नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में चैत की दोपहर मेंआशापूर्णा देवी
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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...
बहुत ही उत्तेजित दिख रही है इरा; जैसे पुरुषवर्ग के हाथ में आत्महत्या के
विविध उपायों का रहना उनके लिए परम ऐश्वर्य की बात हो।
यह औरत खासी बेवकूफ किस्म की है, इसलिए जरा अधिक आवेश में आ जाती है। सो रहे,
लेकिन उसके प्रति अरण्य के दिल में काफी ममता और प्यार है। उसे फिलहाल शान्त
करने के खयाल से हँसते हुए बोला, ''मगर सोचकर देखो, वे लोग वगैर कोई खर्च किए
किस तरह अपना काम निबटा सकते हैं। दुर्लभ दुष्प्राप्य किरोसिन-बर्बाद नहीं
करते।''
''उफ! छोटे साहब, तुम किस तरह के हो! स्त्री के प्राणों से बढ़कर तुम्हारा
किरोसिन ही है।''
''मैं तो एक पाखंड हूँ, यह तो जानती ही हो।'' यह कहकर इतनी देर बाद स्नानघर
में घुस दरवाजा बन्द कर लिया।
इरा ने चिल्लाकर कहा, ''ज्यादा देर मत करना। मुझे डर लगने लगेगा, छोटे
साहब।''
भय क्या एक संक्रामक वस्तु है?
यदि नहीं है तो दरवाजा बन्द करते ही अरण्य के रोंगटे एकाएक क्यों खड़े हो
जाते?
विदुषी स्त्रियों में भी विश्वास देखने को नहीं मिलता है। कितनी ही दिशाओं
में बहुत सारे दरवाजे खुले हुए रहने के बावजूद वे भी मुक्ति के लिए यही एक
दरवाजा देख पाती हैं। गले में फंदा लगाकर झूल जाना, देह में किरोसिन तेल छिड़क
लेना।
अवंती के घर में क्या 'जनता स्टोव' के मानिन्द एक मामूली गहस्थ के घर में
उपयोग में लायी जाने वाली वस्तु का ही उपयोग किया जाता है? उसके घर में
निसंदेह आधुनिक से आधुनिक विविध प्रकार की सामग्रियाँ हैं। उनमें किरोसिन की
जरूरत नहीं पड़ती।
अलबत्ता अवंती की उस रानी-महारानी जैसी भाव-भंगिमा से अरण्य की इस दुश्चिन्ता
का कोई तालमेल नहीं है। फिर भी क्यों अरण्य के सामने आग का एक दृश्य उभरकर
चला आता है! उस आग की लपटों की हर फाँक में एक मुखड़े का आभास, एक लम्बी गढ़न
की सुपुष्ट वाँह। करवट लेकर सोयी हालत में गाल के समीप कान का निचला हिस्सा।
हालाँकि अरण्य संवेदनशीलता नामक शब्द को हेय दृष्टि से देखता है।
और-और दिन रात्रि-भोजन के दौरान सिर्फ माँ ही रहती हैं, इरा को माँ जबरन सोने
के लिए भेज देती हैं।
लिहाजा खुले मैदान में आमने-सामने सिर्फ माँ और बेटा ही रहते हैं। माँ अविराम
वाणों की वर्षा करती रहती हैं।
और पुत्र अवहेलना के साथ माँ को तुणीर खाली करने देता है-सिर्फ बदन झाड़कर
तीरों को फेंकते हुए।
लेकिन हाँ, माँ यदि साहस कर अचानक अग्निबाण चला देती हैं तो पुत्र एक
ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर प्रतिपक्ष को अचंभे में डाल देता है। वह
ब्रह्मास्त्र और कुछ नहीं, लड़का कहता है, माँ यदि इस तरह तंग करेंगी तो वह घर
छोड़ दूसरी जगह रहने को चला जाएगा।
अन्तत: माँ 'फिर तेरी जो मर्जी हो वही कर'-कहकर युद्ध समाप्ति की घोषणा कर
देती हैं।
लेकिन ऐसा सिर्फ उसी दिन के लिए ही। दूसरे ही दिन फिर शुरू कर देती हैं, ''कल
तो बड़े तैश में उठकर चले गए। यह तो बताओ कि कौन-सी गलत बात कही थी मैंने?''
