कविता संग्रह >> बसन्त के एकान्त जिले में बसन्त के एकान्त जिले मेंसच्चिदानन्द राउतराय
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राउतराय के सम्पूर्ण-काव्य लेखन में उनके परामर्श और सहयोग से चुनी गयी अधिक महत्त्वपूर्ण कविताओं का हिन्दी रूपान्तर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सची राउतराय 1947 के आसपास निनादित होने वाले आधुनिक कविता के वाद्यवृन्द
के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्वर हैं। लगभग छह दशकों से वह कविता, कहानियाँ
और साहित्यिक आलोचनाएँ अविराम लिखते आ रहे हैं। उन्होंने एक साहित्यिक
पत्रिका का सम्पादन भी किया है और साहित्यिक संस्थाओं में भी वह सक्रिय
रहे हैं। उन्होंने रोमानी कविताएँ लिखी हैं और प्रगतिशील भी, साथ ही
उन्होंने विचारों और भावों को व्यवस्थित करने की दुर्लभ क्षमता प्रदर्शित
करने वाली कतिपय उत्कृष्ट अधिमानसिक कविताएँ भी रची हैं। इस प्रकार उनकी
कविता चार दशकों की आधुनिक उड़िया कविता में फैली हुई है और वह इसके
महत्त्वपूर्ण तथा प्रवर्तक स्वरों में से रहे हैं।
शुरू-शुरू में सची राउतराय पर जिन साहित्यकारों का प्रभाव पड़ा उनमें मायकोव्स्की प्रमुख हैं। अपनी एक प्रारम्भिक कविता में उन्होंने दावा भी किया है कि ‘न तो वह टैगोर हैं और न शैले।’ ‘‘जब आप मेरी पुस्तक का स्पर्श करते हैं, आप मनुष्य के हृदय का स्पर्श करते हैं।’’ अपनी ‘अभिजान’ नामक एक कविता में उन्होंने लिखा है-
शुरू-शुरू में सची राउतराय पर जिन साहित्यकारों का प्रभाव पड़ा उनमें मायकोव्स्की प्रमुख हैं। अपनी एक प्रारम्भिक कविता में उन्होंने दावा भी किया है कि ‘न तो वह टैगोर हैं और न शैले।’ ‘‘जब आप मेरी पुस्तक का स्पर्श करते हैं, आप मनुष्य के हृदय का स्पर्श करते हैं।’’ अपनी ‘अभिजान’ नामक एक कविता में उन्होंने लिखा है-
मैं श्रमिकों का कवि खड़ा हूँ
लिये हाथ में कलम हथियार की तरह
स्वप्न देखता उस दिन का
जब मनुष्य लौटेगा बली-बेदी से
जागेगा स्वतन्त्रता की भोर में
और एक नया लाल सूरज
तथा मेरे कवि की कलम
करेगी हस्ताक्षर-
‘मनुष्य मनुष्य के लिए’ के अधिकार-पत्र पर।
लिये हाथ में कलम हथियार की तरह
स्वप्न देखता उस दिन का
जब मनुष्य लौटेगा बली-बेदी से
जागेगा स्वतन्त्रता की भोर में
और एक नया लाल सूरज
तथा मेरे कवि की कलम
करेगी हस्ताक्षर-
‘मनुष्य मनुष्य के लिए’ के अधिकार-पत्र पर।
1947 में सची राउतराय का काव्य-संकलन ‘पाण्डुलिपि’
प्रकाश में आया। तब तक राधानाथ के समय से लेकर उड़िया-काव्य के मुख्य पक्ष
ऐतिहासिक व इतिवृत्तात्मक और रोमानी तथा भावुकतामय थे। कहीं-कहीं
क्रान्तिकारिता भी थी किन्तु वह भी रोमानी परम्परा के एक अंग के रूप में।
सरोला, बलराम, जगन्नाथ की ठोस क्लासिकी विशिष्टताएँ और गोपालकृष्ण, बनमाली
आदि की लोकोन्मुखी शैली और गीतात्मकता कहीं परिलक्षित न थीं। इस भाव्यवेश,
रोमानी परिकल्पनाओं और विवादस्पद नारों की रूखी-सूखी व्यंग वाग्मिता में
व्यंग्य की क्षीण धारा अदृश्यप्राय ही थी। निःसन्देह
‘पाण्डुलिपि’ ने इसमें निश्चित रूप से विषय-वस्तु
जोड़ी। भाषा रोमानी होते हुए भी एक नयेपन का सूत्रपात हुआ।
तमाम राजनीतिक अतिशयता और लम्बी-चौड़ी डींगों, घोषणाओं और भाषणबाजी के बावजूद ‘पाण्डुलिपि’ की ‘प्रतिमानायक’ और ‘चौथे दशक के पार’ जैसी कविताओं में विषय-वस्तु की आधुनिकता प्रतिष्ठापित हुई। उदाहरणतः ‘प्रतिमानायक’ जीवन को उत्कण्ठापूर्वक निहारते हुए समय के प्रति सजग व्यक्ति की अन्तर्निहित वेदना को उजागर करती है। ‘प्रतिमानायक’ द्वितीय महायुद्धोत्तर नारी है। उसके भीतर अब भी छिपी हुई है शाश्वत नारी-गरिमामयी और गीतिमय, किन्तु उसका परिधान लहराता हुआ सिल्क-साटन नहीं है। वह सिलवट-भरे खाकी कपड़े पहने है और कष्टप्रद निश्चय से छटपटाती उसकी आकृति कठोर एवं आडम्बरहीन है। वह पहले वाली रमणीय नारी, कविता में श्रृंगारिक कल्पनाओं की प्रेरक, रोमानी प्रेमिका नहीं है। मुख्य पात्र उससे मिलता है-मिलन-स्थल नरसंहार तथा रक्तपात के दृश्य के आसपास कहीं, स्वप्न कटु यथार्थ के स्पर्श से विलुप्त हो गये हैं और अब वह मृत्यु तथा विध्वंस के छितराये भू-दृश्य का लगभग एक भाग ही बन चुकी है। ‘चौथे दशक के पार’ कविता की विषय-वस्तु भी लगभग ऐसी ही है।
राउतराय ने विविध प्रकार के काव्य-शिल्पों और प्रक्रियाओं में प्रयोग किये हैं। प्रारम्भ में वह रोमानी क्रान्तिकारी रहे। बाद में उनकी कविता में समकालीन परिवेश में व्यक्ति के विकृत होने और उसके हनन की गहरी अनूभूति है। साथ ही समय बीतने की कष्टकारी चेतना से उपजा मनस्ताप भी है। ‘नदी को एक दरवाजा’ जैसी एक कविता में नदी अकस्मात् गृहोन्मुख समय की छाया बन जाती हैः
