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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


सवेरे टूटू मित्तिर ने उदास स्वर में पुकारा, ''ऐ अवंती, तुम्हारा फोन।''
पिछली रात काफी कीमत चुकाने के बाद अवंती को यह उदार स्वर खरीदना पड़ा है। 'श्यामल और श्यामल की पत्नी' को विख्यात बनाने की काफी कोशिश करनी पड़ी है। उनकी प्रतिष्ठा के साथ अरण्य की प्रतिष्ठा का भी बखान करना पड़ा है।
इसी वजह से उदार गले का र्स्वर सुनाई पड़ा, ''अवंती तुम्हारा फोन।''
अवंती ने आकर फोन उठाया। एक-दो शव्द बोलकर ही फोन रख निराशा भरे स्वर में बोली, ''न:। शायद उस औरत को जीवित नहीं रखा जा सका।''
टूटू को उसका हताशा भरा उच्छवास तनिक ज्यादती जैसा ही महसूस हुआ। ऐसी कौन-सी बात है, बाबा! कब के किसी सहपाठी की पत्नी!
इतने दिनों तक नाम भी नहीं सुना था।
तो भी असंवद्ध स्वर में पूछा, ''क्या हुआ? किसने फोन किया था?"
''श्यामल।''
''ओह, कल की वही...हाँ, तो क्या कह रहे थे?''
''कहा-कि बच्चे की हालत एकाएक बदतर होती जा रही है। ऐसा सोचा नहीं गया था। मैं जा रही हूँ, टूटू!''
''तुम जा रही हो?''
टूटू मित्तिर जैसे आसमान से गिर पड़ा, ''तुम जा रही हो, इसका मतलब?''
अवंती ने मुड़कर उसकी ओर देखा और बोली, ''जाऊँ नहीं!''
टूटू ने सोचा था, कल के उस उपकार के लिए उस आदमी ने संभवत: कृतज्ञता-ज्ञापन के-निमित्त फोन किया है। यानी अपनी ओर से पहल कर सम्बन्ध-सूत्र को आगे बढ़ाने के खयाल से। उसके बदले यह कैसी ऊटपटांग मुसीबत आकर खड़ी हो गई। तो भी कष्ट के साथ स्वयं को संयत करके बोला, ''तुमने तो अब तक ब्रेकफास्ट नहीं किया है।''
वह कोई वैसा बड़ा सवाल नहीं है।
लगा, अवंती जाने के लिए कदम बढ़ा रही है।
टूटू का दिमाग तनिक गरम हो गया, ''ऐसी हालत में बच्चे जीवित भी नहीं रहते। कहने का मतलब है। कल ही बच्चा मरी हुई हालत में पैदा हो सकता था...''
मरी हुई हालत में ही पैदा हो सकता था!
अवंती ने होंठ काट लिये। जवान में तनिक कोमलता भी नहीं है! बोली, ''तुम बल्कि कुछ और अर्थ लगा सकते हो टूटू, मैं जा रही हूँ।
इसके बाद टूटू अपने आपको संयत कैसे रख सकता है?
टूट बिगड़कर बोला, ''तुम जाकर क्या करोगी, सुनूं तो सही? तुम डॉक्टर हो? नर्स हो?''
''कुछ भी नहीं, सिर्फ एक मनुष्य हूँ। और औरत।''
''औरत। औरत हो तो क्या हुआ? कर्तव्य-पालन की एक लिमिट होनी चाहिए, अवंती। मेरा कहना है, ऐसी जगह सिर्फ सुनकर भागे-भागे जाना बेमानी है।''
''उसने दयनीय होकर खबर दी और न जाना कोई अर्थ नहीं रखता? तो फिर तुम्हारी राय में लिमिट क्या है? फोन से जरा इस्स! 'हाय-हाय' कहना ही?''
इसके अलावा करने को और क्या हो ही सकता है? हाँ, ड्राइवर के हाथ कुछ रुपये भेज दे सकती हो, जिसके लिए घबराकर सवेरे-सवेरे फोन किया है।''
अवंती के जेहन में चट से बिजली के एक झटके जैसा लगा।
पिछली रात तमाम बातों के साथ रुपए-पैसे के बारे में चर्चा चली थी। हो सकता है अवंती ने खुद को पाक-साफ रखने के खयाल से ही इस बात की चर्चा की थी। श्यामल अगर भविष्य में कृतज्ञता- ज्ञापन के निमित्त आए या कर्ज माँगने आए और टूटू मित्तिर के सामने आए तो टूटू कहेगा, मुझे कुछ मालूम नहीं। मुझसे नहीं कहा?
अलबत्ता रुपया टूटू का नहीं है।
अवंती के हाथ-खर्च के लिए अवंती का ससुर हर महीने मोटी रकम देता है, मगर ससुर तो आखिर टूटू का ही बाप है।
लेकिन अभी टूटू की इस अपमान करने वाली बात का, जो तीरों व्यंग्य से भी अधिक चुभनेवाली है, अवंती क्या उत्तर देगी?
तो भी अवंती ने शांत स्वर में कहा, ''उसने किस बात की खबर भेजी है? रुपए के लिए भेजी है?''