माँ को ही दोषी कैसे ठहराया जाए? उनके मात्र दो ही पुत्र हैं और उनमें से एक
बर्बादी के रास्ते पर चला जाएगा! यह बरदाश्त करना मुम्किल है। 'जहन्नुम में
जाए', यह कहकर छोड़ दे? ऐसा नहीं हो सकता।
लड़का यदि एक अच्छी-सी नौकरी करे और फिर एकाएक छोड़ दे, उसके बाद फिर किसी
दूसरी अच्छी-सी नौकरी करते-करते छोड़कर बेरोजगार हो जाए और यह सिलसिला लगातार
चलता रहे और कारण पूछने पर बताए कि वहाँ टिकना मुश्किल हैया नौकरी स्थायी
नहीं हो सकी-तो ऐसी हालत में मां खुश रह सकती है?
यदि कोई स्वेच्छा से आकर किसी पद पर बहाल करने का आग्रह करे और लड़का उसें
ठुकरा दे तो माँ खुश रह सकती है? यदि 'शादी ब्याह नहीं करूँगा' इस तरह की
भीष्म प्रतिज्ञा न करने के बावजूद शादी की चर्चा छिड़ते ही उसे नकार दे तो माँ
खुश रह सकती हैं? चुप्पी ओढ़े कैसे रह सकती हैं?
रात्रि-भोजन के अतिरिक्त इस बहके लड़के से माँ की भेंट होती ही कब है?
सवेरे भवानी देवी की मूर्ति के पूजा-पाठ, गंगाघाट, काली घाट आदि का कार्यक्रम
रहता है, उस समय रसोईघर का सारा काम इरा के मत्थे रहता है। वही खाना पकाकर
दोनों भाइयों को देती है।
इतना जरूर है कि जब नौकरी करता है तो बड़े भाई के साथ बैठ खाना खाकर ऑफिस जाता
है और जब बेकारी की हालत में रहता है तो दूसरा ही इन्तजाम रहता है। लेकिन रात
के इन्तजाम में इरा नहीं रहती है।
आज इरा है।
इसीलिए आज अरण्य सोच रहा था कि वह अपने दिन कीं घटना का विवरण इरा को बताएगा।
भैया जब तक माँ को लेकर वापस नहीं आता है, तब तक सोया नहीं जा सकता है।
खाने के बाद स्वभावतया सोने का प्रश्न खड़ा होता है और वह सुविधाजनक नहीं है।
लिहाजा खाने के समय को खींचकर लंबा करने से ही सुविधा होगी। लेकिन श्यामल की
पत्नी की घटना का ब्यौरा अभी देना संभवत: युक्तिसंगत नहीं होगा। लापरवाह और
अहमक अरण्य को याद आया, इरा का अभी 'वो समय' चल रहा है। अत: इस वक्त उन
बेतुके प्रसंगों की चर्चा न करना ही लाजिमी है।
इसका मतलब अरण्य ने इरा को इकतरफा बडबडाने का मौका दिया और इरा ने अनायास ही
तकरीबन डेढ़ घण्टा समू-दा और शाश्वती के प्रसंग की चर्चा में बिता दिया कि कब
शाश्वती ने कहा था, 'बिल्ली जंगल जाती है तो वनबिलाव बन जाती है-इस बात का
मर्म अब अच्छी तरह समझ पाती हूँ। समझीं, इरा! कब कहा था, पुरुष क्या चाहते
हैं, जानती हो इरा, वे अपने सिंहासन पर अटल रहना चाहते हैं, एक आलपिन की नोक
का भी त्याग करना स्वीकार नहीं करते। लेकिन स्त्रियाँ अपना सारा कुछ त्यागकर,
यहाँ तक कि जड़ भी पुरुषों के चरणों पर सौंप देती हैं।
कहा था, ''रुचि की असमानता ही संभवत: सबसे बड़ी असामनता है। जबकि बाहर से
हमेशा समझना मुश्किल है।''
कहती, लेकिन दूसरे के सन्दर्भ में। निहायत कहानी के बहाने। इसका अर्थ 'स्वयं'
नहीं रहती। इरा निःसंदेह विद्या-बुद्धि में शाश्वती के समकक्ष नहीं है। तो भी
बीच-बीच में उसके सामने भी कहती। हो सकता है, कहने लायक आदमी न मिलने के कारण
ही कहती। पर इरा क्या बिलकुल समझ नहीं पाती थी? न समझ पाती तो कैसे महसूस
करती कि शाश्वती नामक उस औरत के अन्दर हमेशा एक आग जलती रहती थी।
आश्चर्य की बात है, शाश्वती के बारे में सुनते-सुनते केवल अवंती की याद क्यों
आ रही है अरण्य को?
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