तमाम राजनीतिक अतिशयता और लम्बी-चौड़ी डींगों, घोषणाओं और भाषणबाजी के बावजूद ‘पाण्डुलिपि’ की ‘प्रतिमानायक’ और ‘चौथे दशक के पार’ जैसी कविताओं में विषय-वस्तु की आधुनिकता प्रतिष्ठापित हुई। उदाहरणतः ‘प्रतिमानायक’ जीवन को उत्कण्ठापूर्वक निहारते हुए समय के प्रति सजग व्यक्ति की अन्तर्निहित वेदना को उजागर करती है। ‘प्रतिमानायक’ द्वितीय महायुद्धोत्तर नारी है। उसके भीतर अब भी छिपी हुई है शाश्वत नारी-गरिमामयी और गीतिमय, किन्तु उसका परिधान लहराता हुआ सिल्क-साटन नहीं है। वह सिलवट-भरे खाकी कपड़े पहने है और कष्टप्रद निश्चय से छटपटाती उसकी आकृति कठोर एवं आडम्बरहीन है। वह पहले वाली रमणीय नारी, कविता में श्रृंगारिक कल्पनाओं की प्रेरक, रोमानी प्रेमिका नहीं है। मुख्य पात्र उससे मिलता है-मिलन-स्थल नरसंहार तथा रक्तपात के दृश्य के आसपास कहीं, स्वप्न कटु यथार्थ के स्पर्श से विलुप्त हो गये हैं और अब वह मृत्यु तथा विध्वंस के छितराये भू-दृश्य का लगभग एक भाग ही बन चुकी है। ‘चौथे दशक के पार’ कविता की विषय-वस्तु भी लगभग ऐसी ही है।
राउतराय ने विविध प्रकार के काव्य-शिल्पों और प्रक्रियाओं में प्रयोग किये हैं। प्रारम्भ में वह रोमानी क्रान्तिकारी रहे। बाद में उनकी कविता में समकालीन परिवेश में व्यक्ति के विकृत होने और उसके हनन की गहरी अनूभूति है। साथ ही समय बीतने की कष्टकारी चेतना से उपजा मनस्ताप भी है। ‘नदी को एक दरवाजा’ जैसी एक कविता में नदी अकस्मात् गृहोन्मुख समय की छाया बन जाती हैः
पुल निर्मल दीखता है, कोई अकेला राहगीर
भोर को जोड़ देता है अस्त-व्यस्त दिन के बदन से,
कहाँ है नदी ? क्या नदी नहीं है ?
लगता है, यह नदी घर लौटते समय की उल्टी छाया है
जोड़ा है जिसने मुझे
उस केन्द्रीय प्रतिमा से।
भोर को जोड़ देता है अस्त-व्यस्त दिन के बदन से,
कहाँ है नदी ? क्या नदी नहीं है ?
लगता है, यह नदी घर लौटते समय की उल्टी छाया है
जोड़ा है जिसने मुझे
उस केन्द्रीय प्रतिमा से।
या फिर ‘या देवी’ जैसी कविता में, जिसमें दुर्गा
सामान्य नारी का प्रतीक हैः (सम्भवतः ‘प्रतिमानायक’
और ‘आलोक सान्याल’ में भी यही बात है।)
मुझसे वह प्रेम करती है हत्या की दृष्टि से,
हत्या करती प्रेम के कक्ष में
गुप्त सीढ़ी पर अथवा विस्मृत मैदान में।
वह तो देवी है, उपासना के छल से
मुझे वास्तव में आत्मसात् करती है,
पलक-दर-पलक-
नाटक के प्रत्येक अंक में।
हत्या करती प्रेम के कक्ष में
गुप्त सीढ़ी पर अथवा विस्मृत मैदान में।
वह तो देवी है, उपासना के छल से
मुझे वास्तव में आत्मसात् करती है,
पलक-दर-पलक-
नाटक के प्रत्येक अंक में।
इस क्रान्तिकारी आवेश के साथ-साथ राउतराय में ग्राम्य जीवन की लयात्मकता
और उसके बहुमुखी सौन्दर्य से परिचय तथा उनके प्रति गहरी जागरूकता है। डॉ.
मनीषा ने अपने ‘उड़िया साहित्य के इतिहास’ में उनकी
कविता ‘पल्लीश्री’ की प्रशंसा ठीक ही की है।
‘स्वगत (1958)’, ‘कविता-1962’, ‘कविता-1969’, ‘कविता-1971’ और ‘कविता-1974’-इन पाँच संग्रहों में लगभग 279 कविताएँ हैं और यद्यपि अधिकतर कविताओं में कवि की रोमानी मुद्रा और प्रगतिशील विचार-धारा यथापूर्व चली आयी है तथापि अनेक कविताएँ ऐसी भी हैं जो स्वाद और समझ में नवीनता दर्शाती हैं। विशेषतः बोलचाल की संवादात्मक लय के प्रति उनकी सूक्ष्म ग्रहण-शीलता, साथ ही आंचलिक मुहावरों का प्रयोग करने की उनकी क्षमता इन कविताओं में निश्चित रूप से परिलक्षित होती है। इस प्रकार ‘स्वगत’ में संकलित ‘चिट्ठी’ का शिल्प-तन्त्र, शब्दावली और सांकेतिकता दोनों के ही रोमानी हैं। एक पत्र की प्राप्ति और उस पत्र का सम्भावित उत्तर कवि में ऐसी स्मृतियाँ भाव जाग्रत कर देते हैं जो उसे भिन्न-भिन्न करती मधुमक्खियों और दुग्ध-धवल हंसों, दूरस्थ नदी व वन, साथ ही मौन तालाब और धान के खेतों में से भटकते हुए बहते झरने तक खींच ले जाते हैं। किन्तु ‘कविता-1962’ में संकलित स्मृतिलेख’ में एक पत्र के सन्दर्भ का प्रयोग काल और स्थान की समझ की परतों के अन्वेषण के प्रतीक-रूप में किया गया है। इन साहचर्य-भावों का विस्तार कालिदास के दशाण से लेकर कलकत्ते की चौरंगी और आस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न तक है, यह एक गहरे तीव्र शरीर-सुख (‘‘उसका स्पर्श/उसके बदन की गन्ध/और उसका पिघला हर्ष’’) से प्रारम्भ होकर शान्त प्रसन्नता की एक आश्चर्यजनक प्रतीति तक जा पहुँचता है जहाँ दशाण तथा मेलबॉर्न एकाकार हो जाते हैं। (‘‘याद आती है, अति दूर/फल-भरे जामुन-वन की छाया/वह मेरा दशाण/ग्राम है/नाम है/मेलबोर्नय/मेरी प्रिय नगरी/।)
