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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


उसके फाटक बंद करके लौटते-लौटते दो ट्रक, एक कार और एक स्कूटर दाहिने वाले फाटक पर पहुंचे चुके थे। कार वाला ही सबसे पहले पहुंचा था। उसने उसे फाटक बंद करते देखकर हार्न भी बजाया। परंतु उसने उसकी ओर कोई ध्यान दिए बिना फाटक बंद कर दिया। शुरू मे वह ऐसी स्थिति में प्रतीक्षा कर लिया करता था। परंतु दो-एक बार उसके ऐसा करने में और ट्रैफिक भी वहां पहुंच गया और तब उसे परेशानी हुई थी। वैसे भी कार वालों से उसे कुछ चिढ़-सी हो गई थी। एक मिनट रुकना भी वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे। गाड़ी निकल जाने के बाद यदि एक क्षण की देर भी उसे फाटक खोलने में होती, तो वे बिगड़ने लगते। खामख्वाह हार्न बजाने लगते। अक्सर वे गालियां भी बकने लगते। और कार वाले ही क्यों, मोटरसाइकिल या स्कूटर वाले भी कभी-कभी उससे उलझ जाते। शुरू-शुरू में उसने दो-एक बार उनसे झख भी लड़ाई। परंतु, पिछले काफी दिनों से उसने अपना स्वभाव बना लिया था कि कोई कुछ भी कहे, उसे ध्यान नहीं देना है। वह चुपचाप कुंजी लेकर जाता और फाटक बंद करके वापस चला आता। लोग बकते तो बकते रहते। पहले वह दक्षिण वाला फाटक बंद करता, तब उत्तर वाला। वैसे ऐसा करने के पीछे कोई विशेष कारण नहीं था। महज उसकी एक आदत-सी बन गई थी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि जब वह दक्षिण वाला फाटक बंद करता होता, तब तक उत्तर की ओर से कोई स्कूटर या मोटरसाइकिल वाला अंदर धुस आता। परंतु, उसने उन लोगों की ओर भी ध्यान देना बंद कर दिया। और जब-जब ऐसा होता, तब ऐसे दुस्साहसी लोगों के लिए अपना स्कूटर या मोटरसाइकिल लेकर गेट के अंदर ही एक ओर खड़ा रह कर गाड़ी निकल जाने की प्रतीक्षा करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। कोई कितनी ही खुशामद करे, या गाली दे, उसने अपना नियम बना लिया था-एक बार फाटक बंद करने के बाद तभी खोलता, जब गाड़ी निकल चुकी होती।

वैसे शुरू में यहां बहुत कम ट्रैफिक था। ट्रकों का तो आज से आठ-दस वर्ष पहले तक प्रश्न ही नहीं उठता था। कारें और स्कूटर भी कभी-कभी ही निकलते थे। हां, बैलगाड़ियां जरूर थीं उन दिनों। परंतु, जब से गंगा का नया पुल बना है, तब से सारी काया पलट गई है। सड़क की नए सिरे से मरम्मत हुई है और चौबीस घंटे उस पर ट्रैफिक चलने लगा है। अब यह सड़क गंगा के पुल को जी.टी रोड से जोड़ती है और इस मायने में एक महत्त्वपूर्ण मार्ग बन गई है। यही कारण है कि शहर ने अपने पंजे अब यहां तक फैला लिए हैं और धीरे-धीरे सारे गांव को अपने आधिपत्य में ले लिया है। अब यहां खेत, तालाब और खलिहानों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतें बन गईं हैं। स्कूल और पार्क बन गए है। एक अस्पताल भी बन गया है, तथा दो-एक सरकारी दफ्तर भी खुल गए हैं। पुराने जमींदार और किसान अपनी-अपनी जमीनें बेच कर जाने कहां चले गए हैं। बल्कि पुजारी जी भी पिछले दो-तीन महीनों से अब कहां है? अब तो केवल वह, उसकी यह गुमटी और फौलाद की ये पटरियां। इंजन और डिब्बे। माल और डाक गाड़ियां। दूर से ही आवाज सुन कर वह बता सकता है कि डाकगाड़ी है, पैसिंजर या माल। खलीक के इंजन की तो वह सीटी तक पहचानता है। खलीक की ही बदौलत उसे जूट और कोयला मिल जाता है। उसे इशारा करने भर की देर होती है। बस। दस-बीस किलो कोयला पटरी पर गिरा देना खलीक के लिए कौन बडी बात है! और जूट तो वह उसके कहे बिना ही फेंक जाता है।

