धुंये की कालिमा में छिप गया वह दिव्य-प्रकाश, क्रोधित शिव ने उठा ही लिया अपना डमरू-ताडंव-नर्तन में छिन्न-भिन्न हो गयी, यह कौतुक की सगरी संरचना।
पृथ्वी के गर्भ से, जलते ज्वालामुखी फटे हैं, तो फटा है मृदु जलस्रोत भी- फिर बहेगी शीतल धारा फिर खिलेंगे भावना के फूल। उस जगत में फिर फैलेगा अलौकिक प्रकाश। फिर ओस-मुक्ताओं से भीगे-भीगे मृदु कमल खिल-खिलकर हंस पड़ेंगे, फिर सीप के गर्भ में छिपे मोती सा दिव्य प्रेम अलौकिक मुस्कान बिखेरता- प्रकृति को कर लेगा अपने में सराबोर।
श्रद्धा और विश्वास की अटूट भावना के साथ सुधि पाठकों को लेखिका की विनम्र भेंट। मैं अपने समस्त गुरुजनों एवं शुभचिन्तकों के प्रति कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस उपन्यास को रेखांकित करने की सतत् प्रेरणा दी।
यह उपन्यास किसी भी घटना के किसी भी भाग, किसी भी चरित्र से सम्बन्ध नहीं रखता है। इस उपन्यास की समस्त घटनायें व पात्र पूर्णतया काल्पनिक हैं।
खिले-खिले परिजात-पुष्पों की दिव्य-सुगन्धि तैर रही थी चहुँ ओर। सुन्दरता के इस संसार में, फूलों के उद्यान में ‘शिव’ अपनी ‘प्रिया’ संग विहार कर रहे थे- तभी सधः खिले, ओस-मुक्ताओं से भीगे-भीगे गुलाबी कमल की पांखड़ियों सदृष प्रिया पार्वती के मुस्कुराते मृदुओंष्ठों को निहारते मुग्ध हो गये शिव- इस मुस्कुराहट को सर्वजनीन करने की तीव्र अभिलाषा जागृत हो गयी, भोले के भोले उर में-
सप्त-किरणों की डोरी में, सतरंगी सपने सजे, सप्तरंगी कल्पनाओं के सुन्दर रुपहले, सुनहरे संसार में फैल गयी प्रकाश-किरणों की लाली, लाल हो गयी गुलमोहर सारी, खिल-खिलकर हंस पड़ा वह अनुरागमय अमलतास।
दूर-दृष्टि सुजान ‘‘ब्रह्मा’’ ने दिन-रात्रि के मान्निदर डार दिये इस मानव में दो विरोधक-भाव-दुख न हो तो सुख को कौन चीन्हेगा, घृणा न हो तो प्रेम को कौन जानेगा। भावना के इस जगत में थी अलौकिक शान्ति, सर्वत्र थी हरियाली और खुशहाली- तभी फैल गया माया का जाल, जाल फैलता गया, प्रपंच बढ़ता गया और एक दिन ऐसा भी आया जब मैं और मेरे के मकड़जाल में फंस कर रह गया वह निरीह मानव- अब नफरत, घृणा, हिंसा, लोभ, अहंकार और तृष्णा के इस तेजी से फैलते जाल को देख क्रोधित हो उठे ‘‘शिव’’- कहां गयी वह प्रिया की प्यारी मुस्कान, कहाँ गया वह प्यारा प्रेमीमन ?