इसी प्रकार कविता ‘आश्विन, 1958’ एक स्तर पर तो एक प्रकृति-कविता है क्योंकि उसमें आश्विनगत अनेक प्राकृतिक उपादानों के उल्लेख हैं, किन्तु एक अन्य स्तर पर यह कीट्स की कविता ‘आटॅम’ के समान समृद्ध एवं फलवती है जो जीवन को उसी प्रकार सँभालती है जैसे कि एक माँ अपने बच्चे के जीवन को। अन्ततः एक गहनतर स्तर पर यह कवि की सूक्ष्म चेतना से अनुस्यूत है जिसमें से हर्ष और आनन्द उमँगते हैं। कविता के अन्त में पतझड़ का स्वागत होता है। इसमें कई भावनाएँ एक साथ निहित हैं-एक तो सुहावनी ऋतु का आना, दूसरे जैसे किसी मनभावन मित्र की वापसी, लेकिन अन्ततः यह व्यक्ति की अपनी ही हर्षविभोर आत्मा की अद्भुत प्रतीति है जब अन्धकारमयी वस्तुएँ उजली खुशी के सामने बिल्कुल भूल-सी जाती हैं।
‘स्वगत (1958)’, ‘कविता-1962’, ‘कविता-1969’, ‘कविता-1971’ और ‘कविता-1974’-इन पाँच संग्रहों में लगभग 279 कविताएँ हैं और यद्यपि अधिकतर कविताओं में कवि की रोमानी मुद्रा और प्रगतिशील विचार-धारा यथापूर्व चली आयी है तथापि अनेक कविताएँ ऐसी भी हैं जो स्वाद और समझ में नवीनता दर्शाती हैं। विशेषतः बोलचाल की संवादात्मक लय के प्रति उनकी सूक्ष्म ग्रहण-शीलता, साथ ही आंचलिक मुहावरों का प्रयोग करने की उनकी क्षमता इन कविताओं में निश्चित रूप से परिलक्षित होती है। इस प्रकार ‘स्वगत’ में संकलित ‘चिट्ठी’ का शिल्प-तन्त्र, शब्दावली और सांकेतिकता दोनों के ही रोमानी हैं। एक पत्र की प्राप्ति और उस पत्र का सम्भावित उत्तर कवि में ऐसी स्मृतियाँ भाव जाग्रत कर देते हैं जो उसे भिन्न-भिन्न करती मधुमक्खियों और दुग्ध-धवल हंसों, दूरस्थ नदी व वन, साथ ही मौन तालाब और धान के खेतों में से भटकते हुए बहते झरने तक खींच ले जाते हैं। किन्तु ‘कविता-1962’ में संकलित स्मृतिलेख’ में एक पत्र के सन्दर्भ का प्रयोग काल और स्थान की समझ की परतों के अन्वेषण के प्रतीक-रूप में किया गया है। इन साहचर्य-भावों का विस्तार कालिदास के दशाण से लेकर कलकत्ते की चौरंगी और आस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न तक है, यह एक गहरे तीव्र शरीर-सुख (‘‘उसका स्पर्श/उसके बदन की गन्ध/और उसका पिघला हर्ष’’) से प्रारम्भ होकर शान्त प्रसन्नता की एक आश्चर्यजनक प्रतीति तक जा पहुँचता है जहाँ दशाण तथा मेलबॉर्न एकाकार हो जाते हैं। (‘‘याद आती है, अति दूर/फल-भरे जामुन-वन की छाया/वह मेरा दशाण/ग्राम है/नाम है/मेलबोर्नय/मेरी प्रिय नगरी/।)
इसी प्रकार कविता ‘आश्विन, 1958’ एक स्तर पर तो एक प्रकृति-कविता है क्योंकि उसमें आश्विनगत अनेक प्राकृतिक उपादानों के उल्लेख हैं, किन्तु एक अन्य स्तर पर यह कीट्स की कविता ‘आटॅम’ के समान समृद्ध एवं फलवती है जो जीवन को उसी प्रकार सँभालती है जैसे कि एक माँ अपने बच्चे के जीवन को। अन्ततः एक गहनतर स्तर पर यह कवि की सूक्ष्म चेतना से अनुस्यूत है जिसमें से हर्ष और आनन्द उमँगते हैं। कविता के अन्त में पतझड़ का स्वागत होता है। इसमें कई भावनाएँ एक साथ निहित हैं-एक तो सुहावनी ऋतु का आना, दूसरे जैसे किसी मनभावन मित्र की वापसी, लेकिन अन्ततः यह व्यक्ति की अपनी ही हर्षविभोर आत्मा की अद्भुत प्रतीति है जब अन्धकारमयी वस्तुएँ उजली खुशी के सामने बिल्कुल भूल-सी जाती हैं।
आश्विन को बुलाओ, आश्विन को बैठाओ, बरामदे में आराम-कुर्सी पर।
नारंगी कोटने के पत्ते पर, लता-गृह में या नदी-किनारे।
यहाँ की दीवार पर, यहाँ के आकाश में, यहाँ के शहर गाँव में
मैं देखता हूँ छलछलायी, ढुलढुल अगणित नीले शैशव में।
आश्विन को बुलाओ, आश्विन को लिवा लाओ आनन्द के, चेतना के घर।
अक्षत रंग के बादल, सफेद हंसों के झुण्ड, सफेद जुही
उसको प्रतिध्वनित करती है।।
नारंगी कोटने के पत्ते पर, लता-गृह में या नदी-किनारे।
यहाँ की दीवार पर, यहाँ के आकाश में, यहाँ के शहर गाँव में
मैं देखता हूँ छलछलायी, ढुलढुल अगणित नीले शैशव में।
आश्विन को बुलाओ, आश्विन को लिवा लाओ आनन्द के, चेतना के घर।
अक्षत रंग के बादल, सफेद हंसों के झुण्ड, सफेद जुही
उसको प्रतिध्वनित करती है।।
मस्तिष्क की यह अधिमानसिक आदत वहाँ भी देखी जा सकती है जहाँ सन्दर्भ
प्रकृति अथवा उसके समान वस्तुओं के नहीं, हेयरपिन अथवा स्कूटर जैसी
सामान्य वस्तुओं के हैं। ‘कविता-1971’ में संकलित
कविता ‘हेयरपिन’ का प्रारम्भ एक खोये हुए हेयरपिन की
