उपन्यास >> तृष्णा तृष्णामंजु सिंह
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प्रस्तुत उपन्यास समाज एवं शिक्षा की विसंगतियों की प्रस्तुति में यथार्थपरक होते हुए भी एक आदर्श को लेकर पर्यवसित होता है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘तृष्णा’ मंजु सिंह का सद्यः प्रकाशित उपन्यास है।
अतीत एवं वर्तमान एकसूत्र में पिरोते हुए लेखिका ने शिक्षा प्रणाली को
उपन्यास के केन्द्र में रखा है। प्राचीन गुरुकुल प्रणाली में संस्कारित
शिक्षा के द्वारा जीवन का सर्वांगीण विकास होता था और राजकुल भी गुरु की
गरिमा के समक्ष विनत रहता था। उसके परिणाम स्वरूप जो छात्र गुरुकुल से
शिक्षा प्राप्त करते थे, वे राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित होते थे।
लेखिका ने विष्णु शर्मा के माध्यम से प्राचीन मूल्यों को विस्तार दिया है।
शताब्दियों की पराधीनता ने भारतीय समाज और शिक्षा प्रणाली को विकृत कर दिया। ‘तृष्णा’ ने अतीत के स्वर्णिम आलोक के पश्चात् पश्चिम की अनुकृति आधुनिक शिक्षा की विकृति को चित्रित कर आज के संवेदनशून्य समाज की कलई खोली है। विदेशी सभ्यता से प्रभावित ये छात्र अपनी प्रतिभा का प्रयोग भी विदेशियों के लिए करते हैं। शिक्षा की इस दुरावस्था का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। इसीलिए उपन्यास में टूटते परिवार, आर्थिक भ्रष्टाचार और शोषण की प्रवृत्ति का उल्लेख करके लेखिका ने ‘तृष्णा’ के रूप में समकालीन समाज का दस्तावेज प्रस्तुत किया है। त्याग मूलक प्राचीन शिक्षा का स्थान ऐसी व्यवस्था ने ले लिया है, जहाँ तृष्णा का अन्तहीन सिलसिला है और इसका समाधान है वर्तमान को अतीत के आधर पर पुनरीक्षित करना। स्वप्निल का स्वप्न ऐसे ही महाविद्यालय की स्थापना है, जिसमें वह सफल होता है।
समग्र रूप से प्रस्तुत उपन्यास समाज एवं शिक्षा की विसंगतियों की प्रस्तुति में यथार्थपरक होते हुए भी एक आदर्श को लेकर पर्यवसित होता है। कृति आद्योपान्त पठनीय और संग्रहणीय है।
शताब्दियों की पराधीनता ने भारतीय समाज और शिक्षा प्रणाली को विकृत कर दिया। ‘तृष्णा’ ने अतीत के स्वर्णिम आलोक के पश्चात् पश्चिम की अनुकृति आधुनिक शिक्षा की विकृति को चित्रित कर आज के संवेदनशून्य समाज की कलई खोली है। विदेशी सभ्यता से प्रभावित ये छात्र अपनी प्रतिभा का प्रयोग भी विदेशियों के लिए करते हैं। शिक्षा की इस दुरावस्था का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। इसीलिए उपन्यास में टूटते परिवार, आर्थिक भ्रष्टाचार और शोषण की प्रवृत्ति का उल्लेख करके लेखिका ने ‘तृष्णा’ के रूप में समकालीन समाज का दस्तावेज प्रस्तुत किया है। त्याग मूलक प्राचीन शिक्षा का स्थान ऐसी व्यवस्था ने ले लिया है, जहाँ तृष्णा का अन्तहीन सिलसिला है और इसका समाधान है वर्तमान को अतीत के आधर पर पुनरीक्षित करना। स्वप्निल का स्वप्न ऐसे ही महाविद्यालय की स्थापना है, जिसमें वह सफल होता है।
समग्र रूप से प्रस्तुत उपन्यास समाज एवं शिक्षा की विसंगतियों की प्रस्तुति में यथार्थपरक होते हुए भी एक आदर्श को लेकर पर्यवसित होता है। कृति आद्योपान्त पठनीय और संग्रहणीय है।
डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
* ‘‘तृष्णा का सूर्य अखिल विश्व को प्रकाशित करे। शुभ
मंगल कामना।
सुनील शास्त्री (सुपुत्र स्व० श्री लाल
बहादुर शास्त्री, भूतपूर्व प्रधानमंत्री)
* मर्म को छूने वाला मर्म-स्पर्शी उपन्यास
‘‘तृष्णा’’ मानवता के लिए
कल्याणकारी सिद्ध हो। हार्दिक शुभकामना।
डी.के.सिंह (एम.एस.सी)
* आत्मा की गहराइयों में उतर जाने वाला उपन्यास
‘‘तृष्णा’’ नवीन दिशा प्रदान
करे। मंगलकामना के
साथ-
वी.के.सिंह (बी.काम., एल.एल.बी.)
