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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


अब दादाजी के इस परिहास से उसे अचानक रोना आ गया। उसी तरह घटनों पर ठोड़ी रखकर बैठी रही और आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।
शक्तिनाथ चुप रहे। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।
कॉलेज जाते हैं, वहाँ से लौट आते हैं, इस बीच यह सब कैसे हो जाता है? थोड़ी देर बाद गला साफ कर शाश्वती बोली, "सब चले जाएँगे, आप और दादी अकेले कैसे रहेंगे भला कहिए तो?"
अब शक्तिनाथ हँसकर बोले, "अच्छा! तू इस बुड्ढे भाई-बहन की रखवाली करेगी?"
"वही तो कह रही हूँ। पापा से आप कहिए न दादाजी!''
शक्तिनाथ धीरे-से बोले, "पागल मत बन बिटिया! टिकट हो चुका है। आना हो तो दादाजी के अंतिम समय में आकर सेवा कर जाना।"
"ओह दादाजी! अच्छा नहीं होगा...''
वैसे ही हँसकर शक्तिनाथ बोले, "ऐसे ही कह देगी-अच्छा नहीं होगा? किसमें हिम्मत है कि मेरा 'अच्छा' होना रोक सके?''
"दादाजी, आपलोग अकेले रहेंगे...सोचकर बहुत खराब लग रहा है मुझे!" शक्तिनाथ धीरे-से बोले, "भक्ति तो रहेगा न !''
"नहीं रहेंगे।" सर हिलाकर बड़े धीरे-से शाश्वती बोली, "छोटी दादी और वीरू चाचा मिलकर कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें कलकत्ते के थियेटर में चाँस दिला दे..."
शक्तिनाथ निश्चित स्वर में बोले, "भक्ति नहीं जाएगा!"
"नहीं जायेंगे क्या? वह तो एक कदम बढ़ा कर तैयार हैं। कलकत्ते के स्टेज पर काम करने का अगर मौका मिल जाय तो उनका जीवन सार्थक हो जाएगा!"
शक्तिनाथ ने सोचा, 'कैसी मोहमयी है कलकत्ता नगरी!'

क्षेत्रबाला के मन में कोइ सुख नहीं है फिर भी अपनी आदत के अनुसार बड़बड़ाने लगी, "हमारी निगरानी करने के लिए तू रहेगी? अरे मेरी राधारानी, बता तेरी निगरानी करने के लिए कौन रहेगा? मुझे तो तब पुलिस पहरा बैठाना पड़ेगा।"
अत: शाश्वती को अपने दूसरे निर्णय का फल भोगना नहीं पड़ा। बस, मन-ही-मन अपनी समालोचना करने लगी। कहने लगी, क्यों तू उस दिन मूरख की तरह पापा के पास दौड़ी कहने गई-"यहाँ नहीं रहना है? मामूली एक आवारा मस्तान, धनी बाप का बेटा, उसके लिए तूने कलकत्ते की पढ़ाई छोड़ दी? ऐसे दो स्नेहातुर हृदय का आश्रय त्याग दिया उसके कारण?"
इलाहाबाद का अर्थ ही है फिर वही अकेलापन। शाश्वती सोचने लगी-पुराने
ज़माने में कमसिन उम्र में शादी हो जाती थी, अच्छा ही होता था। बीमार होने से पहले ही टीका लग जाता था। अब तो हर कदम पर डर लगा रहता है, क्या मैंने ठीक किया? कुछ गलत तो नहीं किया?
शाश्वती को लगा अगर उसके पापा जल्दी उसकी शादी कर देना चाहें तो मना नहीं करेगी वह।
मगर क्या ऐसा चाहेंगे वे?
पापा चाहें भी तो क्या? अम्मा होने दे तब तो?