घर-भर में ढूँढ़ के साथ होता है। (‘‘मैं ढ़ूँढ़ नहीं
सका उसे/कहाँ है तुम्हारा हेयरपिन’’) धीरे-धीरे यह
खोज अन्य क्षेत्रों-दूरस्थ होटलों, नदी-किनारों, समुद्र-तटों, साथ ही
अँधेरे की परतों, चाँदनी की तेजी और अन्ततः काल के सीढ़ी चढ़ते क़दमों,
दूरस्थ अतीत और दूरस्थ भविष्य तक जा पहुँचती है। आखिरकार हेयरपिन यौवनमन
जीवन का प्रतीक बन जाता है, (तुम्हारी वेणियाँ, सुन्दर और सघन/और तुम्हारे
वक्ष के गुम्बद) जिसका खोना नग्नता, रीतेपन और मृत्यु की दहला देने वाला
चित्र प्रस्तुत करता है इसी प्रकार ‘कविता-1971’ में
ही संकलित एक अन्य कविता ‘लाल स्कूटर’ नाटकीय ढंग से
एक स्कूटर की गति के उल्लेख के साथ शुरू होती है, किन्तु एक अमूर्त्त,
अपरिचित परिस्थिति में, जहाँ स्कूटर रीतेपन से होकर एक तलहीन रसातल की ओर
दौड़ता है, जिसमें डूबकर सब चीजों का अन्त हो जाता है। किन्तु सबसे पहले
तो पाठक को यह याद दिलाया जाता है कि यह गति समय में है और अतीत के जुड़
जानें से वर्तमान एक परिचित परिस्थिति बन गया है शहर की सड़कों पर से होते
हुए जहाँ आप एक पिकनिक के लिए स्कूटर पर जा रहे हैं
(‘‘वहाँ भोजन है और पेय/और सेंडविच के पैकेट/और एक
सैलानी और सरायों की एक सूची’’) किन्तु एक अन्य स्तर
पर गति अनस्तित्व और अस्तित्व की ओर है, कम महत्त्वपूर्ण से अधिक
महत्त्वपूर्ण की ओर, और सर्वनाश का बिन्दु बोध का चरम बिन्दु बन जाता है।
(‘‘शून्य से उभरती है ध्वनि/और स्कूटर दौड़ता है
अनस्तित्व हीन से अस्तित्व की ओर/स्पर्श करता हुआ, नीले शहरों के
तले’’) एक अन्य अर्थ में सम्भवतः वहाँ गति है ही
नहीं, स्कूटर चलता ही नहीं। (सम्भवतः वह कभी चला ही नहीं। समय की नदी के
आर-पार।) फिर भी अस्तित्व स्वयं कर्म का द्योतक है, और कर्म कर्म की ओर ले
जाता है, जैसे कारण परिणाम की ओर, सर्वनाश के अन्तिम बिन्दु तक जिसके लिए
मुख्य पात्र तरसता रहता है। कुल मिलाकर स्वच्छन्दतावाद और वामपन्थी
प्रगतिवाद की मजबूत बुनियाद, जो उनके काव्य-सृजन में शक्ति शाली तत्त्व
रहे हैं, पर उभरे राउतराय कई अवसरों पर भाषा और कल्पना में एक अधिमानसिक
सघनता की ओर अग्रसर हुए और कहीं वह स्वतन्त्रता के पश्चात् नई कविता के
उदय के प्रवर्तक स्वर बने।
राउतराय की कविता की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता उसकी संरचनात्मक विशिष्टता और उपयुक्त बिम्ब के प्रयोग की क्षमता है। उनकी कविताएँ उत्कृष्ट शिल्प के नमूने हैं और उनमें अनुप्रयुक्तता अथवा एक संगठित भावोत्तेजक रूप-विधान की संरचना की अक्षमता कहीं नहीं पायी जाती है। उनकी भाषा सामान्यतः रोजमर्रा की साँस लेती हुई जीवन्त बोलचाल की लय की साझेदार हो जाती है।
‘कविता: 1969’ सची राउतराय की 67 कविताओं का संकलन है। इसमें सोलह पृष्ठों की भूमिका है। कविताएँ तीन खण्डों में विभक्त हैं जिनके शीर्षक हैं-‘दृश्य’, ‘समकालीन चेतना’ तथा अन्य कविताएँ। वस्तुतः खण्डों के ये शीर्षक कविताओं के सम्बन्ध में अधिक नहीं बताते। यह चयनिका कटक के एक अज्ञात, गुमनाम रिक्शा-चालक भजनी को समर्पित है। भजनी ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ में निरूपित उन दो चरित्रों का विलोम है जिनके लिए एक पर्णविहीन मृतप्राय वृक्ष के निकट खड़े रहने के कारण कहीं कुछ घटित नहीं होता। भजनी को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़तीं । उसे अपनी सवारियाँ जल्दी मिल जाती हैं: स्कूल जाते बच्चे, अदालत जाते वकील, अस्पताल जाते रोगी या परिचारिकाएँ अथवा कोई भयाकान्त लेखक तक। भजनी नारे लगाता है, राजनीतिक जुलूसों में शामिल होता है, बारातों में अपने सिर पर गैस के हण्डे लेकर चलता है, अपने एक पड़ोसी की लड़की के साथ मैटिनी शो देखता है। ‘‘वह कुछ न कुछ करता ही रहता है’’, कवि का कहना है। वह एक ठण्डे सूरज के निःश्वासों में निस्तेज नहीं होता रहता । वह अघटना, कष्टदायक चुप्पी, निरर्थक शब्दों का शाश्वत आभा-मण्डल नहीं है।
भजनी का दिमाग़ अभी सही-सलामत है। उसकी मांस-पेशियाँ पुष्ट हैं। अपना गमछा सिर पर पगड़ी की तरह लपेटे वह तेज़-तेज़ पेडल मारता है। अँधेरा होने पर पुलिस वाले के सामने पड़ जाने पर वह रूककर अपने रिक्शे की बत्ती जलाने लगता है। वह अपने अँधेरे कमरे में सोता है और कुछ सपने भी देखता है। कवि प्रश्न करता हैः
‘क्या रिक्शा वाला यह कविता समझेगा’ और उत्तर देता है-‘‘आख़िरकार समझा ही कौन है ? क्या वे नेता, मन्त्री, न्यायाधीश, उपकुलपति, देशभक्त, प्रेमिकाएँ-जिनके लिए इतनी सारी कविताएँ लिखी गयी हैं ?’’
