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अँधारुआ

सच्चिदानन्द राउतराय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1988
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1314
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह...

Andharua

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इनमें अधिकतर कहानियाँ श्रमिक कृषक तथा अन्य पिछड़े वर्गों के संघर्षों अभावों और उत्पीड़नों के बारे में है जो समसामयिक जीवन की विद्रूपता और विकृतियों पर तीखा व्यंग्य करती है। उनका साहित्य एक क्षयी सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध मानव-अधिकारों का एक आक्रोशी घोषणा-पत्र है। वह मानव गरिमा और भय-मुक्ति के मन्त्रदाता हैं।

मशान का फूल

पोड़ा बसन्त शासन (ब्राह्मणों का गाँव) का जगू तिवाड़ी का कीर्तन करने, मृदंग बजाने, गाँजा पीने और मुरदे फूँकने, मुरदों को कन्धा देने वालों के रूप में इस इलाक़े में खूब नाम है।
मुरदा जब चिता पर सें-सें करता है या उसकी टाँग ताव खाकर ऊँची हो जाती है, अथवा पेट की अंतड़ियाँ जलकर उनसे पानी रिसता है तो आग नहीं सुलगती, तब और मालभाई (शव-वाहक) जगू की ओर देखते, उसकी सलाह लेते।
गाँजे के नशे में लापरवाही से जगू कुछ दूर बैठा होता। ऊँघते हुए हड़बड़ा कर खड़ा होता, और फिर अरथी में से कोई तीन हाथ बाँस खींच लेता, ‘‘मार...ले...दे...’’ कहके मुरदे पर तीन-चार चोट कर देता।

मुरदे का सिर चूर-चूर हो जाता, या फिर दही निकलकर थोड़ी जगह की आग दब जाती। उठी हुई टाँग लाठी की चोट से मुड़ जाती और गिर पड़ती काठ के बीच। पेट फटकर चौड़ा हो जाता, और अंतड़ियों में जीभ लपलपाती आग घुस जाती। देखते-देखते सब कुछ जल-भुन कर राख हो जाता।
घुटने भर राख, छाज, बुहारी, हण्डी, ठीकरे और फटे-पुराने चीथड़ों-भरा मशानपदा (शमशान-क्षेत्र)। नख, बाल, हड्डियों के छोटे-बड़े टुकड़े, इधर-उधर की गंदगी।
जगू तिवाड़ी मजे से घर लौट आता। पोखर के घाट पर तेल लगाते-लगाते जाँघ पर थाप मार आराम से कहता, ‘‘ठाकुर जी की दया से काम ठीक-ठीक निपट गया।’’

गाँव में जब हैजा-फैजा होता, माता निकलती- मुरदे ढेर के ढेर हो जाते। जगू तिवाड़ी की ख़ातिर तब बढ़ जाती गाँव में। सब आकर उसकी खुशामद करते। कोई आँख से आँसू बहाता, कोई टेंट से पैसे निकालता, कोई ठोड़ी छूकर कहता- ‘‘भैया...बाबू...!’’ जगू तिवाड़ी गंभीर होकर सबके निहोरे सुनता। जवाब में तुरंत कुछ नहीं कहता।
‘‘कल रात से मुरदा घर में पडा़ है, बासी होने आया !’’1
‘‘बहू घर में कब से मरी पड़ी है एक कोने में...’’
तरह-तरह के निहारे जगू से किये जाते।

