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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


तीसरी सांस


मोबिल ऑयल में भीगे हुए जूट में उसने माचिस दिखाई तो वह गहरा काला धुआं छोड़ता हुआ जलने लगा। लकड़ियों को उसने पहले ही जालीदार आकार में सजा दिया था। अब वह कोयले के छोटे-बड़े ठीकरों से अंगीठी पर पिरामिड बनाने लगा। एक क्षण उसने उसमें पंखे से हवा दी, तब उसे उठाकर बरामदे के बाहर रख आया।

सामने फौलाद की पटरियां बिछी थीं, जो दोनों ओर दूर तक एक-दूसरे के समानांतर चली गई थीं। इन्हें वह रेल की आत्मा कहा करता था। पता नहीं, यह उपमा उसके दिमाग में कब और क्यों सूझी थी। उसने सुना था कि आत्मा अमर होती है। शरीर एक प्रकार से उसका वस्त्र होता है। जब वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जाता है तो आत्मा उसे त्याग देती है। इसी प्रकार ये रेल की पटरियां हैं। अपने स्थान पर मजबूती से बिछी हुई। अनेकानेक डिब्बे, इंजन तथा गाड़ियां इनके ऊपर से गुजरते रहते हैं। डिब्बे टूटते-बदलते रहते हैं। इंजन भी मरम्मत के लिए जाते रहते हैं। परंत पटरियां अपने स्थान पर निश्चिंत लेटी रहती हैं। अगर ये न हों तो सब कुछ बिखर जाए। एक क्षण में रेलवे का सारा खेल धराशायी हो जाए।

हल्का-हल्का धुंधलका अभी भी आसमान में था। चार-साढ़े चार का समय होगा, उसने अनुमान लगाया, और लोटे में पानी लेकर सिग्नल की ओर चल दिया। सिग्नल की लाल बत्ती दूर से चमक रही थी। सवा पांच की डाक निकलने के कुछ देर बाद तक यह जलती रहती है। वह पटरी के किनारे-किनारे चलने लगा।

पटरी के किनारे लगे नरकुलों में हवा सीटी बजा रही थी। खजूर के पेड़ में बया के घोंसले लटक रहे थे। आज से दो-तीन वर्ष पहले कुल जमा एक घोंसला था। उसके देखते-देखते एक से पांच हो गए। अगर एक चिड़िया मर जाती है तो क्या दूसरी उसमें रहने लगती है या वह खाली पड़ा रहता है? उसने मन-ही-मन सोचा, परंतु बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे आगे बढ़ गया।

गड्ढों का पानी लगभग सूख गया था। इस बार फिर बरसात को देर हो गई थी। लगता है फिर सूखा पड़ेगा, उसने सोचा। पूरा कलयुग आ गया है। न पहले जैसी बरसात होती है, न जाड़ा, न गर्मी। असाढ़ लगभग समाप्त होने को आया, मगर पानी का कहीं नाम नहीं।

पटरी फलांग कर वह मंदिर की ओर आ गया जिधर अब भी कुछ झाड़-झंखाड़ शेष थे। आज फिर मंदिर की दीवार पर उल्लू बैठा था। यह साला कहां से आ गया? उसने मन-ही-मन उसे गाली दी ओर झुककर पटरी की बगल से एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर उसकी ओर फेंका। उल्लू दीवार पर से उड़कर सिग्नल पर जा बैठा।

पुजारी भी अजीब आदमी हैं! महीने भर के लिए कह गए थे और आज तीन महीने से ऊपर हो गए, उनका कहीं नाम-निशान नहीं। शुरू में वह उनके कहे अनुसार सुबह-शाम दोनों वक्त मंदिर में जाकर आरती-पूजा करता था। भगवान का भोग लगाता था। केवल एक महीने के लिए वह कह गए थे, जिस पर दो-ढाई महीनों तक वह ऐसा करता रहा। आखिर जब पुजारी नहीं लौटे, तो उसने आरती-पूजा बंद कर दी। उसके बस का यह सब होता, तो वह रेलवे का कैबिनमैन क्यों होता? किसी मंदिर में पूजारी होता और सुबह-शाम भगवान की आरती-पूजा करके दिन भर मौज में दंड पेलता। हां, शाम को भगवान की मूर्ति के पास दीया वह अभी भी जला आता है।