सची इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं: यदि भजनी भी न समझता तो इससे अन्तर क्या पड़ता ! समर्पण कुछ रेचक-जैसा तो है किन्तु यह कवि के बैकेट-विरोधी रुझान को प्रकट करता है और उनकी इस मान्यता को बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है कि सृजनात्मक कला अपनी आवश्यक सामाजिक प्रासंगिकता से वंचित नहीं रहनी चहिए। यह बात सची राउतराय ने पाँचवें दशक के प्रारम्भ में अपने प्रथम महत्त्वपूर्ण काव्य-संकलन ‘पाण्डुलिपि’ में कही है।
प्रथम खण्ड की 27 कविताएँ कवि के इस दृष्टिकोण को और भी रेखांकित करती हैं । इस खण्ड की कविताएँ अपने सामाजिक सरोकार मूलभूत मानव-संवेगों से कविता की रोमानी सूत्रबद्धता के प्रति सचेतता और अन्यथा शत्रुतापूर्ण एवं संवेदन हीन जगत् में प्रेम, स्वप्न और सुख की सम्भावना के लिहाज से मुखर हैं। उसमें ‘नदी को एक दरवाजा’ जैसी अधिमानसिक कविताएँ हैं, जहाँ क्षणभंगुर समय शाश्वतता का एक विपर्यस्त बिम्ब बन जाता है। एक कविता है ‘द्रौपदी की साड़ी’ जो लगभग डी. एच. लॉरेंस के अन्दाज़ में मृत्यु और काम को बड़ी सुन्दरता से एकान्वित कर देती है। एक और रोमानी कविता है, ‘या देवी’ जिसमें दुर्गा शाश्वत नारी बन जाती है, जो प्यार करती है, पोषण करती है, आपूर्ति करती है और ध्वंश करती है।
29 कविताओं वाला दूसरा खण्ड घटना, व्यक्ति अथवा अवसर-विशेषों पर केन्द्रित है। एक कविता नेहरू पर है, एक गांधी पर , एक लालबहादुर शास्त्री पर, एक लेनिन पर, एक कविता एक आन्दोलन में मारे गये एक छात्र-नेता पर, एक उड़ीसा के समाजवादी नेता सारंग-धर दाश पर। इसमें ‘आइक1 और ताजमहल’, ‘जलियाँवाला बाग़’, ‘बर्लिन’, ‘भारत और सोवियत क्रान्ति’ आदि पर कविताएँ हैं। कभी-कभी उनसे घटनात्मकता की गन्ध आती है, किन्तु मुहावरे पर कवि की पकड़ और परिपक्व संरचनात्मक सूक्ष्मता का अभाव कहीं नहीं खटकता। तीसरे खण्ड में ग्यारह कविताएँ हैं जिनमें एक काव्य-नाटक ‘सीता-चोरी’ भी सम्मिलित है। काब्य-नाटक में श्रीराम, कवि सची राउतराय, जटायु और नन्दी के स्वर हैं। यह काव्य-नाटक मानस-चरित्र का सार-सम्बन्धी एक केन्द्रीय प्रसंग उठाता है और शिव और अशिव के मध्य द्वन्द्व के रूप में महाकाव्य के सुगम प्रणयन को चुनौती देता है।
उसमें अनेक समसामयिक परिस्थितियों और चरित्रों का समावेश है जो महाकाव्य की कथा में और मूल्य-व्यवस्था में नये आयाम जोड़ देते हैं।
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1. अमरीका के भू. पू. राष्ट्रपति जनरल आइजन हावर।
‘कविता 1969’ का प्रकाशन सची राउतराय की साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत पुस्तक ‘कविता: 1962’ के छपने के आठ वर्ष पश्चात् (1970) में हुआ था। कवि के अनुसार इसमें इस अवधि में रचित समस्त कविताएँ संकलित हैं। ये दोनों पुस्तकें संयुक्त रूप से एक सूक्ष्म संवेदना मुहावरे, की पक्की पकड़ और एक सुकुमार शिल्पगत विशिष्टता अभिव्यक्त करती है। यह एक ऐसे कवि का परिपक्व और उल्लेखनीय प्रकाशन है जिसकी गणना भारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में होती है।
एक कवि के रूप में राउतराय एक लम्बी यात्रा तय कर आये है। वह निःसन्देह एक प्रमुख भारतीय कवि हैं और निश्चित रूप से आधुनिक उड़िया-कविता के प्रवर्तकों में से हैं। चौथा और पाँचवाँ दशक प्रगतिशील कविता का दौर रहा है। और राउतराय उसके एक प्रमुख स्वर रहे हैं। किन्तु उनकी इस अवधि की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना ‘बाजी राउत’ है, जो भूतपूर्व राजाओं की रियासत धेनकनाल की निरंकुशता की गोली के शिकार एक नौजवान लड़के के विषय में लिखा गया शोकगीत है। हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने इस कविता तथा कतिपय अन्य कविताओं का ‘दि बोटमैन बॉय एण्ड 40 अदर पोएम्स’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद किया था जिसका बड़ा अच्छा स्वागत हुआ। इन कविताओं में विपन्न व्यक्ति, उसके अभावों तथा कष्टों और निर्मम नियति को समर्पित संवेदनशील कविताओं के बतौर ख्याति अर्जित की। इन कविताओं में क्रान्तिकारी आवेश भी साँसें ले रहा है।
यही वह सरोकार है जिसे ‘कोणार्क’ कविता में स्वयं को भिन्न रूप से व्यक्त करती है जहाँ कवि मन्दिर को एक उच्चकोटि की सौन्दर्यपरक अभिव्यंजना के रूप में नहीं, बल्कि भग्न हृदयों और लाखों कंकालों के एक ढेर के रूप में देखता है। उसका मन्तव्य है कि कविता और कला में अपनी आदिम भव्यता के दौर में मनुष्य और उसके श्रम या प्रकृति की अभिव्यक्ति न देकर, शिल्पकृतियों और कलाओं को अभिव्यक्ति दी है जो प्रायः जनसाधारण के शोषण द्वारा रची गयी थीं।
राधानाथ के बाद आधुनिक उड़िया-कविता की संभवतः सर्वाधिक खटकने वाली कमी एक बौद्धिक तत्त्व की लगभग पूर्णतः अनुपस्थिति रही है। जिसका निराकरण आवश्यक था। यह भी नितान्त सम्भव है कि कतिपय आधुनिक कविताओं में अतिबौद्धिकता की प्रवृत्ति रही है।
किन्तु यह तो स्वयंसिद्ध ही है कि कविता को सदैव एक बौद्धिक संरचना की आवश्यकता पड़ती है, जो कि रोबर्ट कॉन्क्वेस्ट के शब्दों में, ‘‘अधिक मूल्यवान तभी होती जब इसे मानवता, व्यंग्य, तीव्र भावावेग अथवा समझदारी की दीप्ति दे दी जाये।