जगू अपने प्राप्य के बारे में किसी के आगे कोई लिहाज नहीं करता। तोलाभर गाँजा, डली भर अफीम, चवन्नी टेंट में ठूँसे बिना नहीं जाता। इसके अलावा चावल की गठरी, घाट पर नयी धोती, दस घर न्यौता आदि ऊपरी लाभ अलग होते।
सुहागन मरे तो जगू का लाभ कुछ अधिक होता, पैसेवाले हों तो कान के बाले, नाक का काँटा... और ग़रीब घर हो तो पाँव की मच्छी, चाँदी की अँगूठी जगू को दक्षिणा में मिल जाती। मुरदे को आग पर चढ़ाने से पहले उसकी देह टटोल-टटोलकर देख लेता-कहीं कोई गहना गाँठी है या नहीं, होता तो निकाल रख लेता। कभी-कभी मुरदे से नाक-फूल या कान की बाली सहज ही नहीं निकलती, जगू तिवाड़ी झुँझलाकर दाँत भींच लेता, खींच-तानकर गहना मुरदे की नाक से, कान से खींच लेता। नाक फट जाती। कान से ख़ून दिख जाता-नीला-नीला पनीला रस ! और चेहरा गीला हो जाता, मगर जगू की उधर कोई निगाह नहीं। यह तो रोज की आदत हो गयी, एक तरह की ऊपरी वृत्ति बन गयी है। इस तरह करते-करते वह पत्थर हो गया है।

पुख्ता मुरदा मिलने पर- चवन्नी टेंट में रखे बिना जगू अरथी को कन्धा नहीं देगा। अपने प्राप्य में मीन-मेख देखे तो कह देगा, ‘‘लाश बासी पड़ी रहेगी- मुझे कुछ कहना मत।’’ दूसरे मालभाइयों (शववाहकों) को भी सिखा-बुझाकर अड़ जाता।
रुपया मिल गया तो फिर ढोल की थाप के साथ-साथ क़दम डालता, ‘राम नाम सत्य है’ जोर से बोलता हुआ जगू तिवाड़ी ठाठ से आगे-आगे चलता। ग्रेनाइट पत्थर-सी स्याह देह पर सफ़ेद जनेऊ के तार दूर से चमचमाते दिखते...
उसकी ऊँची आवाज सारे गाँव में भर जाती। बस्ती भर के औरत-मरद आ जुटते वहाँ, छोटे-छोटे बच्चे जाकर छुप जाते घरों में।

मशान में धोबी ने नहरनी से गर्भवती औरत का पेट चीर बच्चा निकाल अलग कर दिया तो जगू तिवाड़ी दो चिता सुलगा माँ-बेटे दोनों को चितपटाँग लिटा देता। कभी-कभी दोनों को एक ही चिता पर पास-पास लिटाकर आग लगा देता। एक पर जगह न होती तो कोंचने की लकड़ी से शिशु को तोड़-मोड़ जलते काठ के बीच घुसेड़ देता।
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1.एक विश्वास है-दिन में मरे तो सांझ से पहले और रात में मरे तो भोर से पहले मुरदा जला देना चाहिए। वरना वह बासी हो जाता है।
इस तरह जगू तिवाड़ी खेत में पैदा होने वाले कुछ बोरे धान के अलावा कभी-कभी ऊपरी दो पैसे कमा लेता, अपना पेट भरता, घर चलाता, लेन-देन करता और शादी-ब्याह का काम भी चला लेता।
कोई उसे मुँह खोल कुछ नहीं बोल पाता। उस गाँव में जगू के सिवा कोई दूसरा पुख़्ता जानकार बाम्हन मालभाई नहीं है।
कोई जगू का प्राप्य कम करने की चेष्टा करता तो जगू ‘काम की तुलना में माँग कुछ नहीं’ कहकर तरह-तरह के तर्क रखता। अपनी बहादुरी दिखाने पुरानी बातें कहता। प्रमाण देकर कहता, ‘‘मेरे जैसा कोई है दूसरा, मुरदे फँकनेवाला ?’’ इस बात पर खूब गर्व करता वह।