* ‘‘तृष्णा’’ लोकप्रिय हो। शत-शत
मंगल कामना।
डा. के.के. सिंह
* ‘‘तृष्णा शिक्षा के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शिका का
कार्य करे। इसकी सफलता के लिए अनेकानेक
शुभ-कामनायें।
श्रीमती कुसुम श्रीवास्तव
(एम.ए., बी.एड.)
भूतपूर्व प्राचार्या
(एम.ए., बी.एड.)
भूतपूर्व प्राचार्या
विनम्र निवेदन
मानस का मानसरोवर, मानव का मानस, मानस का मानस मानवता का पदार्पण-स्वर्ग
से उतरा धरा पर बिखरा, मोती बिखरे चहुँ ओर मनु की श्रद्धा भीगी-भीगी पलकों
में भावों का अमृत लिये खड़ी थी मौन, भीगे नयनों ने सुनी भीगे नयनों की
वाणी-अंकुर फूटा फूल खिले करुणा बिखरी चहुँ ओर, जड़ औ जंगम गा उठे, चेतन
की तो कौन कहे। मानव-पुष्प खिल गया हरीतिमा की लतिकायें खिल-खिला पड़ीं
कुटिया के आँगन में।
देव-दया की वृष्टि प्रलय का प्रवाह थम गया नव संसार की संरचना में जुट गया यह चेतन जगत। उस जगत में शान्ति थी, प्रेम था और भावनाओं का असीम सागर। कल्पना के सुमधुर स्वर में सप्त किरणों के, रंगीन परियों के संसार में उड़-उड़ चला मनु—अचानक, थम सा गया तूफान, मेधा का अंधड़ उमड़ा भटक गया—हृदय की वाणी को आच्छादित कर लिया मस्तिष्क के सम्वेदी तारों ने ज्ञान की पिपासा में, खोज के असीमित अपार बीहड़ जंगल में भटक गया मानव-ऐसा भटका, ऐसा भटका मार्ग भूल गया-करुणा का, प्रेम का दया का ममता का चलता चला गया, चलता चला गया—निर्मोही, निष्ठुर, निष्प्राण सा यथार्थ की ठोस धरती पर, वह धरती जो शुष्क थी, जो मरु-भूमि सी उष्ण थी जो दवाग्नि धूँ-धूँ जल रही थी, जिसकी बड़वाग्नि सारे संसार को ले डूबी, तूफान का भयंकर झंझावत—कश्ती डूब गयी लहरों में तूफान थमा नहीं, उसे तो थमना ही नहीं था और क्यों थमता, मस्तिष्क के असंख्य अनगिनत सूक्ष्म ताने-बाने उलझकर जो रह गये। ज्ञान की पिपासा बढ़ती गयी सूर्य पकड़ने की ललक, चन्द्र पकड़ने की चाह, तारागण पकड़ने की चाह, स्वर्ग की दमक, ईश्वर तक पहुंचने की उदीप्त अभिलाषा, सत्ता छीनने की हवस-फूल की रचना तो की सुगन्ध न दे पाया, शिशु की संरचना तो की जीवन न दे पाया, कृतिम हृदय तो दिया सम्वेदना न दे पाया, इन्सान तो दिया इन्सानियत न दे पाया, विलासिता तो दी सन्तोष न दे पाया, बौद्धिकता तो दी भावना न दे पाया।
जल में आविष्कार, थल में आविष्कार, नभ में आविष्कार, अंतरिक्ष में पहुँचे, वृहस्पति में पहुँचे, मंगल में पहुँचे माधुर्य को छीना, त्याग को छीना, ममता को छीना-राम नहीं, रहीम नहीं, ईसा नहीं, प्रेम का विनाश किया मानव का सर्वनाश किया। रचनाकार से ऊपर उठने की ललक बेटे ने बाप को गिरा दिया—अब रोता है, कांपती है धरती, थरथराता है आकाश-ज्ञान की पिपासा तृष्णा का पर्याय-मृग-मरीचिका में भटका, तृषित हिरण प्यासा का प्यासा।