परमात्मा का परमतत्व पल में हो गया विलीन। धुंये की कालिमा में छिप गया वह दिव्य-प्रकाश, क्रोधित शिव ने उठा ही लिया अपना डमरू-ताडंव-नर्तन में छिन्न-भिन्न हो गयी, यह कौतुक की सगरी संरचना।
पृथ्वी के गर्भ से, जलते ज्वालामुखी फटे हैं, तो फटा है मृदु जलस्रोत भी- फिर बहेगी शीतल धारा फिर खिलेंगे भावना के फूल। उस जगत में फिर फैलेगा अलौकिक प्रकाश। फिर ओस-मुक्ताओं से भीगे-भीगे मृदु कमल खिल-खिलकर हंस पड़ेंगे, फिर सीप के गर्भ में छिपे मोती सा दिव्य प्रेम अलौकिक मुस्कान बिखेरता- प्रकृति को कर लेगा अपने में सराबोर।
श्रद्धा और विश्वास की अटूट भावना के साथ सुधि पाठकों को लेखिका की विनम्र भेंट। मैं अपने समस्त गुरुजनों एवं शुभचिन्तकों के प्रति कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस उपन्यास को रेखांकित करने की सतत् प्रेरणा दी।
यह उपन्यास किसी भी घटना के किसी भी भाग, किसी भी चरित्र से सम्बन्ध नहीं रखता है। इस उपन्यास की समस्त घटनायें व पात्र पूर्णतया काल्पनिक हैं।
मंजु सिंह
प्रथम
टेसन चला रे बिहरिया गाडी आवे का टेम हुई गवारे, चला बड़ा मजा आई हौं उतै
बा रंग-बिरंगे फुदनों से बंधी अपनी लम्बी-लम्बी दोनों चोटियों को हाथों से
हवा में उछालती बोली।
टेसन अरे हाँ गाड़ी तो आई गवी हुईगो दौड़ा रे दौड़ा-
गाड़ी का नाम सुनते ही हाथ पकड़ कर दौड़ पड़ा टेसन की ओर।
इसी टेसन पर नन्हें-नन्हें हाथों में हाथ डाले, भोले-भाले मासूम कजरारे नयनों को गोल-गोल घुमाते पहरों खेला करते थे वह दोनों और जब धुँआ उड़ाती कू छिक-छिक, कू छिक-छिक की आवाज़ लगाती गाड़ी आती तो बड़े कौतुहल से देखते वह दोनों। कभी-कभी रेल पटरी पर घर से अपनी साथ लाई छोटी-छोटी कीलो को रख देती थी वह और जब गाड़ी निकल जाती, तो दौड़ पड़ती पटरी की ओर- सारी की सारी कीलों को तो रेलगाड़ी अपने साथ उड़ा ले जाती, पर कभी-कभार एकाध मोटी बड़ी कील को तलवार बना छोड़ भी जाती- तलवार देख खुशी से उछल पड़ती लपककर हाथों में उठाती, हवा में लहराती-पूरीं झांसी की रानी बन जाती- बिहारी उसका यह रूप देख खिल-खिलाकर हंसने लगता।
बचपन का भोलापन अपने आप में अनोखा होता है।
देखा रे पुरवा उ मेमसाब का तौ देख बा- उस छोटे से स्टेशन पर ऊँची ऐड़ी की सेंडल पहने आंखों पर काला धूप का चश्मा लगायें हवा में लहराते छोटे-छोटे कटे भूरे-भूरे केस चंपई गुलाबी रंग नीले रंग की जीन्स, गुलाबी रंग के टाप में एक बीस-बसाई नव-यौवना, हाथों में अपनी अटैची संम्भाले इधर-उधर दृष्टि घुमा रही थी-
अरी दैट्टया री दैय्या, ई ता इतौ ही उतर गईल बा-
दिया समान कज़रारे बड़े-बड़े नयनों को आश्चर्य से घुमाती हुयी बोलीपुरवा अरी हाँ री देक्खा उई तो इधर ही आइल रहिले बा-
धारीदार कमीज वा टंखनों से ऊपर धोती बाँधे बिहारी बोल पड़ा दोनों के अचरज़ की सीमा न थी।
गाँव को तो शहर की ओर जाता देखा है, पर शहर को गाँव की ओर आते देखना ?
इधर कोई गाड़ी मिलेगी ?