टूटू ने चतुराई के लहजे में कहा, ''इसके अलावा और क्या हो सकता है? ऐसी बात नहीं कि तुम उसके मरे हुए बच्चे को जीवित कर दोगी।''
''बच्चा अब भी जिन्दा है, टूटू। प्लीज, ऐसी बात मत बोलो।''
''ठीक है। नहीं कहूँगा। पर हाँ, खबर भेजने का मकसद मैं समझता हूँ और तुम भी समझती हो।''
अवंती ने कहा, ''मेरी समझने की शक्ति तुम्हारी जैसी तीक्ष्ण नहीं है। मैं ठीक से समझ नहीं पा रही। मैं जा रही हूँ।''
''उफ़! जाऊँगी कहने से ही क्या जाना हो जाएगा? सहसा ऐसी ममता क्यों उमड़ पड़ी, सुन सकता हूँ? इतने दिनों तक तुम्हारे ये श्यामल और अरण्य कहाँ थे? एक सुयोग से फायदा उठाकर पुराने प्रेम की टूटी कड़ी जोड़ने आए थे? और तुम भी-उफ़! औरतों को पहचानना मुश्किल है। लगता था जैसे...''
अवंती ने कहा, ''सिर्फ औरत ही क्यों, औरत या मर्द किसी को भी पहचानना शायद असंभव ही है। मैंने ही क्या सोचा था कि तुम इस तरह के हो। अच्छी बात है, हमने एक-दूसरे को पहचान लिया।''
अवंती बाहर निकल पड़ी।
गाड़ी लेकर नहीं, रास्ते से एक साइकिल-रिक्शा लेकर। आज रविवार है, सड़क पर बहुत सारे रिक्शा हैं।
टूटू असफल आक्रोश से कुछ देर तक उधर ताकता रहा, ताकता रहा।
अचानक धूमकेतु की तरह इस मनहूस का आविर्भाव कहाँ से हुआ? अन्दर-ही-अन्दर सम्बन्ध-सूत्र जुड़ा हुआ था। किसी दिन तो इसका पता नहीं चला था।
बड़े ही सुख के साथ दिन बीत रहे थे।
खासतौर से, मकान के बहाने माँ-बाप के पास से चले आने पर। इतना जरूर है कि यह महिला खासी मूडी टाइप की है, हमेशा टूटू की इच्छा के अनुरूप नहीं चलती, फिर भी दोनों के बीच कोई अंधकार नहीं था।
अंधकार बस इतना ही है कि अब भी बही-खाता कागज ले दिन गुजारने की इच्छा। चाहे जैसे भी हो, रिसर्च का बहाना बनाकर स्वयं को छात्रा बनाए रखने की ललक। जीवन के सुनहरे दिन इसी तरह बर्वाद कर रही है। बिलकुल बेमानी है यह।
पर हाँ, इससे टूटू को विशेष असुविधा का सामना नहीं करना पड़ता है।
टूटू तो हमेशा सदाहास्यमुखी, यत्नपरायणा, घर-संसार से जुड़ी प्रेममयी पत्नी को ही पाता आ रहा है। अपवाद है केवल जब-तब टूटू की इच्छित जगहों में घूमने-फिरने जाने से इनकार करना। इस उम्र में कोई युवती सुयोग मिलने के बावजूद नाथ देखने न जाती हो, सिनेमा-थियेटर न जाती हो, यह टूटू के लिए विस्मय-कारी है। टूटू तो किसी घटिया जगह ले जाने का प्रस्ताव नहीं रखता। सुविख्यात, कीमती स्थानों में ले जाने का ही इन्तजाम करता है, मगर अवंती को राजी करना मुश्किल है।
यहाँ तक कि टेस्ट मैच के टिकट के लिए लोग पागल की तरह मारे-मारे फिरते हैं। उस टिकट का जुंगाड़ हो जाता है तो अवंती कहती है, ''उफ, कौन जाएगा धूप में सिर तपाकर खेल देखने! घर में बैठ टी वी० पर देखना कहीं आरामदायक है। तुम अपने किसी दोस्त को साथ लेकर देखने चले जाओ।''
उसके बाद बोली थी, ''अगर वांधवी का जुगाड़ कर सको तो कितनी प्रसन्नता की बात होगी!''
घर-घुस्सर मन के अलावा और क्या कहा जाए?
हालाँकि बाधाहीन जीवन जीने के खयाल से ही टूटू अपनी राजकन्या माँ के रोब-दाव के आश्रय से हटकर चला आया था। टूटू मित्तिर की माँ अविभाजित बंगाल के एक 'राजा' खिताबधारी खानदान की लड़की है। यद्यपि विभाजन के बाद यह महिमा नहीं रहनी चाहिए थी, पर स्वयं को 'महिमान्विता' सोचे तो कौन रोक सकता है?
मणिकुंतला के अन्दर वह 'महिमान्विता' 'राजकन्या' दस्यु की नाई विराजमान है। पति-पुत्र को वे आभिजात्य के मामले में अपने समकक्ष नहीं समझतीं। उसके बाद यह बहू आई। बहू से जलने का एक कारण है कि वह विदुषी है। यह बात उनके लिए पीड़ाकारक है लेकिन उसकी बिलकुल उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। इस रस्साकशी की वजह से वे बहू से यथासाध्य दूरी बनाए रहती थीं। लेकिन जहाँ मालकिन की भूमिका का सवाल उठता, वे पूरे तौर पर उसे निभाने में पीछे नहीं हटती।

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