श्रद्धा और विश्वास की अटूट भावना के साथ सुधी पाठकों को लेखिका की विनम्र भेंट। मैं अपने समस्त गुरुजनों एवं शुभचिन्तकों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने, इस उपन्यास को रेखांकित करने की सतत् प्रेरणा दी।
यह उपन्यास किसी भी घटना के किसी भी भाग, किसी भी चरित्र से सम्बन्ध नहीं रखता है। इस उपन्यास की समस्त घटनायें व पात्र पूर्णतया काल्पनिक हैं।
देव-दया की वृष्टि प्रलय का प्रवाह थम गया नव संसार की संरचना में जुट गया यह चेतन जगत। उस जगत में शान्ति थी, प्रेम था और भावनाओं का असीम सागर। कल्पना के सुमधुर स्वर में सप्त किरणों के, रंगीन परियों के संसार में उड़-उड़ चला मनु—अचानक, थम सा गया तूफान, मेधा का अंधड़ उमड़ा भटक गया—हृदय की वाणी को आच्छादित कर लिया मस्तिष्क के सम्वेदी तारों ने ज्ञान की पिपासा में, खोज के असीमित अपार बीहड़ जंगल में भटक गया मानव-ऐसा भटका, ऐसा भटका मार्ग भूल गया-करुणा का, प्रेम का दया का ममता का चलता चला गया, चलता चला गया—निर्मोही, निष्ठुर, निष्प्राण सा यथार्थ की ठोस धरती पर, वह धरती जो शुष्क थी, जो मरु-भूमि सी उष्ण थी जो दवाग्नि धूँ-धूँ जल रही थी, जिसकी बड़वाग्नि सारे संसार को ले डूबी, तूफान का भयंकर झंझावत—कश्ती डूब गयी लहरों में तूफान थमा नहीं, उसे तो थमना ही नहीं था और क्यों थमता, मस्तिष्क के असंख्य अनगिनत सूक्ष्म ताने-बाने उलझकर जो रह गये। ज्ञान की पिपासा बढ़ती गयी सूर्य पकड़ने की ललक, चन्द्र पकड़ने की चाह, तारागण पकड़ने की चाह, स्वर्ग की दमक, ईश्वर तक पहुंचने की उदीप्त अभिलाषा, सत्ता छीनने की हवस-फूल की रचना तो की सुगन्ध न दे पाया, शिशु की संरचना तो की जीवन न दे पाया, कृतिम हृदय तो दिया सम्वेदना न दे पाया, इन्सान तो दिया इन्सानियत न दे पाया, विलासिता तो दी सन्तोष न दे पाया, बौद्धिकता तो दी भावना न दे पाया।
जल में आविष्कार, थल में आविष्कार, नभ में आविष्कार, अंतरिक्ष में पहुँचे, वृहस्पति में पहुँचे, मंगल में पहुँचे माधुर्य को छीना, त्याग को छीना, ममता को छीना-राम नहीं, रहीम नहीं, ईसा नहीं, प्रेम का विनाश किया मानव का सर्वनाश किया। रचनाकार से ऊपर उठने की ललक बेटे ने बाप को गिरा दिया—अब रोता है, कांपती है धरती, थरथराता है आकाश-ज्ञान की पिपासा तृष्णा का पर्याय-मृग-मरीचिका में भटका, तृषित हिरण प्यासा का प्यासा।
श्रद्धा और विश्वास की अटूट भावना के साथ सुधी पाठकों को लेखिका की विनम्र भेंट। मैं अपने समस्त गुरुजनों एवं शुभचिन्तकों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने, इस उपन्यास को रेखांकित करने की सतत् प्रेरणा दी।