वे लोग चले गये। माँ-बाप और बेटी। जाने से पहले व्रतीनाथ कह गया, "अभी मुझे जाना पड़ रहा है मझले-चाचा, मगर मैं आऊँगा। रिटायर करने के बाद मैं यहीं आकर रहूँगा।"
शक्तिनाथ चश्मे के शीशे को साफ करके बोले, "ऐसा क्यों भला? सभी तो चले जाना ही चाहते हैं।"

व्रती बोला, "और मैं दिन गिनता रहता हूँ कि कब लौटूँगा। जीवन-भर ऐसा लगा जैसे खेलते-खेलते अचानक सारे खिलौने छोड़ कर चले जाना पड़ा, फिर वापस आकर खेलने लगूँगा।"
शक्तिनाथ ने बहुत ही धीरे-से कहा, "मैं तुझे कहता हूँ व्रती, इसीलिए मत आना यहाँ। वह छोड़े हुए खिलौने उठाकर अगर फिर खेलने बैठेगा तो पता चलेगा वे सब निरे मिट्टी के ढेले ही हैं। इन मामूली चीजों को इतने प्यार और ममता से दिल में संजोये रखा, यह सोचकर अपनें-आपको निर्बोध ठहराएगा! यादें सुनहरी होती हैं,...................... यादें अटूट, अविनश्वर होती हैं।........ समय गतिशील है, वह वापस लौटकर आता नहीं। ............ दुबारा वापस आ कर इस टूटी हुई गृहस्थी के सीमित दायरे में क्या तुझे उस बृहत् का स्वाद मिल पाएगा?...अगर फिर से उसी स्वाद का आस्वादन करना चाहेगा तो क्या होगा जानता है? जिसकी आशा लेकर आये हो वह मिलेगा नहीं, जो था वह भी खो जाएगा.............. अपनी चाहत की वस्तु को दुबारा भोगने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।'

सर्दी का मौसम पूरे जोर-शोर पर छाया है। दिसम्बर समाप्त होने को है।
रमोला ने कैलेंडर के पन्ने पर निशान बनाकर रखे हैं। एक-एक कर उन्हें काटती जा रही है। उसके भैया के साले साहब हृदयहीन नहीं हैं। उन्होंने फ्लैट दिलवा दिया है। पर जिस फ्लैट की बात उन्होंने कही थी, वह नहीं दे सके। पहले वाले किरायेदार ने छोड़ा नहीं। जो दिया उन्होंने उसमें एक कमरा कम है।
अब किया क्या जा सकता है?
कमरा न हो तो नये सिरे से बनवा कर तो नहीं दे सकते हैं न? ........... छोटा है जरूर, पर सुन्दर ऐसा जैसे कोई तस्वीर हो। रंगीन टाइल्स के फर्श, ग्रिल लगी हुई खिड़कियाँ, बेसिन, शावर, चौके में गैस का चूल्हा! इतनी सारी सुविधाओं के बदले थोड़ी-बहुत असुविधा तो झेलनी ही पड़ेगी।

वह असुविधा कुछ विशेष नहीं, मुन्ना और टुपाई को फिलहाल अर्थात् जब तक अनिन्दिता और मधुमिता की शादी न हो जाय, कहीं और रहना पड़ेगा।...टुपाई अपनी मझली मामी का चहेता है, वहीं रह जाएगा मामा के घर में आराम से। और मुन्ना अभी अपने एक दोस्त के साथ मेस में रह जाएगा, बाद में कुछ इंतजाम कर लिया जाएगा। कुछ-न-कुछ रास्ता निकल ही आएगा।
और कोई चारा भी तो नहीं है।
केवल दो कमरे के एक फ्लैट में दो स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों और दो दफ्तर जाने वाले लड़कों को लेकर कोई दम्पत्ति और किस तरह मैनेज कर सकता है भला? हाँ, अपना दाम्पत्य-जीवन बर्बाद करके शायद मैनेज कर सकते थे, जैसा पुराने ज़माने में लोग किया करते थे। परन्तु यह पुराना ज़माना तो है नहीं। और सच कहा जाय तो इतने दिनों के बाद ही रमोला को जीने के लिए एक सही जीवन मिला। कमरे को सुन्दर तरीके से सजाकर सोने के सपने कब से देखती आई है बेचारी रमोला!
मगर कोशिश लगाकर किसी तीन कमरे वाले फ्लैट में चले जाएँगे, ऐसी गुंजाइश भी नहीं है। फ्लैट में आने से पहले पाँच साल का 'अग्रीमेंट' करा लिया है उस 'साले साहब' ने। यही उनका नियम है ।

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