आज से अट्ठारह-बीस बरस पहले जब वह यहां पहली बार आया था तो आसपास लगभग जंगल था। रात में नरकलों में सियार बोलते थे। कभी-कभी भेडिए भी नजर आ जाते थे। पास के गांव से बदल सनार की बकरी उठा कर भेड़िए ने उसकी गुमटी के पीछे ही खाई थी। रात के सन्नाटे में वह हड्डियों के चटखने की आवाज सुनता रहा था। सुबह वहां आधी खाई हुई बकरी मिली थी, जिसे दुखी चमार उठा ले गया था और घर में कलिया बनाया था। बदल तो भगत थे। गले में कंठी पहनते थे।

बदलू के घर पर ही उसने पहली बार चांद को देखा था। चांद यानी फजलू मनिहार की लड़की। गांव में तो वह पहले ही चक्कर लगाया करता था और पंचमसिंह के कोल्हू से गन्ने की फसल के दिनों के ढेरों रस पी आता था। गुड़ भी ले आता था वहां से। मगर जिस दिन बदलू की बकरी को भेड़िया उठा लाया था और सुबह आधी खाई हुई बकरी की लाश पर बदलू उसके सामने अपना सिर धुनता रहा था, उस दिन से उसका बदलू के यहां आना-जाना भी होने लगा था। अक्सर फुर्सत में वह बदलू के पास बैठकर उसे चांदी और सोने को गला कर जेवरों के आकार में ढालते देखा करता। उन दिनों गाड़ियां भी इतनी नहीं थीं। मालगाड़ियां तो नहीं के बराबर थीं। डाक भी कम ही थीं। इसीलिए दिन में उसे रोज ही दो-चार घंटे का समय घूमने-फिरने के लिए मिल जाता था।

तभी एक दिन जब वह बदलू के यहां बैठा था, तो चांद वहां आई थी। लहंगा और सलूका पहने। अल्हड़ और जवान। यह तो उसे बाद में पता चला कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है। उस समय तो उसे लगा था कि अभी उसकी शादी भी नहीं हुई। चांद बदलू के यहां अपने लच्छे गिरवी रखने आई थी। डेढ़ किलो के बीस लच्छे बदलू ने बीस रुपये में गिरवी रखे थे। चांद के चले जाने के बाद उसने बदलू से चांदी का भाव पूछा था, तो बदलू ने बताया था, डेढ़-दो सौ से कम नहीं होगा। पता नहीं क्यों, उसी दिन से उसके मन के किसी कोने में बदलू के प्रति घृणा पनप गई थी।

इसी के कुछ दिनों बाद उसने चांद को रेल की पटरी के पास कोयला बीनते देखा था और चांद उसे देखते ही बिना हुआ कोयला वहीं छोड़ कर भागने लगी थी। उसने चांद को आवाज देकर रोक लिया था और उसे कोयला ले जाने की अनुमति दे दी थी। बल्कि उसे गुमटी पर लाकर उसने अपने पास से भी कुछ कोयला दे दिया था। इस घटना के बाद से ही वह चांद के यहां आने-जाने लगा था। चांद, यानी फजलू के यहां। फजलू को वह 'काका' कहा करता था। वह दुबले शरीर के ढलती उम्र के आदमी थे। उनके छोटी, खिचड़ी दाढ़ी थी और प्रायः चारखाने की तहमद और पूरी आस्तीन की बंडी पहनते थे। अपने बाहर के बरामदे में फूस के छप्पर के नीचे बैठे अंगीठी में कोयला सुलगाए वह लाख की चूड़ियां बनाया करते। कभी गांव के दो-एक लड़के आ जाते तो उनके लिए गोलियां या फिर लड़कियों के लिए गुट्टे भी बना देते।