यह उपन्यास किसी भी घटना के किसी भी भाग, किसी भी चरित्र से सम्बन्ध नहीं रखता है। इस उपन्यास की समस्त घटनायें व पात्र पूर्णतया काल्पनिक हैं।
मंजु सिंह
प्रथम
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः
प्रचोदयात्।
ओम् भूर्भुवस्य स्वहाः
गगनभेदी स्वर में गुरकुल गूँज रहा है—उन्नत ललाट, सुती नासिका
मुस्कराते ओष्ठ गौर वर्ण, धवल दाढी जिसमें ज्ञान की असीम गंगा लहरा-लहरा
रही है, देव-दृष्टि में विशाल नयन जिसमें हृदय की कोमलता सहज ही परिलक्षित
हो रही है। तन पर एक श्वेत धोती, गले में जनेऊ, मस्तक पर चन्दन का टीका,
शीश की शिखा कसकर बंधी हुई है-पवित्र हवन-कुंड के समक्ष कुशा के आसन पर
विनीत भाव में बैठे हुए गुरु देवपाणि गम्भीर गिरा में माँ गायत्री के
श्लोक का उच्चारण कर रहे हैं और इस हवनकुण्ड के चहुँ ओऱ त्याग एवं सादगी
की प्रतिमूर्ति ज्ञानार्थी शिष्यगण सम्वेत् स्वर में उस श्लोक को कंठस्थ
कर रहे हैं।
पवित्र तपोभूमि सी वह ज्ञान की स्थली, जहाँ पर सद्भावों का समावेश स्वतः ही हो जाता था तक्षशिला के इस विद्याधाम में सुदूर देशों से विद्या अर्जन करने आते थे विद्यार्थीगण। सैकड़ों, योजन फैला, प्रकृति की सुरम्य क्रोड़ में स्थित विश्व-विद्यालय के प्राकृतिक वातावरण में विद्या अर्जन करते थे शिष्यगण। प्रकृति की सहचरी थी।
ऋतुराज वसन्त ऋतु सा मनोरम नव-पल्लवों से किसलित नव से तरुण नव-बौरों से सुवासित ज्ञान का असीम कोष ज्ञानदेवि माँ सरस्वती की सरस मधुर, अमृत प्रदायिनी धाराओं की सहस्र-सहस्र धारायें सहज ही प्रवाहित हो रही हैं गुरु देवपाणि की वाणी में, माँ का उड़ता हिमगिरि सा पवित्र आँचल सैकड़ों उन्नत शिखाओं सा असीम-एक अणु की दया दृष्टि को आतुर पपीहे की पिऊ-पिऊ रट में गहन आकंठा तीव्र उत्कंठा वरद्-हस्त की आकांक्षा, चातक सा तृषित कल-कल, छल-छल अमृत सा मृदु स्वर फूट पड़ा-हे वीणा-पाणि माँ वर दे। वर दे, ज्ञान की पिपासा कभी मिटे नहीं, अमृत की धारा कभी रुके नहीं, नित तेरी श्रृद्धा में पूजा का थाल सजाता रहूँ, नव-अनवेषणों, नव गन्वेषणों के नव-कुसुम कुसुमित होते रहें, उस अक्षुण्ण भंडार का अभेद्य रहस्य तिरोहित होता रहे, सूर्य का प्रकाश विस्तीर्ण कर तमदूर करो। हे दयालु माँ वात्सल्य का ममतामयी आंचल फैला इस शिशु को कृतार्थ करो—विनयी, त्यागी, सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति पर सहज ही माँ की कृपा हो जाती है और वीणा, के एक-एक तार झंकृत हो उठते हैं प्रकृत के सूक्ष्म सत्य उजागर होने लगते हैं।
