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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


रुकी हुई गाड़ी का आरोही नीचे उतर कह रहा है, ''अच्छा, तुम क्या मुझे पागल बनाए बिना नहीं छोड़ोगी? दिन-भर चक्कर काटकर तुम क्या करती रही हो? चार बजे सनातन-दा ने ऑफिस में फोन किया कि तुम नहाए-खाए बगैर बाहर निकल गई हो और अब भी वापस नहीं आयी हो।
''भयभीत होकर उसने मुझे सूचित किया। भयभीत मैं भी हो जाता यदि उसके कुछ क्षण पहले ऑफिस में बैठे रहने के दौरान फोन से नानाजी की डाँट-फटकार कानों में न आयी हुई होती-पत्नी तक को सँभाल नहीं पाते हो, निकम्मे कहीं के!...समझ गया कि तुम वहीं गयी हो, एक्सिडेंट नहीं हुआ है। वहाँ मैं दौड़ा-दौड़ा गया। देखा, तुम वहाँ से निकल चुकी हो। उफ, कितना हैरान होना पड़ा! सोचा, किधर खोजने जाऊँ। जमाने पहले बूढे की पत्नी की मौत हो चुकी है, इसलिए नहीं जानता है कि पत्नी का क्या महत्त्व है। पर हाँ, मैंने भी झिड़कियाँ सुनाईं कि सुआरानी को विवाह के समय मोती का हार देने के बदले गाड़ी प्रजेंट करने की बहादुरी क्यों दिखाने गए। तुम्हें तो बूढ़े से छुटकारा मिल गया। परेशानी किसे उठानी पड़ रही है? उफ! तुम जिस तरह गाड़ी चलाए जा रही थीं कि एक्सिडेंट नहीं हुआ, यही गनीमत है। आओ, नीचे उतर आओ। उस गाड़ी पर बठ जाओ। तुम्हारी प्यारी लाल गाड़ी की देख-रेख ड्राइवर करेगा। गाड़ी का रंग भाग्यवश भीड़-भाड़ में भी दिख जाता है!
कब से पीछा कर रहा हूँ, उफ! आओ, नीचे उतरकर चली आओ।''
टूटू की गाड़ी से उतर ड्राइवर उसका दरवाजा खोलकर खड़ा था, टूटू मित्तिर ने हल्के से अपनी पत्नी की पीठ दबाकर उसे चढ़ने में मदद की।
इस छुअन का तो बराबर अहसास करती आयी है अवंती, फिर भी एकाएक इस तरह की एक सिहरन क्यों महसूस हुई? फिर क्या इसी का नाम सुरक्षा का आश्वासन है?
गरदन घुमा पीछे की सीट पर पड़े दो कुशनों में से एक को उठा, बगल में बैठी पत्नी की पीठ थपथपाते हुए टूटू मित्तिर बोला,  ''लो, जरा आराम से बैठो। दिन-भर बिना खाए-पिए धूप में चक्कर लगाने से चेहरे पर कितनी चमक आ गयी है। उफ! नानाजी के यहां भी तुमने कुछ नहीं खाया।''

बात का सिलसिला समाप्त कर स्टीयरिंग थाम ली। थोड़ी देर तक चलाया, उसके बाद बोला, ''दुहाई है तुम्हारी, जहां भी जितने प्रेमी हैं तुम्हारे, सभी को घर बुलाकर अड्डेबाजी करो। इस तरह गुस्सा जाहिर करने सड़कों की धूल छानते हुए मरने की कोशिश मत करो।
अवंती क्या अब तक नींद के आगोश में थी?
इसीलिए चारों तरफ निहारती हुई आश्चर्य में खोती जा रही है? आश्चर्य भरे स्वर में ही बोली, ''मैं कहाँ जा रही थी?''
''दया कर इतनी देर के बाद घर ही आ रही थी शायद। लेकिन अन्तत: पहुँच पातीं या नहीं, मालुम नहीं। मैं इस तरह चलाता तो कहतीं, यह अभागा आदमी ड्रिंक करके ही मौत के मुंह में समाया है।''
 
अवंती ने अहिस्ता से कहा, ''आखिर पहुँच तो गई! किससे कहा? दूसरे को या अपने आपको?''
उसके बाद अवाक् होकर सोचने लगी, अपने घर के रास्ते पर वह कब आ गई? किसी अनजानी-अनपहचानी जगह जाकर वह एक दौड़ती हुई लॉरी के ग्रास में समाने के खयाल से टेढ़ी-तिरछी घुमाव दार सड़क से ही जा रही थी।
उसके बाद सोचा, उस दोपहर को यदि मैं एक मिनट के लिए कमरे के बाहर आकर खड़ी हुई न होती तो फिर क्या जान पाती कि रेत के तले शीतल जल का स्रोत प्रवाहित होता है? रेत के हटते ही उस पर निगाह पड़ती है।

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