रूप-विधान के प्रति सारे सैद्धान्तिक विद्वेष मूलतः छद्म होते हैं। रूपविहीनता मात्र एक अन्य भंगिमा होती है और वह भी अस्थायी। समय बीतने पर सर्वाधिक अराजकतापूर्ण धरातल में भी व्यवस्था प्रकट होनी शुरू हो जाती है। साहित्यिक साधनों अर्थात् एक अनिवार्यतः औपचारिक प्रयास के द्वारा ही साहित्यिक रूपाकार का उच्छेदन स्थापित किया जा सकता है, किसी अन्य प्रकार से नहीं।
राउतराय के पास शिल्प-विधान तो था ही, वह उसे मानवता, व्यंग्य, तीव्र भावावेग और समझदारी की दीप्ति भी दे सके। प्रस्तुत हैं उनके सम्पूर्ण काव्य-लेखन में उनके परामर्श और सहयोग से चुनी गयी अधिक महत्त्वपूर्ण कविताओं के हिन्दी रूपान्तर। हमें पूरा विश्वास है इस संकलन में पाठकों को उनकी विविधता और गहनता की अच्छी-खासी झाँकी देखने को मिल सकेगी।
राउतराय की कविता की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता उसकी संरचनात्मक विशिष्टता और उपयुक्त बिम्ब के प्रयोग की क्षमता है। उनकी कविताएँ उत्कृष्ट शिल्प के नमूने हैं और उनमें अनुप्रयुक्तता अथवा एक संगठित भावोत्तेजक रूप-विधान की संरचना की अक्षमता कहीं नहीं पायी जाती है। उनकी भाषा सामान्यतः रोजमर्रा की साँस लेती हुई जीवन्त बोलचाल की लय की साझेदार हो जाती है।
‘कविता: 1969’ सची राउतराय की 67 कविताओं का संकलन है। इसमें सोलह पृष्ठों की भूमिका है। कविताएँ तीन खण्डों में विभक्त हैं जिनके शीर्षक हैं-‘दृश्य’, ‘समकालीन चेतना’ तथा अन्य कविताएँ। वस्तुतः खण्डों के ये शीर्षक कविताओं के सम्बन्ध में अधिक नहीं बताते। यह चयनिका कटक के एक अज्ञात, गुमनाम रिक्शा-चालक भजनी को समर्पित है। भजनी ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ में निरूपित उन दो चरित्रों का विलोम है जिनके लिए एक पर्णविहीन मृतप्राय वृक्ष के निकट खड़े रहने के कारण कहीं कुछ घटित नहीं होता। भजनी को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़तीं । उसे अपनी सवारियाँ जल्दी मिल जाती हैं: स्कूल जाते बच्चे, अदालत जाते वकील, अस्पताल जाते रोगी या परिचारिकाएँ अथवा कोई भयाकान्त लेखक तक। भजनी नारे लगाता है, राजनीतिक जुलूसों में शामिल होता है, बारातों में अपने सिर पर गैस के हण्डे लेकर चलता है, अपने एक पड़ोसी की लड़की के साथ मैटिनी शो देखता है। ‘‘वह कुछ न कुछ करता ही रहता है’’, कवि का कहना है। वह एक ठण्डे सूरज के निःश्वासों में निस्तेज नहीं होता रहता । वह अघटना, कष्टदायक चुप्पी, निरर्थक शब्दों का शाश्वत आभा-मण्डल नहीं है।
भजनी का दिमाग़ अभी सही-सलामत है। उसकी मांस-पेशियाँ पुष्ट हैं। अपना गमछा सिर पर पगड़ी की तरह लपेटे वह तेज़-तेज़ पेडल मारता है। अँधेरा होने पर पुलिस वाले के सामने पड़ जाने पर वह रूककर अपने रिक्शे की बत्ती जलाने लगता है। वह अपने अँधेरे कमरे में सोता है और कुछ सपने भी देखता है। कवि प्रश्न करता हैः
‘क्या रिक्शा वाला यह कविता समझेगा’ और उत्तर देता है-‘‘आख़िरकार समझा ही कौन है ? क्या वे नेता, मन्त्री, न्यायाधीश, उपकुलपति, देशभक्त, प्रेमिकाएँ-जिनके लिए इतनी सारी कविताएँ लिखी गयी हैं ?’’
सची इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं: यदि भजनी भी न समझता तो इससे अन्तर क्या पड़ता ! समर्पण कुछ रेचक-जैसा तो है किन्तु यह कवि के बैकेट-विरोधी रुझान को प्रकट करता है और उनकी इस मान्यता को बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है कि सृजनात्मक कला अपनी आवश्यक सामाजिक प्रासंगिकता से वंचित नहीं रहनी चहिए। यह बात सची राउतराय ने पाँचवें दशक के प्रारम्भ में अपने प्रथम महत्त्वपूर्ण काव्य-संकलन ‘पाण्डुलिपि’ में कही है।
प्रथम खण्ड की 27 कविताएँ कवि के इस दृष्टिकोण को और भी रेखांकित करती हैं । इस खण्ड की कविताएँ अपने सामाजिक सरोकार मूलभूत मानव-संवेगों से कविता की रोमानी सूत्रबद्धता के प्रति सचेतता और अन्यथा शत्रुतापूर्ण एवं संवेदन हीन जगत् में प्रेम, स्वप्न और सुख की सम्भावना के लिहाज से मुखर हैं। उसमें ‘नदी को एक दरवाजा’ जैसी अधिमानसिक कविताएँ हैं, जहाँ क्षणभंगुर समय शाश्वतता का एक विपर्यस्त बिम्ब बन जाता है। एक कविता है ‘द्रौपदी की साड़ी’ जो लगभग डी. एच. लॉरेंस के अन्दाज़ में मृत्यु और काम को बड़ी सुन्दरता से एकान्वित कर देती है। एक और रोमानी कविता है, ‘या देवी’ जिसमें दुर्गा शाश्वत नारी बन जाती है, जो प्यार करती है, पोषण करती है, आपूर्ति करती है और ध्वंश करती है।
29 कविताओं वाला दूसरा खण्ड घटना, व्यक्ति अथवा अवसर-विशेषों पर केन्द्रित है। एक कविता नेहरू पर है, एक गांधी पर , एक लालबहादुर शास्त्री पर, एक लेनिन पर, एक कविता एक आन्दोलन में मारे गये एक छात्र-नेता पर, एक उड़ीसा के समाजवादी नेता सारंग-धर दाश पर। इसमें ‘आइक1 और ताजमहल’, ‘जलियाँवाला बाग़’, ‘बर्लिन’, ‘भारत और सोवियत क्रान्ति’ आदि पर कविताएँ हैं। कभी-कभी उनसे घटनात्मकता की गन्ध आती है, किन्तु मुहावरे पर कवि की पकड़ और परिपक्व संरचनात्मक सूक्ष्मता का अभाव कहीं नहीं खटकता। तीसरे खण्ड में ग्यारह कविताएँ हैं जिनमें एक काव्य-नाटक ‘सीता-चोरी’ भी सम्मिलित है। काब्य-नाटक में श्रीराम, कवि सची राउतराय, जटायु और नन्दी के स्वर हैं। यह काव्य-नाटक मानस-चरित्र का सार-सम्बन्धी एक केन्द्रीय प्रसंग उठाता है और शिव और अशिव के मध्य द्वन्द्व के रूप में महाकाव्य के सुगम प्रणयन को चुनौती देता है।
