लोगों की राय

नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

162 पाठक हैं

चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


टूट-भूटकर, मुड़-तुड़कर...
एकाएक अवंती की आँखों में आँसू की बूंदें दमक उठी-अपने आपके शोक के कारण नहीं, बल्कि परम प्रिय इस गाड़ी के कारण। मन हाहाकार कर उठा-यह गाड़ी उन्होंने भेंट की है। उस आदमी ने अवंती से कहा था, ''मेरा कलेजा चाक कर दिया तुमने।''
इसके बाद वे देखेंगे, उनके प्रेम-भरे उपहार को अवंती तोड़कर, चूरचार करके...
एक दौड़ती लॉरी से टकराने से उसकी हालत कैसी होगी, इसके बारे में सोचते ही आँसू आँखों के कोने तक को लबालब भर देने को आतुर हो उठे। अवंती ने अपनी सोच को दूसरी दिशा में मोड़ना चाहा। लेकिन वह सोच क्या है?
काश, उस दिन गरमियों की उस दोपहर में अवंती एक मिनट के लिए कमरे से बाहर निकल बरामदे पर खड़ी नहीं हुई होती!
हाँ, एक मिनट के लिए ही।
दूसरे ही क्षण दुबारा कमरे के अन्दर चली जाती अवंती। लौट जाने का ही तो इरादा था। तीखी धूप में सड़क के किनारे ठहरने का इरादा नहीं था।
ऐसा हुआ होता तो फिर अवंती का जीवन इस तरह का मोड़ नहीं लेता। अवंती को हमेशा-हमेशा के लिए घर से निकलने को बाध्य नहीं होना पड़ता।
अवंती के मसृण छंद से जुड़ा हुआ जीवन हर रविवार को ससुर के मकान में ड्यूटी बजाने को अभ्यस्त हो गया होता। नये-नये व्यंजन बनाने की कला सीख, उस वस्तु को समाप्त करने के उतवाले पन के साथ ही बीच-बीच में ब्रिट्रिश कौंसिल जाकर अध्ययन-मनन करती, बीच-बीच में टूटू के साथ मार्लिन पार्क घूमने-फिरने जाती। वहाँ मजेदार गपशप का सिलसिला चलता। टूटू मित्तिर कहता, ''नानाजी, आप उसे मुझसे ज्यादा प्यार करते हैं।''
नानाजी कहते ''करूँगा नहीं? वह मेरी छोटी रानी है। मतलब सुआरानी।''
अवंती को क्या कभी उन दिनों की याद आती? क्या वह सोचती कि अवंती नामक युवती के जीवन में एक अधूरापन है? एक खालीपन है?
हर दिन की रेत और गर्द जमते-जमते उस खालीपन को उभरने का मौका ही नहीं देती। उसे जो पीड़ा पहुँचाता था, वह है टूटू मित्तिर नामक व्यक्ति की भयंकर, सब कुछ ग्रसित कर लेने वाली प्रेमा-सक्ति का दबाव। पर वह विद्रोह नहीं कर पाती थी।
काश, उस दोपहर को एक मिनट के लिए वह घटना न घटित हुई होती! तो...
गृहस्वामिनी बनने को आतुर अवंती मित्तिर नए मकान के गृह-प्रवेश का कलश सजाती और मकान के कहा किस हिस्से में क्या सजाने से फबेगा, यही सोचने बैठती।
इन्हीं सबों के बीच चलता अवंती का जीवन, यदि उस दिन...लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि एक भी लॉरी पर नजर क्यों नहीं पड़ रही है? आँखों के परदे पर पानी का एक आवरण रहने की वजह से अवंती क्या देख नहीं पा रही है? इसके बाद यदि गाड़ी का पेट्रोल खत्म हो जाए तो? हालाँकि और-और दिन लॉरियों के उत्पात से...। बहुत बड़ी गलती हो गई। उस समय डबल-डेकरों का झुंड सामने की ओर से भागा जा रहा था। उस समय अवंती को अपनी गाड़ी को ध्वंस के मुंह में डालने में बड़ी ही ममता महसूस हो रही थी।
पर अब?
एक दौड़ती हुई लॉरी अवंती के अभाग्य से इतनी दुर्लभ हो रही है? अब बेला ढल चुकी है और शाम होने-होने पर है। अवंती के लिए कहीं पहुँचना आवश्यक है। पार्क की बेंच पर बैठ रात गुजार सकेगी अवंती!
औरतें कितनी असहाय होती है!
औरतों की असहायता के बारे में सोच आँखें जलने लगीं। और ठीक उसी समय एक दौड़ती हुई गाड़ी झटके से अवंती की लाल गाड़ी के बिलकुल करीब आकर रुक गयी।
अवंती को भी झटके से ब्रेक दबाना पड़ा।
पूरे जिस्म में एक झटके जैसा महसूस हुआ। और तभी उसने सोचा, कलकत्ता के रास्ते की एक तुच्छ मोटर-दुर्घटना की खबर क्या हैदराबाद के अखबारों में छपेगी?
पर गाड़ी में क्या धक्का लगा था? नहीं, नहीं लगा था।
धक्का लगा था तो वह कानों के परदे में ही। तो भी अवंती को थरथराहट महसूस हो रही है। क्योंकि एक क्रोध, दुख और अभिमान भरा स्वर कानों के परदे पर पछाड़ खाकर गिर पड़ा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book