उछल पड़ा बिहारी उन मेमसाहब की मीठी वाणी सुनकर। हाँ मैन हम तुमी से पूछता है बिहारी को आश्चर्य से आंखें फैलाये देख बोली वह मेमसाब।
गाड़ी, हाँ-हाँ क्यों नहीं, अरी पुरवा दौड़कर जा, गाड़ी तौ लैकर आ।
अच्छा- और घाघरा लहराती पुरवा दौड़ गई।
घड़ी दो घड़ी बीत गई।
बड़ी देर हो गयी- हाथ में बंधी अपनी कलाई घड़ी की ओर देखतीं बोली वह मेमसाब।
जी अभी नै आवत हुइले- नीम-वृक्ष तले खड़े बिहारी ने उत्तर दिया। तब तक घंटियों की सुरीली ध्वनि उसके कानों में-
लो आईल गईल गाड़िया-
चहक पड़ वह बांका गठीला नव-नायक।
हुर्र-हुर्र रुकल रे रुकल- गाड़ीवान ने अपने सुन्दर बैलों को पुचकारते हुए कहा। पीछे से कूद पड़ी पुरवा-ई लो, मेम साब जी, आईल गईल गाड़िया। व्हाट, नानसेन्स- सामने बैलगाड़ी खड़ी देख गुस्से से झुंझलाती हुयीं बोलीं वह मेम साहब।
का......का कईल बा- अंग्रेजी भाषा से अनजान पुरवा टहकी।
गाड़ी मैंने गाड़ी लाने को कहा था- खींजती हुयीं बोलीं वह मेमसाहब ।
गाड़ी, उई दैय्या, ई इत्ती बड़ी गाड़ी नाहीं दिखल बा- आश्चर्य से मुँह पर हाथ लगाते हुए पूछा पुरवा ने।
दिखले कस, अंखियन मा ऐनक जौन लगाहिल रहिले हैं- उनके धूप के चश्में की ओर दिखाते हुए बिहारी ने अपनी अक्लमंदी दिखाई।
लपक कर उनकी आंखों से धूप का चश्मा उतार दिया पुरवा ने-ई, देक्खा, ई गाड़ी-सामने खड़ी बैलगाड़ी की ओर इशारा करती हुई बोली पुरवा।
गाड़ी पर बैठा गाड़ीवान ठठाकर हंस पड़ा। डैम फूल-पुरवा के इस व्यवहार से गुस्से से लाल-पीली हो गयी वह मेमसाहब।
का.....का कहल, का कहल- पीले रंग की चोली की बांहों को ऊपर चढ़ाती पुरवा तमतमा गई।
शीघ्र ही अपने संयत कर बोलीं वह मेम साहब- नहीं कुछ नहीं हमने तो कार लाने को कहा था जो पीं.....पीं....हार्न बजाती हुई चलती है।
अब तक पुरवा और उन मेमसाहब जी की बातों को ध्यान से खड़ा सुनता बिहारी, पीं....पीं सुन बोल पड़ा- अच्छा उ नेतवा वारीं गाड़ी अरे मेमसाहब जी उई मा तो बड़े-बड़े नेतवा बैठलकर कभी-कभारे हमार गांव मा आवल रहिले बा।
अब तक पुरवा भी समझ चुकी थी गाड़ी का अर्थ- बीच में ही लपक कर बोली- अरे मेमसब जी ऊ इधर कहूँ देखन को नाहीं मिलिहें, ऊ तो चार-पाँच साले मा एक्कै बारे ही इधर आहिले, जब नेताव जी केर बोट बटोरे रहिले बा। फिर आप कौनों नेतवा थोरे ही हौं।
समझ चुकी थीं वह सुजान मेमसाहब इन भोले ग्राम-वासियों की भाषाभला इनके पास कहाँ होगी मोटर कार। सच है बड़ी-बड़ी मोटर कारों पर तो चढ़ते हैं नेता इन गरीबों के खून का पेट्रोल डाल, डालकर- और अटैची संम्भालतीं उछलकर चढ़ गयीं उस बैलगाड़ी पर- चलो गाड़ी वाले चलो।
कहाँ ? पलट कर पूछा उस गाड़ीवान ने। हास्पिटल-छोटा सा उत्तर दिया उन्होंने गांव की मंडियों से अनाज शहर तक ले जाने वाला गाड़ीवान शहरी भाषा से अनभिज्ञन था।
दूर-दूर तक फैले धान के हरियाले, लहलहाते खेत सावन की प्रथम फुहार से भीगी-भीगी, माटी की सोंधी-सोंधी महक से महकी-महकी पुरवाई की बयार-खेतों में रोपाई, निराई में तल्लीन कर्मठ किसान कहीं धान की गठरी सिर पर लादे चला जा रहा है, तो कहीं घुटनों तक धोती बांधे पानी से भरे खेतों में नन्हें-नन्हें पौधों को लगाता मल्हार गाता कृषक झूम-झूम रहे हैं पेड़ और पौधे-भालों से हरी-भरी वसुन्धरा तभी तो अन्नपूर्णा है।