अब तो खैर उसे ठीक से याद नहीं कि यह सब कैसे हआ था परंतु, धीरे-धीरे वह चांद के निकट आता चला गया था। फजलू भी उसे अपने बेटे की तरह मानने लगे थे। बदलू के यहां बीस रुपए में गिरवी रखे चांद के लच्छे भी वह छुड़वा लाया था। चांद फजलू की अकेली लड़की थी। फजलू चाहते थे कि चांद दोबारा ब्याह कर ले। कभी-कभी वह उससे भी कहते कि वह चांद को इस बारे में समझाए। वह हंस कर टाल देता। चांद भी कभी-कभी उसके यहां आ जाती और घंटों वहीं बनी रहती। उसकी गुमटी के पीछे लगी साग-सब्जी में पानी देती रहती। उसकी अंगीठी सुलगा देती। उसे खाना बनाने में मदद कर देती। वह उसके बच्चे को गोद में लिए खिलाता रहता।

अक्सर सांझ ढले देर तक चांद उसके यहां रह जाती और वह उसे उसके घर तक छोड़ने जाता। परंतु गांव वालों को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इस पर आपत्ति करना शुरू कर दिया। पहले तो उन लोगों ने फजलू से कहा कि अपनी बेटी को रोके और जब फजलू इसमें कामयाब नहीं हुए या जान-बूझ कर उन्होंने इसके लिए कोई प्रयल नहीं किया, तो बात यहां तक बढ़ी कि एक दिन पंचायत जुड़ी इस बात पर। वैसे चांद उसके साथ हमेशा-हमेशा रहने के लिए तैयार थी, और उसे भी उन दिनों यही लगता था कि उसकी जिंदगी भी चांद के बिना अधूरी है। परंतु चांद से ब्याह करने की बात उन दिनों उसके मन में कभी आई ही नहीं। शायद इसलिए कि उनके बीच धर्म की दीवार जो थी। जो भी हो, मामला पंचायत में पहुंचा और पंचों ने फैसला दिया कि यह गांव की इज्जत का सवाल है। फजलू इस बारे में अंतिम निर्णय लें और यदि वह कुछ नहीं करते तो गांव छोड़कर चले जाएं।

आखिर फजलू ने निर्णय लिया और चांद की मर्जी के खिलाफ उसका ब्याह हबीब बिसाती से कर दिया, जिसकी उम्र पचास के आस-पास थी, और हबीब ने चांद को ले जाकर अपने घर में बंद कर दिया। बाकायदा ताला-कुंजी में।

उसे यह सब अच्छा नहीं लगा था। परंतु कहीं कुछ गलत हो रहा है, यह बात भी उसके मन में नहीं आई थी। तभी एक रात चांद ने आकर उसका दरवाजा खटखटाया। बच्चे को गोद में लिए हुए दरवाजा खुलते ही उसने कहा कि वह उसे लेकर कहीं चला जाए। उसके बिना वह जिंदगी जीना नहीं चाहती। और तब पहली बार उसे लगा कि कहीं कुछ बहुत गलत हो गया है। हालांकि कोई निर्णय वह फिर भी नहीं ले सका। रात भर चांद उसकी बाहों में सिसकती रही, बच्चा अलग चारपाई पर सोता रहा और उसका मन अनेक दुविधाओं के बीच भटकता रहा।

आखिर जब सुबह उसने दरवाजा खोला तो हबीब, फजलू के साथ, उसकी गुमटी के सामने खड़ा था। अगर चांद तुरंत हबीब के पैरों पर न गिर पड़ती और फजलू बीच में न आ जाते, तो वह दिन शायद उसकी जिंदगी का आखिरी दिन होता।