पिछले बरस नरसिंह मिश्र की औरत को कैसे ढू-ढाँ अचानक बरसे पानी में भी जला आया। आते समय सातगछा बगीचे के छोर पर एक गरदन मरोड़ मर्दल के चक्कर में पड़ गया। उसके बाद पौष की ठण्डी रात में जलोदर में मरे, नाथ ब्रह्मा को जलाते समय मुरदे के पेट से मटके भर पानी निकला, चिता बुझ गई, फिर जगू कैसी चतुराई से इतने कठिन मुरदा को जला सका, यह पुरानी कहानी है- खुद रस ले-लेकर वह बताया करता है।
जगू तिवाड़ी का अनुभव और मुरदे जलाने की विद्या में उसकी अगाधता कितनी है यह बात कोई भी गाहक घड़ी-आध घडी़ बात कर भी जान जायेगा।

रोज जगू तिवाड़ी भागवत-घर में बैठ अपने हिस्से की कथा सबको एक-एक बार कह सुनाता। टँप-टँप मेघों भरे मौसम में उसके श्रोता उसे घेरकर बैठ जाते। गाँजे की फूँक लगाकर जगू पहले गला खँखारता। श्रोता समझ जाते कि अब कहानी शुरु होगी।
‘‘एक बार कोई अच्छी-सी लाश जलाकर लौटते समय की बात है- मुक्ताझर के पास घने आम की डाल पर बैठी एक डायन कैसे तो अंतड़ी जलाकर शिशु सेंक रही थी...।’’ किसी निपुण चित्रकार की तरह वर्णन कर रहा था जगू। श्रोता सहमें-सिकुड़े दीवार के सहारे बैठे सुनते।
इसी तरह उस छोटे-से ब्राह्मण गाँव में जगू तिवाड़ी का जीवन कटता।
आसोज की रात। साँझ से कुछ मेघ घिर आये हैं। जगू तिवाड़ी का सिर दुख रहा था शायद, दोनों कानों के पास माथे पर थोड़ा-सा कली चूना लेपे हुए सिर को कम्पोटर से ढाँपकर बाहर चबूतरे पर बैठा हरिवंश सुन रहा था।
गाँव में रोना-पीटना सुनाई दिया। पड़ोस की बस्ती वाली दुकान से पानजर्दा लिये कोई लौट रहा था। उसी ने खबर दी कि जटिया मौसी के यहाँ उसकी बहू मर गयी है।

देखते-देखते सारे गाँव में हलचल मच गयी। ‘‘चलो दो पैसे आमदानी होगी।’’ जगू तिवाड़ी को कुछ राहत मिली।
कितने ही लोग आकर कई बातें कह गये। बस्ती की औरतें दस तरह की बातें फुसफुसाने लगीं। किसी ने कहा, ‘‘पाप का पेट था।’’ किसी और ने कहा, ‘‘पेट ख़ाली करने को कोई दवा-दारु खायी थी, जहर फैल गया सारे शरीर में।’’
जगू तिवाड़ी गुम-सुम सब सुनता रहा, मुँह मोड़ लिया। जात जाने के भय से इतना बड़ा रोज़गार... सारी आशा टूट गयी।
जटिया मौसी का दुनिया में कोई नहीं- बस सास-बहू दो ही। बहू आने के महीने बाद बेटा गया था कलकत्ता- पैसा कमाकर उधारी चुकाने के लिए। तीन बरस हुए कोई खोज खबर नहीं। पहले तो खत-वत दिया करता था, पर साल भर से वो भी बन्द है। कलकत्ता से उस गाँव लौटने वालों का कहना है- वहीं कहीं एक औरत को लेकर कलकत्ता में ही मटियाबुरज में रहता है। घर पर बहू अकेली। आज वह तो गयी- पर जिन्दगी भर का कलंक लाद गयी बुढ़िया के सिर पर। बुढ़िया बाम्हनी सिर पर हाथ दिये बैठी है।

