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चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


''और किसी के साथ?''
अवंती हँसकर बोली, ''न:, यह कलंक उस पर मढ़ा नहीं जा सकता। और किसी की उसे जरूरत नहीं पड़ती। वह सिर्फ अपने आपसे जुड़ा हुआ है। अपने आपके अतिरिक्त और किसी को वह प्यार नहीं कर सकता। लिहाजा जिसे वह अपना समझता है, उसकी समग्र सत्ता, उसके अस्तित्व को अपने अधीन रखना चाहता है।''
अमियवल्लभ के चेहरे पर एक शरारती सूक्ष्म कौतुक की हँसी उभर आती है। कहते हैं, ''समझ गया। उसे अपनी माँ का स्वभाव मिला है। मेरी मणि भी तो सारा कुछ अपनी मुट्ठी में रखना चाहती है। पर मेरा दामाद अक्लमन्द है न लड़ाई के रास्ते पर न जाकर आत्म-समर्पण के रास्ते का चुनाव कर लिया है। सिर्फ अनुगनत बनकर रहो, बस, प्रॉब्लेम सोल्व।''
हा-हा कर हँस पड़े अमियवल्लभ। बोले, ''सो तुम भी अपने ससुर से यह ट्रिक्स सीख ले सकती हो।''

अवंती ने आरक्त चेहरे के साथ कहा, ''सबसे सब-कुछ होना क्या मुमकिन है, नानाजी? अपनी इच्छा-अनिच्छा, सोच-समझ, उचित-अनुचित-बोध-सीधे शब्दों में कहा जाए तो अपनी सत्ता को विसर्जित कर थोड़ी-सी शान्ति खरीदना! आप इसे उचित ठहराते हैं?''
अवंती की आँखों के सामने तैर उठता है दो दिन पहले का एक दिन।
अवंती ने सोचना शुरू किया था कि इस लेक टाउन इलाके को छोड़ कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाना बेहतर रहेगा। यहाँ श्यामल और लतिका के दायित्व (दायित्व क्यों और किस चीज़ का दायित्व! शायद उन लोगों के चिपटे रहने के हाव-भाव का ही दायित्व) से कुछ दिनों के लिए परे हट जाने से ये लोग भी स्वाभाविक हो जाएँगे, प्रत्याशा का पात्र हाथ से छूट जाएगा। टूटू भी ईर्ष्या के शिकंजे से मुक्त हो जाएगा।
इस सोच के बाद उस दिन शरत मित्तिर जब अपनी बहूरानी के हाथ की बनी चाय पीने आए थे तो अवंती ने एकाएक कहा था, ''बाबूजी, मैं अगर कुछ दिनों तक बालीगंज के मकान में जाकर रहूँ तो आप लोगों को कोई असुविधा होगी?''
टेलीफोन लग जाने के बाद से शरत मित्तिर के आने का सिल-सिला जरा कम हो गया है। उस दिन वे काफी दिनों के बाद आए थे। इसीलिए अवंती को शायद उस रूप में देखा नहीं था। लिहाजा इस प्रस्ताव से जरा चौंक उठे थे। इतना जरूर है कि तुरन्त खुद को सँभाल, बेहद उत्साह का प्रदर्शन करते हुए कहा था, ''घर की लक्ष्मी घर जाएगी तो इससे असुविधा हो सकती है? क्या कह रही हो बिटिया?'' कहा था और बड़े उत्साह के साथ कहा था।
लेकिन उनके उस उत्साह के अन्तराल से घबराहट और परेशानी का भाव उभर आया था।
फिर भी अवंती ने कहा था, ''तो फिर कल ही चलूँ। कहिए, आपकी क्या राय है?''
शरत मित्तिर ने कहा था, ''जरूर-जरूर। पर हों, अब तो कोई असुविधा नहीं है? फोनसे अपनी सास से जरा बतिया लो।''
अवंती के मन में इस आदमी के प्रति पुन: करुणा का उद्रेक हुआ था। मुसकराहट के साथ कहा था, ''बतियाने की जरूरत ही क्या है? आपको कहने से काम नहीं चलेगा?''
''अहाहा, ऐसी बात नहीं है। मुझसे भी कहने की जरूरत नहीं थी। तुम्हारा अपना मकान है, जब भी मर्जी होगी, जाओगी। बल्कि यह बताओं कि कब जाओगी? गाड़ी भेज दूँगा।''
''गाड़ी भेजने की जरूरत ही क्या है? मैं क्या खुद ही नहीं जा सकती ?''
शरत मित्तिर बोले, ''जरूर-जरूर, एक बार नहीं, सौ बार जा सकती हो। तुम यहाँ से चली आना। टूटू ऑफिस से चला आएगा।