इसी के तीसरे या शायद चौथे दिन सुबह साढ़े पांच वाली डाक, जो उन दिनों शायद छह बजे निकलती थी, अचानक ब्रेक लगा कर रुक गई। गार्ड और कुछ मुसाफिर भी अपने डिब्बों से उतर आए। वह भी दौड़ा-दौड़ा गया तो देखा, पटरी पर चांद की लाश पड़ी थी। खून से लथपथ।

साढ़े पांच वाली डाक निकल गई तो उसने जाकर फाटक खोल दिया और लौटकर अपनी गुमटी के पीछे बनी सब्जी की क्यारियों में पानी देने लगा। आम के पेड़ पर कोयल कूकने लगी थी। यह पेड़ उसकी गुमटी के पास कूड़े के ढेर पर अपने आप उग आया था। बाद में उसने उसकी देखभाल करके उसे इतना बड़ा किया था। पहली बार उसमें फल आया तो हरी-हरी, छोटी-छोटी अमियां डालों से लटकने लगीं। उसका सारा दिन अमियों की रखवाली में निकल जाता। जरा-सा वह इधर-उधर हुआ नहीं कि आस-पास के लड़के आकर ढेलेबाजी करने लगते।

क्यारियों में पानी देकर वह फिर अपनी गुमटी में लौट आया और चारपाई बाहर निकाल कर उस पर बैठ कर बीड़ी पीने लगा। पश्चिम की तरफ सिग्नल की बत्ती बुझ गई थी। सूर्य निकल आया था और उसके उजाले में रेल की पटरियां दूर-दूर तक चमकने लगी थीं। बया अपने घोसलों से निकलकर अपने बच्चों को दाना चुगाने लगी थीं।

पूर्व की ओर बना नया पुल भी सूर्य के प्रकाश में चमक रहा था। यह पुल पिछले दो-तीन वर्षों में बनकर तैयार हुआ था। सैकड़ों मजदूर इस काम में लगे थे। परंतु, आज जब यह पुल बनकर तैयार हो गया था, वे मजदूर कहीं नहीं थे। शायद अब कहीं और किसी दूसरे पुल की तामीर में लगे होंगे, उसने सोचा।

इस पुल के बन जाने का अर्थ था कि अब उसकी गुमटी बंद कर दी जाएंगी। सड़क को पुल से जोड़ दिया गया था। और वह अब थोड़ी-सी घूम कर ऊपर से निकल जाएगी। अब ट्रैफिक को उसके फाटक पर रुकने की असुविधा नहीं उठानी होगी। पिछले कई महीनों में वह एक प्रकार से अपने दिन गिन रहा था। उसने सुना. था कि मंत्री. जी इस पुल का उद्घाटन करने आने वाले हैं। तभी उसने देखा, पानी छिड़कने वाला इंजन पुल के ऊपर बनी सड़क पर पानी का छिड़काव कर रहा था। अभी तक इस पुल के दोनों और सड़क पर कोलतार के ड्रम रख कर पुल का रास्ता बंद कर दिया गया था। पानी छिड़कने वाले इंजन के पुल पर आने के मायने थे, कम से कम एक ओर के ड्रम हटा दिए गए होंगे।

अंगीठी बुझने लगी थी। उसने उस में नए सिरे से कोयला डाला और दो-चार हाथ पंखे की हवा देकर पतीली में दाल डाल कर चढ़ा दी। दाल चढ़ाकर वह पीछे की ओर लगे हैंडपाइप पर नहाने चला गया। नहा कर उसने अपनी धोती निचोड़ी और उसे वहीं सब्जी की क्यारियों के पास घास पर ही फैला कर गुमटी में लौट आया। दाल में एक उबाल आ चुका था। वह दूसरे उबाल की प्रतीक्षा करने लगा। दूसरा उबाल आने पर उसने दाल उतार दी और चावल चढ़ा दिए। पीछे सब्जी की क्यारी से लौकी तोड़ कर, उसे काट कर एक बरतन में रखा और आटा निकाल कर तसले में गूंथने लगा।

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