उसकी हालत दिन भर गाये भी पूरी न होती। गाँव के कुछ मुखी लोग निकले और बात को सम्हाल लिया। ‘‘बड़े-बूढ़े मुखी पहले बहू को काबू में रखने आगे क्यों नहीं आये ?’’ जटिया मौसी गाली-गलौज करती रही। आखिर फैसला हुआ- जल्दी लास खत्म करनी होगी। वरना कहीं छाटिया थाने में ख़बर हो गयी तो बाम्हन गाँव का नाम ही डूब जायगा। और बाक़ी सभी तो यहाँ बहू–बेटी लेकर रहते हैं !
जटिया मौसी ने दाँतों में तिनका रख सबको प्रणाम किया कोटि-कोटि। उसे इस घोर विपद से बचा लिया, अत: सबके आगे कृतज्ञता जतायी (यही तरीका है कृतज्ञता का)।

मुरदे को कन्धा देने गाँव के तीन-चार जवान निकल पड़े। आगे आये ख़ुद-ब-ख़ुद। पुवाल की रस्सी बनायी गयी। अरथी सजी। छाज, ठीकरा, छींका, बुहारी, लकड़ी सब ले आये दरवाज़े पर। मुरदे की देह कपड़े से ढँककर अरथी बाँधी गयी। मगर एक पुख्ता मालभाई (शववाहक) न हो तो कैसे चले ? आध घण्टे में लाश खत्म करनी होगी। वरना खतरा है। थाना बाबू को खबर हो गयी तो गाँव भर के लोग बाँध लिये जायेंगे। गाँव में फोड़नेवालों की कोई कमी नहीं।
मुखियों ने कहाँ, ‘‘तिवाड़ी जी को बुलाओ। तिवाड़ी के बिना इतना बड़ा काम सही-सही नहीं होगा।’’
जगू तिवाड़ी को ख़बर दी गयी। मगर वह नाराज, ज़िद एक ही- ‘‘पाप का पेट लिये मरी है ! मैं उसे छूऊँगा ? असती, कुलटा को कन्धे पर उठाऊँ ?’’
सबने कहा-समझाया। मगर वह अचल-अटल रहा।

आख़िर बड़े-बूढ़ों ने जाकर बहुत कहा-सुना तो जगू तिवाड़ी मुरदे को कन्धा देने को राजी हुआ। मगर पाँच रुपये नगद- वरना इतना बड़ा पाप कौन ढोयेगा !
साफ़-साफ़ कह दिया। जटिया मौसी के घर के कोने का गड्ढा खोदा गया-जो कुछ निकला सो लकड़ी-किरासिन, धोबी-नाई के लिए ही पूरा नहीं पड़ा। आखिर फ़ैसला हुआ- बहू के नाक में जो फूल है, जगू तिवाड़ी को मिलेगा।
जगू तिवाड़ी राजी हो गया और उसने आवाज़ लगायी-‘‘राम नाम सत्य है।’’
मशानपदा। मैली-कुधौली जगह। हण्डी, लकड़ी के टुकड़े, खोपड़ियाँ, छाज, ठीकरे, कोयले...और बाँस के टुकड़े ! चारों ओर तैर रही है एक कैसी भी मुरड़ान।
पथश्राद्ध (रास्ते में दिया जाने वाला पिण्डदान कार्य) हुआ। इसके बाद मुरदे को लेकर लकड़ियों के ढेर पर चित्त लिटाया गया, चेहरे पर से कपड़ा हटा दिया गया।

चवन्नी भर का सोना ! लालटेन की रोशनी में जगू तिवाड़ी ने देखा-फूल मुरदे की नाक पर चमक रहा है।
मेघ छँट गये थे-धीमी-धीमी चाँदनी उतर रही थी मुरदे के फ़ीके सफ़ेद चेहरे पर।
साथ आये मालभैया ने कहा, ‘‘अरे, तिवाड़ी जी ! जल्दी-जल्दी काम सलटाओ। पुलिस को भनक पड़ गयी तो फँस जाएँगे !’’
जगू ने फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया। उसने देखा, छोटी बहू का चेहरा चाँदनी में जैसे अधमुरझाया कुँई फूल हो। चेहरे के चारों ओर घिर आया है घने घुँघराले बालों का जंगल। ठीक वैसै जैसे आकाश में चाँद के पीछे काले स्याह मेघों की घनी छाया।
बहू के चेहरे पर तैर रहा है मुरझाये फूल का लावण्य ! उसके बेतरतीब बालों पर चाँदनी की लहरें एक पर एक आती-जाती दिख रही हैं।
जगू ने हाथ वापस ले लिया। आकाश में फीके चाँद की ओर देखा।
ऐसे कितने ही मुरदे जलाये हैं जगू ने। कभी मन में ऐसा तूफ़ान नहीं उठा।