अरे ओर रे गाड़ी वाले भइया, किधर कौ जाई रहिल-टखने से ऊपर धोती बांधे, उधोड़ बदन हाथों में हंसिया लिए एक सांवला सा किसान, अपने खेत के समीप की पगडंडी से गुजरती बैलगाड़ी को देख पूछ रहा है।
का दिखले नहीं, सवारी लै जाय रहिले बा- उत्तर दिया गाड़ीवान ने।
सवारी ? और पंजों के बल उचक कर झांका गाड़ी के अन्दर आश्चर्य से आंखें फैल गई उसकी- अरे ई तो कौनो मेम अहैं- मुंह में हाथ लगाते हुए बोला वह कृषक।
टेसन अरे हाँ गाड़ी तो आई गवी हुईगो दौड़ा रे दौड़ा-
गाड़ी का नाम सुनते ही हाथ पकड़ कर दौड़ पड़ा टेसन की ओर।
इसी टेसन पर नन्हें-नन्हें हाथों में हाथ डाले, भोले-भाले मासूम कजरारे नयनों को गोल-गोल घुमाते पहरों खेला करते थे वह दोनों और जब धुँआ उड़ाती कू छिक-छिक, कू छिक-छिक की आवाज़ लगाती गाड़ी आती तो बड़े कौतुहल से देखते वह दोनों। कभी-कभी रेल पटरी पर घर से अपनी साथ लाई छोटी-छोटी कीलो को रख देती थी वह और जब गाड़ी निकल जाती, तो दौड़ पड़ती पटरी की ओर- सारी की सारी कीलों को तो रेलगाड़ी अपने साथ उड़ा ले जाती, पर कभी-कभार एकाध मोटी बड़ी कील को तलवार बना छोड़ भी जाती- तलवार देख खुशी से उछल पड़ती लपककर हाथों में उठाती, हवा में लहराती-पूरीं झांसी की रानी बन जाती- बिहारी उसका यह रूप देख खिल-खिलाकर हंसने लगता।
बचपन का भोलापन अपने आप में अनोखा होता है।
देखा रे पुरवा उ मेमसाब का तौ देख बा- उस छोटे से स्टेशन पर ऊँची ऐड़ी की सेंडल पहने आंखों पर काला धूप का चश्मा लगायें हवा में लहराते छोटे-छोटे कटे भूरे-भूरे केस चंपई गुलाबी रंग नीले रंग की जीन्स, गुलाबी रंग के टाप में एक बीस-बसाई नव-यौवना, हाथों में अपनी अटैची संम्भाले इधर-उधर दृष्टि घुमा रही थी-
अरी दैट्टया री दैय्या, ई ता इतौ ही उतर गईल बा-
दिया समान कज़रारे बड़े-बड़े नयनों को आश्चर्य से घुमाती हुयी बोलीपुरवा अरी हाँ री देक्खा उई तो इधर ही आइल रहिले बा-
धारीदार कमीज वा टंखनों से ऊपर धोती बाँधे बिहारी बोल पड़ा दोनों के अचरज़ की सीमा न थी।
गाँव को तो शहर की ओर जाता देखा है, पर शहर को गाँव की ओर आते देखना ?
इधर कोई गाड़ी मिलेगी ?
उछल पड़ा बिहारी उन मेमसाहब की मीठी वाणी सुनकर। हाँ मैन हम तुमी से पूछता है बिहारी को आश्चर्य से आंखें फैलाये देख बोली वह मेमसाब।
गाड़ी, हाँ-हाँ क्यों नहीं, अरी पुरवा दौड़कर जा, गाड़ी तौ लैकर आ।
अच्छा- और घाघरा लहराती पुरवा दौड़ गई।
घड़ी दो घड़ी बीत गई।
बड़ी देर हो गयी- हाथ में बंधी अपनी कलाई घड़ी की ओर देखतीं बोली वह मेमसाब।
जी अभी नै आवत हुइले- नीम-वृक्ष तले खड़े बिहारी ने उत्तर दिया। तब तक घंटियों की सुरीली ध्वनि उसके कानों में-
लो आईल गईल गाड़िया-
चहक पड़ वह बांका गठीला नव-नायक।
हुर्र-हुर्र रुकल रे रुकल- गाड़ीवान ने अपने सुन्दर बैलों को पुचकारते हुए कहा। पीछे से कूद पड़ी पुरवा-ई लो, मेम साब जी, आईल गईल गाड़िया। व्हाट, नानसेन्स- सामने बैलगाड़ी खड़ी देख गुस्से से झुंझलाती हुयीं बोलीं वह मेम साहब।