तुम लोगों को जब तक रहने की इच्छा होगी, रहोगे। टूटू वहीं से ऑफिस जाया करेगा। अहा, कुछ दिनों तक हम लोगों के उस मकान में चहल-पहल छायी रहेगी।''
अवंती ने निराशा भरे स्वर में कहा, ''मैं अकेले ही जाना चाहती हूँ, बाबूजी!''
शरत मित्तिर के सर्वांग में विपन्न-विव्रत भाव उभर आया था। घबराकर बोले थे, ''तुम तो ऐसा चाह रही हो, मगर तुम्हारी सास क्या अपने लड़के की असुविधा बरदाश्त कर सकेंगी? अच्छा, जाकर कहता हूँ।''
असहाय हाव-भाव के साथ चले गए थे शरत मित्तिर।
लेकिन हाँ, जाने के बाद चालाकी से काम लिया था। उसका प्रमाण अवंती को कुछेक घंटे के बाद मिला था।
टेलोफोन घनघना उठा था। उसके बाद मणिकुंतला का परि-मार्जित स्वर सुनाई पड़ा था-
''हाँ, मैं बोल रही हूँ, बहूरानी! (अब जरा धीमे स्वर में) तुम्हारी तबीयत कुछ खराब है क्या? कुछ और ही महसूस कर रही हो?''
अवंती शुरू में अवाक् हो गई थी। लेकिन दूसरे ही क्षण परिस्थिति का अन्दाजा लगा लिया था। कष्ट से अपने आपको संयत रख आश्चर्यचकित होने के बहाने को बरकरार रखते हुए कहा था, ''कुछ और ही तरह का मतलब?''
''कितने आश्चर्य की बात है! मतलब भी समझाना होगा क्या? तबीयत में हेर-फेर नहीं हो सकता? शादी हुए तो लंबा अरसा गुजर चुका है...''
अवंती ने वाक्य पूरा होने के पहले ही कहा था, ''तबीयत ठीक है।''
''ओह! लेकिन तुम्हारे ससुर ने आकर बताया कि बहूरानी का चेहरा थोड़ा बहुत उदास जैसा देखने को मिला। इसके अलावा यहाँ आकर दो दिन ठहरने के बारे में भी बताया था। उस समय मैंने कुछ और ही उम्मीद की थी।...बहरहाल, इच्छा हुई है तो आकर दो दिन यहीं ठहर जाओ। टूटू के साथ चली आओ।''
अवंती ने कहा था, ''नहीं-नहीं, मैंने यों ही बाबूजी से कहा था। मिस्त्रियों के झंझट-झमेलों से कभी-कभी जी में होता है कि भाग जाऊँ।
इन लोगों का काम खत्म होने का नाम ही नहीं लेता।''
''यह बताना बेकार है।''
मणिकुंतला ने अभिज्ञ स्वर में कहा था, ''ठेके के मिस्त्री तो हैं नहीं, रोजहा मिस्त्री हैं। तुम जब तक उन लोगों से 'जाओ भागो' नहीं कहोगी तब तक वे लोग काम का सिलसिला जारी रखेंगे। अच्छा, रख रही हूँ।''
अवंती के मन की आँखों के सामने कई दिन पहले की जो तसवीर उभर आयी, वह तसवीर अमियवल्लभ की आँखों के सामने कैसे उभर सकती है? वे बोले, ''मगर शांति या सुकून सीधी वस्तु नहीं है। उसे खरीदने के लिए कीमत तो देनी होगी।''
अवंती ने कहा, ''सबके द्वारा सबु-कुछ संभव नहीं है।''
''वही तो मुश्किल है।''
अमियवल्लभ चेहरे पर दुख का भाव लिये बोले, ''सबसे सब-कुछ होना संभव नहीं है। पर मुहिम के रास्ते पर चलने से शक्ति और शांति दोनों का विनाश होता है। दो में से एक को अधीनता स्वीकार करनी ही होगी। एक ही रथ को दो सारथी चलाने बैठें तो रथ अचल हो जाता है। घर-गृहस्थी भी तो एक रथ ही है।''
अवंती ने कहा, ''और यदि कोई रथ न चाहता हो और उतर जाना चाहता हो तो?''
''उतर जाना चाहता है!''
अमियवल्लभ चुप हो गए।
कुछ देर तक ताकते रहे।

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