उसमें अनेक समसामयिक परिस्थितियों और चरित्रों का समावेश है जो महाकाव्य की कथा में और मूल्य-व्यवस्था में नये आयाम जोड़ देते हैं।
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1. अमरीका के भू. पू. राष्ट्रपति जनरल आइजन हावर।
‘कविता 1969’ का प्रकाशन सची राउतराय की साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत पुस्तक ‘कविता: 1962’ के छपने के आठ वर्ष पश्चात् (1970) में हुआ था। कवि के अनुसार इसमें इस अवधि में रचित समस्त कविताएँ संकलित हैं। ये दोनों पुस्तकें संयुक्त रूप से एक सूक्ष्म संवेदना मुहावरे, की पक्की पकड़ और एक सुकुमार शिल्पगत विशिष्टता अभिव्यक्त करती है। यह एक ऐसे कवि का परिपक्व और उल्लेखनीय प्रकाशन है जिसकी गणना भारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में होती है।
एक कवि के रूप में राउतराय एक लम्बी यात्रा तय कर आये है। वह निःसन्देह एक प्रमुख भारतीय कवि हैं और निश्चित रूप से आधुनिक उड़िया-कविता के प्रवर्तकों में से हैं। चौथा और पाँचवाँ दशक प्रगतिशील कविता का दौर रहा है। और राउतराय उसके एक प्रमुख स्वर रहे हैं। किन्तु उनकी इस अवधि की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना ‘बाजी राउत’ है, जो भूतपूर्व राजाओं की रियासत धेनकनाल की निरंकुशता की गोली के शिकार एक नौजवान लड़के के विषय में लिखा गया शोकगीत है। हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने इस कविता तथा कतिपय अन्य कविताओं का ‘दि बोटमैन बॉय एण्ड 40 अदर पोएम्स’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद किया था जिसका बड़ा अच्छा स्वागत हुआ। इन कविताओं में विपन्न व्यक्ति, उसके अभावों तथा कष्टों और निर्मम नियति को समर्पित संवेदनशील कविताओं के बतौर ख्याति अर्जित की। इन कविताओं में क्रान्तिकारी आवेश भी साँसें ले रहा है।
यही वह सरोकार है जिसे ‘कोणार्क’ कविता में स्वयं को भिन्न रूप से व्यक्त करती है जहाँ कवि मन्दिर को एक उच्चकोटि की सौन्दर्यपरक अभिव्यंजना के रूप में नहीं, बल्कि भग्न हृदयों और लाखों कंकालों के एक ढेर के रूप में देखता है। उसका मन्तव्य है कि कविता और कला में अपनी आदिम भव्यता के दौर में मनुष्य और उसके श्रम या प्रकृति की अभिव्यक्ति न देकर, शिल्पकृतियों और कलाओं को अभिव्यक्ति दी है जो प्रायः जनसाधारण के शोषण द्वारा रची गयी थीं।
राधानाथ के बाद आधुनिक उड़िया-कविता की संभवतः सर्वाधिक खटकने वाली कमी एक बौद्धिक तत्त्व की लगभग पूर्णतः अनुपस्थिति रही है। जिसका निराकरण आवश्यक था। यह भी नितान्त सम्भव है कि कतिपय आधुनिक कविताओं में अतिबौद्धिकता की प्रवृत्ति रही है।
किन्तु यह तो स्वयंसिद्ध ही है कि कविता को सदैव एक बौद्धिक संरचना की आवश्यकता पड़ती है, जो कि रोबर्ट कॉन्क्वेस्ट के शब्दों में, ‘‘अधिक मूल्यवान तभी होती जब इसे मानवता, व्यंग्य, तीव्र भावावेग अथवा समझदारी की दीप्ति दे दी जाये।
रूप-विधान के प्रति सारे सैद्धान्तिक विद्वेष मूलतः छद्म होते हैं। रूपविहीनता मात्र एक अन्य भंगिमा होती है और वह भी अस्थायी। समय बीतने पर सर्वाधिक अराजकतापूर्ण धरातल में भी व्यवस्था प्रकट होनी शुरू हो जाती है। साहित्यिक साधनों अर्थात् एक अनिवार्यतः औपचारिक प्रयास के द्वारा ही साहित्यिक रूपाकार का उच्छेदन स्थापित किया जा सकता है, किसी अन्य प्रकार से नहीं।
राउतराय के पास शिल्प-विधान तो था ही, वह उसे मानवता, व्यंग्य, तीव्र भावावेग और समझदारी की दीप्ति भी दे सके। प्रस्तुत हैं उनके सम्पूर्ण काव्य-लेखन में उनके परामर्श और सहयोग से चुनी गयी अधिक महत्त्वपूर्ण कविताओं के हिन्दी रूपान्तर। हमें पूरा विश्वास है इस संकलन में पाठकों को उनकी विविधता और गहनता की अच्छी-खासी झाँकी देखने को मिल सकेगी।
प्रस्तुति
भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा भारतीय साहित्य में एक सेतु की सक्रिय भूमिका
निभाई है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही है ।
भारतीय भाषाओं में से चुने हुए किसी एक शीर्षस्थ साहित्यकार को प्रतिवर्ष
दिए जाने वाले पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य के
मापदण्ड स्थापित करता है। ज्ञानपीठ इन चुने हुए साहित्यकारों की कालजयी
कृतियों का हिंदी (और कभी-कभी अन्य भाषाओं में भी) अनुवाद पुरस्कार की
स्थापना के समय से ही साहित्यानुरागियों को समर्पित करता आ रहा है। इसके
अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के अन्य साहित्य मनीषियों का हिन्दी अनुवाद के
माध्यम से उनकी भाषायी सीमाओं के बाहर परिचय कराके ज्ञानपीठ एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय उत्तरदायित्व निभा रहा है। इस साहित्यिक अनुष्ठान
को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए ज्ञानपीठ ने अब विभिन्न साहित्यिक विधाओं
की उत्कृष्ट कृतियों की श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रकाशित करने का कार्यक्रम
सुनियोजित किया है। प्रत्येक विद्या के सभी अग्रणी लेखकों की कृतियाँ व
संकलन इस योजना में सम्मिलित करने का विचार है। हमारा अनुभव है कि किसी भी
साहित्यिक (या अन्य भी) रचना का हिंदी में अनुवाद हो जाने पर उसका अन्य