‘‘इस छोटे-से सुन्दर मुखड़े को असुन्दर करूँ ! पर ज़रा-सा वह ‘गुना’ (नाक का अलंकरण) ख़ूब-ख़ूब टिप रहा है !’’ इस नारी के बारे में कुछ नहीं सोच गया वह मुरदा फूँकनेवाला जगू !
तभी जगू को याद आया: यह बहू थोड़े ही दिनों में माँ बन जाती। और कितना कुछ न होती,... मगर कुछ न हो सका !
दोष किसका है ?
छुपे-छुपे चाँदनी के बेशुमार सागर के बीच में सूने मशानपदा की नंगी छाती पर लेटी है एक अधखिली नारी है ! अकेली ! सच, यह एकदम अकेली है ! लाश ढोने वाला जगू तिवाड़ी उसे ही निरख-निरख रहा है-सच, कितनी अकेली देह के, एक घर में बन्द जीवन को बदल कर, ज़रा कुछ और तरह जीने का स्वाद अनुभव करने जाकर, शायद आज वह मशान की लाश बन गयी है ! बहू के स्याह पड़ते चेहरे पर दिख गयी अनेक दिन जीने की भूख।

जगू को देर करते देख संगी मालभाई झुँझला उठे। धमकाकर बोले, ‘‘यों देरी करेंगे तो हम मुरदा छोड़ चले जायेंगे। पुलिस आयेगी तो सम्हालना ! लों, जल्दी....गुना निकालो...काम आगे बढ़े। वरना हम आग लगाते हैं। गुना के लिए तो मरे जा रहे थे तब ! अब हाथ नहीं चलता ! क्यों ?’’
जगू तिवाड़ी का सपना टूट गया। लाज में भर गया। फिर भी अन्दर की कमजोरी को छुपाने के लिए बोला-
‘‘छि: यह मुरदे का गुना घर में भरूँगा ? वह तो पाप का पेट...’’
संगियों ने पूछा, ‘‘तो नहीं लेंगे ? आग लगाते हैं !’’
जगू ने लापरवाही में कहा, ‘‘हाँ, लगा...दो...! ठीक से देना ! जलाकर राख कर दो !’’
हुत् हुत् आग जल उठी। लपलपाती जीभ चाटती गयी। बहू की मासल देह आग में सीझ काली स्याह पड़ गयी। और फिर पर्त-दर-पर्त बुलबुले की तरह फूटने लगी।
जगू तिवाड़ी स्तब्ध देखता रहा जलती लाश।
दूर कुचले के झुरमुटे पर उल्लू, गीध और चीलों की जमात बैठी थी। दूर से खेत में उस पार से तैर आयी सियार की कान-फाड़ी भूख भरी चीख !

गन्दा-अँधेरा, हाड़-रखे कोयलों भरा मशान। चिता में से कोई सड़ी गंदी हवा आकर चारों ओर भर गयी।
संगियों ने जगू से कहा, ‘‘उस छिनाल के गहने लेकर घर में नहीं गये, अच्छा किया। अमंगल हो जाता। देखा कैसे छटपटा कर मरी है ! अपने पेट के शिशु को मारने चली थी, ख़ुद नहीं मरती क्या ? धर्म क्या दुनिया में नहीं रहा ?’’
उस जलती राख में आँख फिराते-फिराते चिढ़कर जगू बोला, ‘‘बस करो ! दूसरों का विचार तुम न करो। आदमी क्या आदमी को ठीक से समझ सकता है ?’’

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