लगता है पुजारी ने इस बार अच्छी आमदनी कर ली है। तभी इतने दिन लगा रहे हैं गांव में। शादी-ब्याह, रामलीला आदि में उनका हाथी चलता ही था, चुनाव में भी उसकी कोई उपयोगिता हो सकती है, यह पुजारी जी ने भी नहीं सोचा था। बात यह थी कि पिछले चुनाव में कोई राधेश्याम वैद्य खड़े हुए थे। उनका चुनाव निशान हाथी था। पूरे एक महीने के लिए उन्होंने पुजारी जी का हाथी बुक करा लिया था। पुजारी जी सुबह-सुबह हाथी लेकर निकल जाते और रात देर से लौटते। उन दिनों भी वही मंदिर में आरती पूजा करता था। और अगर वह न होता तो क्या पुजारी जी हाथी का धंधा छोड़कर पूजा में लगे रहते? पेट की पूजा से बढ़कर और भी कोई पूजा होती है? तभी तो लोग कहते हैं-'भूखे भजन न होय गोपाला। उसे अपनी ही बात पर हंसी आई। आखिर जब पेट-पूजा ही सबसे बड़ी पूजा है, तो लोग यह सब ढोंग क्यों करते हैं? शायद यह भी पेट-पूजा का एक तरीका हो। खैर, राधेश्याम जी की तो जमानत जब्त हो गई। परंतु पुजारी जी ने अच्छी रकम बना ली। तभी उसके बाद एक दिन वह हाथी पर सवार होकर अपने गांव चले गए। जाते तो खैर वह हर वर्ष थे। परंतु इस बार कुछ ज्यादा ही समय लगा गए।

पुजारी जी जब यहां थे, तो उसका समय अच्छा कट जाया करता था। शाम को तो नित्य प्रति ही, और वैसे भी जब कभी दिन में उसे समय मिलता, पुजारी जी के पास जाकर बैठ जाता। वह उसे ज्ञान की बातें बताते थे। श्रीमद्भागवत की कथाएं सुनाते थे, कि किस प्रकार राजा परीक्षित के मुकुट में कलयुग आ कर बैठ गया था, जो अभी तक बैठा हुआ है। या किस प्रकार भगवान ने गज को ग्राह के मुख से बचा लिया। या इसी प्रकार की अन्य पौराणिक कथाएं कि किस प्रकार इंद्र ने छल करके अहिल्या का सतीत्व भंग किया और गौतम ऋषि के शाप से वह पत्थर बन गई। अहिल्या तो बिल्कुल निर्दोष थी, वह कभी-कभी सोचता, फिर उसे क्यों सजा मिली? फिर वह टाल जाता। ऋषियों-मुनियों का मामला, वही जानें। उसको क्या करना!

जब तक वह दिशा-मैदान से लौट कर आया, तब तक अंगीठी पूरी तरह सुलग चकी थी। उसने मिट्टी से हाथ मले और लोटा मांज कर उसी में चाय के लिए पानी डाल कर अंगीठी पर चढ़ा दिया। पानी चढ़ा कर वह अंदर जाकर चाय और गुड़ का डिब्बा उठा लाया। गुड़ तोड़ कर उसे भी उसने लोटे में डाल दिया और पानी उबलने की प्रतिक्षा करने लगा। पानी उबल गया तो उसने उसमें चाय की पत्ती डाली और गिलास में छान कर पीने बैठ गया। चाय पी रहा था, तभी साढ़े पांच वाली डाक का सिग्नल आ गया। उसने चाय वहीं रख दी और बोर्ड से कुंजी लेकर फाटक बंद करने चला गया।

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