भाषाओं में अनुवाद सुविधाजनक हो जाता है। कविता और कहानी की इन श्रृंखलाओं
के बाद शीघ्र ही अन्य श्रृंखलाएं साहित्य-जगत को प्रस्तुत करने के लिए हम
प्रयत्नशील हैं। इन श्रृंखलाओं की उपयोगिता को दृष्टि में रखते हुए कुछ
पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों को भी इसमें सम्मिलित किया है और आगे भी ऐसा
विचार है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के नए और नवोदित लेखकों को उनकी
भाषा परिधि के बाहर लाने में भी हम सक्रिय हैं। देश के सभी भागों के
साहित्यकारों ने हमारे प्रयत्नों का जिस प्रकार स्वागत किया है और सहयोग
सन दिया है उससे हम अभिभूत हैं। हमारा विश्वास है कि यह सब प्रयत्न आधुनिक
भारतीय साहित्य की मूल संवेदना उजागर करने में सार्थक होंगे।
इस कार्य में ज्ञानपीठ के सभी अधिकारियों से समय-समय पर मुझे जो परामर्श और सहयोग मिलता रहता है। उसके लिए बिना आभार व्यक्त किए नहीं रह सकता। समय-बद्ध प्रकाशन की व्यवस्था, भागदौड़ व अन्य काम-काज का भार उठाया है नेमिचन्द्र जैन, चक्रेश जैन, दिनेश कुमार भटनागर व सुधा पाण्डेय ने। अपने इन सहयोगियों का मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। उनके अथक परिश्रम के बिना यह कार्य कब पूरा होता यह कहना कठिन है।
इस पुस्तक की इतनी सुरूचिपूर्ण साज सज्जा और मुद्रण के लिए मैं शकुन प्रिंटर्स के अंबुज जैन और कलाकार पुष्पकणा मुखर्जी का आभारी हूँ।
इस कार्य में ज्ञानपीठ के सभी अधिकारियों से समय-समय पर मुझे जो परामर्श और सहयोग मिलता रहता है। उसके लिए बिना आभार व्यक्त किए नहीं रह सकता। समय-बद्ध प्रकाशन की व्यवस्था, भागदौड़ व अन्य काम-काज का भार उठाया है नेमिचन्द्र जैन, चक्रेश जैन, दिनेश कुमार भटनागर व सुधा पाण्डेय ने। अपने इन सहयोगियों का मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। उनके अथक परिश्रम के बिना यह कार्य कब पूरा होता यह कहना कठिन है।
इस पुस्तक की इतनी सुरूचिपूर्ण साज सज्जा और मुद्रण के लिए मैं शकुन प्रिंटर्स के अंबुज जैन और कलाकार पुष्पकणा मुखर्जी का आभारी हूँ।
पद्म भूक्
आकाश में भीषण आँधी, इन्द्र के मेघ भर रहे हुँकार,
हाथी दाँत से बना तेरा सपने का भव्य मीनार
ढह जाता है कवि।
फूलों की फसल में आज टिड्डा दल गा रहे भैरवी।
कमल भोज के देश में प्रवाल के मुलायम तोरण तले,
लगी हैं नमक की लहरें, पद्म भूक् तेरे कविता वन में,
नहीं चाहता आज वह प्रकाश
नीली नदी के बालूचर में मिस्त्र का मृत इतिहास।
श्रावंती की नीली भौंहें, द्राविड़ की प्रसिद्ध नीलिमा।
नहीं गढ़ते बदन ढलकर मुलायम आसमानी प्रतिमा।
सारा कुछ टूट जाता है.....
सरीसृप सपने के प्रासाद भू-कंप से !
बुझता है दिन...अँधकार,...उनींदे टैक्सीवाले के मन में
इस बस्ती की गणिका के अनुर्वर निष्फल सपनों में....
रात्रि की निर्जन आत्मा अवतरित होती है एकांत वीराने में
कहाँ है रास्ता, आज कहाँ है रास्ता ?
सुदूर इस्पात कारखाना सिर्फ़ जमुहाई लेता है !
वातास खाँसती है दूर रहकर क्षयरोगी-सी....
पुकारते हैं लाखों शीर्णकण्ठ ‘‘जागो-जागो, रात बीत चुकी ।’’
कहो-कहो, हे रुद्र आह्वानी !
शहर की तलहटी की रूग्ण मुरझायी उषा पुकारती है...
‘‘जागो पलायनवादी, नष्टपंख हे मूक मैनाक !
जागो आत्म-विभोरी !
घृण्य इस नृत्य का वेश दूर फेंक जागो वृहन्नला,
अपना परिचय धारण किए रहो जैस निशानी,
अज्ञातवास का पर्व शेष हुआ,
लोहे का संगीत सुनो, धान की सीढ़ियाँ गाँव की
कोयले की गँध आती है, इस इस्पात नगरी के द्वार पर-
मिट्टी की गेरूई राह बुझ जाती है; सूर्य के गर्भ में
नूतन जीवन खिल रहा खून, पसीने, आँसू और साँसों में,
जागो महाकवि
इस महाजाति के ललाट पर, हे सावन के रक्त पुष्प1 !
हाथी दाँत से बना तेरा सपने का भव्य मीनार
ढह जाता है कवि।
फूलों की फसल में आज टिड्डा दल गा रहे भैरवी।
कमल भोज के देश में प्रवाल के मुलायम तोरण तले,
लगी हैं नमक की लहरें, पद्म भूक् तेरे कविता वन में,
नहीं चाहता आज वह प्रकाश
नीली नदी के बालूचर में मिस्त्र का मृत इतिहास।
श्रावंती की नीली भौंहें, द्राविड़ की प्रसिद्ध नीलिमा।
नहीं गढ़ते बदन ढलकर मुलायम आसमानी प्रतिमा।
सारा कुछ टूट जाता है.....
सरीसृप सपने के प्रासाद भू-कंप से !
बुझता है दिन...अँधकार,...उनींदे टैक्सीवाले के मन में
इस बस्ती की गणिका के अनुर्वर निष्फल सपनों में....
रात्रि की निर्जन आत्मा अवतरित होती है एकांत वीराने में
कहाँ है रास्ता, आज कहाँ है रास्ता ?
सुदूर इस्पात कारखाना सिर्फ़ जमुहाई लेता है !
वातास खाँसती है दूर रहकर क्षयरोगी-सी....
पुकारते हैं लाखों शीर्णकण्ठ ‘‘जागो-जागो, रात बीत चुकी ।’’
कहो-कहो, हे रुद्र आह्वानी !
शहर की तलहटी की रूग्ण मुरझायी उषा पुकारती है...
‘‘जागो पलायनवादी, नष्टपंख हे मूक मैनाक !
जागो आत्म-विभोरी !
घृण्य इस नृत्य का वेश दूर फेंक जागो वृहन्नला,
अपना परिचय धारण किए रहो जैस निशानी,
अज्ञातवास का पर्व शेष हुआ,
लोहे का संगीत सुनो, धान की सीढ़ियाँ गाँव की
कोयले की गँध आती है, इस इस्पात नगरी के द्वार पर-
मिट्टी की गेरूई राह बुझ जाती है; सूर्य के गर्भ में
नूतन जीवन खिल रहा खून, पसीने, आँसू और साँसों में,
जागो महाकवि
इस महाजाति के ललाट पर, हे सावन के रक्त पुष्प1 !
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