तम को विलीन कर प्रकाशपुंज का आविर्भाव कराने वाले गुरु के प्रति शिष्यों का अगाध आदर-भाव सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है। जीवन को सहेजने संवारने वाले गुरु ही तो सर्वस्य हैं, अन्यथा मानव क्या है ? मिट्टी का एक पुतला मात्र। उसमें भावनाओं की असीम गंगा लहरी तो वही बहाता है। मैं और मेरे का भेद तो वही मिटाता है। सर्व-धर्म सम्-भाव तो वही सिखाता है। सहिष्णुता का पाठ तो वही पढ़ाता है। सबसे प्रेम, घृणा किसी से भी नहीं का गुरु-मंत्र तो गुरु से ही प्राप्त होता है। जन-जन में, कण-कण में ईश्वरीय सत्ता का सत्य तो वही दिखाता है।
पवित्र तपोभूमि सी वह ज्ञान की स्थली, जहाँ पर सद्भावों का समावेश स्वतः ही हो जाता था तक्षशिला के इस विद्याधाम में सुदूर देशों से विद्या अर्जन करने आते थे विद्यार्थीगण। सैकड़ों, योजन फैला, प्रकृति की सुरम्य क्रोड़ में स्थित विश्व-विद्यालय के प्राकृतिक वातावरण में विद्या अर्जन करते थे शिष्यगण। प्रकृति की सहचरी थी।
ऋतुराज वसन्त ऋतु सा मनोरम नव-पल्लवों से किसलित नव से तरुण नव-बौरों से सुवासित ज्ञान का असीम कोष ज्ञानदेवि माँ सरस्वती की सरस मधुर, अमृत प्रदायिनी धाराओं की सहस्र-सहस्र धारायें सहज ही प्रवाहित हो रही हैं गुरु देवपाणि की वाणी में, माँ का उड़ता हिमगिरि सा पवित्र आँचल सैकड़ों उन्नत शिखाओं सा असीम-एक अणु की दया दृष्टि को आतुर पपीहे की पिऊ-पिऊ रट में गहन आकंठा तीव्र उत्कंठा वरद्-हस्त की आकांक्षा, चातक सा तृषित कल-कल, छल-छल अमृत सा मृदु स्वर फूट पड़ा-हे वीणा-पाणि माँ वर दे। वर दे, ज्ञान की पिपासा कभी मिटे नहीं, अमृत की धारा कभी रुके नहीं, नित तेरी श्रृद्धा में पूजा का थाल सजाता रहूँ, नव-अनवेषणों, नव गन्वेषणों के नव-कुसुम कुसुमित होते रहें, उस अक्षुण्ण भंडार का अभेद्य रहस्य तिरोहित होता रहे, सूर्य का प्रकाश विस्तीर्ण कर तमदूर करो। हे दयालु माँ वात्सल्य का ममतामयी आंचल फैला इस शिशु को कृतार्थ करो—विनयी, त्यागी, सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति पर सहज ही माँ की कृपा हो जाती है और वीणा, के एक-एक तार झंकृत हो उठते हैं प्रकृत के सूक्ष्म सत्य उजागर होने लगते हैं।
तम को विलीन कर प्रकाशपुंज का आविर्भाव कराने वाले गुरु के प्रति शिष्यों का अगाध आदर-भाव सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है। जीवन को सहेजने संवारने वाले गुरु ही तो सर्वस्य हैं, अन्यथा मानव क्या है ? मिट्टी का एक पुतला मात्र। उसमें भावनाओं की असीम गंगा लहरी तो वही बहाता है। मैं और मेरे का भेद तो वही मिटाता है। सर्व-धर्म सम्-भाव तो वही सिखाता है। सहिष्णुता का पाठ तो वही पढ़ाता है। सबसे प्रेम, घृणा किसी से भी नहीं का गुरु-मंत्र तो गुरु से ही प्राप्त होता है। जन-जन में, कण-कण में ईश्वरीय सत्ता का सत्य तो वही दिखाता है।
सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्ति कश्चिद् मा फलेषु।।
सर्वे भद्राणि पश्यन्ति कश्चिद् मा फलेषु।।
बुद्धि-पथ को हृदय पक्ष से जोड़ने का ज्ञान वही देता है। जहाँ पर इन दोनों
के तार टूट जाते हैं वहाँ पर सम्पूर्ण मानवता ही छिन्न-भिन्न हो जाती है।
सरसता और कठोरता साथ-साथ ही चलें तभी तो सन्तुलन है। आत्मा की आवाज सदैव
ही सत्य होती है, मस्तिष्क के करोड़ों सूक्ष्म तारों में उलझ कर बहुधा यह
आवाज मूक हो जाती है—उस मूक वाणी को शब्द देती है गुरु की वाणी।
आविष्कार में विनाश न छिपा हो। मस्तिष्क के इस आविष्कार को हृदय का
कोमल-भावपक्ष ही तो सुन्दर बनाता है। भाव-पक्ष यदि गौण हो गया तो आपा-धापी
की भगदड़ में सम्पूर्ण मानवता ही कुचल कर रह जायेगी। मरुभूमि सी तृषित की
तृषित रह जायेगी यह धरती, फिर प्रेम के पुष्प कहां पुष्पित हो पायेंगे,
कोयल की कुहू-कुहू, पपीहे की पिऊ-पिऊ सब खो जायेगी-तब तो जीवन ऐसे जलेगा
जिसका न कोई आदि होगा और न ही कोई अन्त।
* * *
विष्णुशर्मा......विष्णुशर्मा शिशिर-ऋतु की कृष्ण पक्षीय निशा में सन्नाटे
को भेदती ध्वनि।
हड़बड़ा कर उठ बैठा, तन को श्वेत धोती से लपेटता, निकट ही रखे ताम्र लोटे के शीतल जल के छींटों से निद्र देवि को दूर भगाता गम्भीर गिरा में प्रति उत्तर दिया—आज्ञा गुरुदेव
मद्धिम-मद्धिम जलते दीपक की लौ को उद्दीप्त कर झोपड़ी के पट खोल विष्णु शर्मा बाहर आया। गुरु देवपाणि सम्मुख खड़े थे—झुककर चरण स्पर्श किये- ज्ञानवान हो-वरद हस्त फेरा गुरुदेवपाणि ने।
चलो—आज्ञा दी गुरु ने और पलटकर चल दिये अपनी कुटिया की ओर। उस गहन रात्रि में दीपशिखा की भाँति गुरुदेव का अनुगमन करता हुआ विष्णु शर्मा भी पीछे-पीछे चल पड़ा।
हड़बड़ा कर उठ बैठा, तन को श्वेत धोती से लपेटता, निकट ही रखे ताम्र लोटे के शीतल जल के छींटों से निद्र देवि को दूर भगाता गम्भीर गिरा में प्रति उत्तर दिया—आज्ञा गुरुदेव
मद्धिम-मद्धिम जलते दीपक की लौ को उद्दीप्त कर झोपड़ी के पट खोल विष्णु शर्मा बाहर आया। गुरु देवपाणि सम्मुख खड़े थे—झुककर चरण स्पर्श किये- ज्ञानवान हो-वरद हस्त फेरा गुरुदेवपाणि ने।
चलो—आज्ञा दी गुरु ने और पलटकर चल दिये अपनी कुटिया की ओर। उस गहन रात्रि में दीपशिखा की भाँति गुरुदेव का अनुगमन करता हुआ विष्णु शर्मा भी पीछे-पीछे चल पड़ा।
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