का......का कईल बा- अंग्रेजी भाषा से अनजान पुरवा टहकी।
गाड़ी मैंने गाड़ी लाने को कहा था- खींजती हुयीं बोलीं वह मेमसाहब ।
गाड़ी, उई दैय्या, ई इत्ती बड़ी गाड़ी नाहीं दिखल बा- आश्चर्य से मुँह पर हाथ लगाते हुए पूछा पुरवा ने।
दिखले कस, अंखियन मा ऐनक जौन लगाहिल रहिले हैं- उनके धूप के चश्में की ओर दिखाते हुए बिहारी ने अपनी अक्लमंदी दिखाई।
लपक कर उनकी आंखों से धूप का चश्मा उतार दिया पुरवा ने-ई, देक्खा, ई गाड़ी-सामने खड़ी बैलगाड़ी की ओर इशारा करती हुई बोली पुरवा।
गाड़ी पर बैठा गाड़ीवान ठठाकर हंस पड़ा। डैम फूल-पुरवा के इस व्यवहार से गुस्से से लाल-पीली हो गयी वह मेमसाहब।
का.....का कहल, का कहल- पीले रंग की चोली की बांहों को ऊपर चढ़ाती पुरवा तमतमा गई।
शीघ्र ही अपने संयत कर बोलीं वह मेम साहब- नहीं कुछ नहीं हमने तो कार लाने को कहा था जो पीं.....पीं....हार्न बजाती हुई चलती है।
अब तक पुरवा और उन मेमसाहब जी की बातों को ध्यान से खड़ा सुनता बिहारी, पीं....पीं सुन बोल पड़ा- अच्छा उ नेतवा वारीं गाड़ी अरे मेमसाहब जी उई मा तो बड़े-बड़े नेतवा बैठलकर कभी-कभारे हमार गांव मा आवल रहिले बा।
अब तक पुरवा भी समझ चुकी थी गाड़ी का अर्थ- बीच में ही लपक कर बोली- अरे मेमसब जी ऊ इधर कहूँ देखन को नाहीं मिलिहें, ऊ तो चार-पाँच साले मा एक्कै बारे ही इधर आहिले, जब नेताव जी केर बोट बटोरे रहिले बा। फिर आप कौनों नेतवा थोरे ही हौं।
समझ चुकी थीं वह सुजान मेमसाहब इन भोले ग्राम-वासियों की भाषाभला इनके पास कहाँ होगी मोटर कार। सच है बड़ी-बड़ी मोटर कारों पर तो चढ़ते हैं नेता इन गरीबों के खून का पेट्रोल डाल, डालकर- और अटैची संम्भालतीं उछलकर चढ़ गयीं उस बैलगाड़ी पर- चलो गाड़ी वाले चलो।
कहाँ ? पलट कर पूछा उस गाड़ीवान ने। हास्पिटल-छोटा सा उत्तर दिया उन्होंने गांव की मंडियों से अनाज शहर तक ले जाने वाला गाड़ीवान शहरी भाषा से अनभिज्ञन था।
दूर-दूर तक फैले धान के हरियाले, लहलहाते खेत सावन की प्रथम फुहार से भीगी-भीगी, माटी की सोंधी-सोंधी महक से महकी-महकी पुरवाई की बयार-खेतों में रोपाई, निराई में तल्लीन कर्मठ किसान कहीं धान की गठरी सिर पर लादे चला जा रहा है, तो कहीं घुटनों तक धोती बांधे पानी से भरे खेतों में नन्हें-नन्हें पौधों को लगाता मल्हार गाता कृषक झूम-झूम रहे हैं पेड़ और पौधे-भालों से हरी-भरी वसुन्धरा तभी तो अन्नपूर्णा है।
अरे ओर रे गाड़ी वाले भइया, किधर कौ जाई रहिल-टखने से ऊपर धोती बांधे, उधोड़ बदन हाथों में हंसिया लिए एक सांवला सा किसान, अपने खेत के समीप की पगडंडी से गुजरती बैलगाड़ी को देख पूछ रहा है।
का दिखले नहीं, सवारी लै जाय रहिले बा- उत्तर दिया गाड़ीवान ने।
सवारी ? और पंजों के बल उचक कर झांका गाड़ी के अन्दर आश्चर्य से आंखें फैल गई उसकी- अरे ई तो कौनो मेम अहैं- मुंह में हाथ लगाते हुए बोला वह कृषक।
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