नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
धीरे-से बोला, "आदमी सोचता क्या है और होता क्या है! चन्द रोज पहले तक भी
क्या मैंने ही सोचा था, पुश्तैनी घर छोड़कर दो कमरों के फ्लैट में जाकर बस
जाऊँगा?"
नहीं सोचा था उसने।
अब भी सोच कर बड़ा कष्ट हो रहा है, इस बरामदे पर वह और नहीं खाएगा, इस आँगन
में और नहीं टहलेगा! इस चिरपरिचित भूमि पर और नहीं रहेगा वह! कभी-कभी आधी रात
को नींद खुल जाती है तो खिड़की खोलकर देखता है वह, चाँदनी की चादर में लिपट कर
कितनी शांति से सोया पड़ा है गाँव। निस्तब्ध शांत वातावरण है!
यह शांति अब और नहीं मिलेगी।
रमोला के भैया के सालेजी का फ्लैट एकदम सड़क के किनारे है जिस पर हरदम बस का
आना-जाना है और पीछे की ओर एक छोटा-मोटा कारखाना भी है जहाँ शोरगुल का तूफान
है।
"वे लोग चले जाएँ, मैं यहीं रह जाऊँगा।" ऐसी बचकानी प्रतिज्ञा भी तो टिक नहीं
सकती!
रमोला को छोड़कर रहना असम्भव है।
रमोला ही उसकी पीड़ा है, रमोला ही उसका सुख है।
जब वह हँस-हँस कर बोली, "देखा? भाई को कैसे बुलवा लिया? मुक्तिनाथ तब उस पर
रूठ भी नहीं सका-उसे बिल्कुल बताये बिना यह काम करने के कारण।
रमोला जब बोली, "मझले चाचा का ऐट्टियूड देखा तुमने? हम चले जा रहे हैं, इसी
नाराजगी में घर की मरम्मत नहीं करवा रहे हैं। बीच-बीच में हमलोग आयेंगे नहीं
क्या?" तब मुक्तिनाथ को लगा, वास्तव में मझले चाचा ने कोई गलत काम कर दिया।
फिर जब रमोला ने कहा, "देवरजी तो घर के नाम से इतने सेंटिमेंटल हो रहे हैं,
उनकी बीवी का बर्ताव देखा तुमने? कुछ घंटे बीते कि नहीं, भागी मैके की ओर।
सारा दोष तो केवल बड़ी बहू का है!"
तब मुक्तिनाथ को लगा, ठीक ही तो कह रही है रमोला। केवल उसी की मीन-मेख निकाली
जाती है। यह सोचना भूल गया कि सविता मैके कितनी बार जा ही पाती है? और केवल
तीन दिन की ही तो छुट्टी लेकर आई है वह।
और जब यह भी सुना उसने कि व्रती घर मरम्मत करवाने का सारा खर्च उठाना चाहता
था, फिर भी मझले चाचा नहीं माने क्योंकि व्रती उनका प्यारा भतीजा है। उसका
पैसा साँझेदारी के मकान में लगाने को राजी नहीं हैं वह, तब मुक्तिनाथ को लगा
बात सही है। हमेशा से व्रती पर मझले और छोटे चाचा ज्यादा प्यार जताते हैं।
तो फिर भला मुक्तिनाथ ही बीवी-बच्चों को छोड़ कर चाचा और बूआ के प्रति
कर्त्तव्य निभाने के लिए यहाँ पड़े रहने की अद्भुत कल्पना क्यों करे?
उनके अपने सगे भाई तो हैं ही।
तो क्या भाई थोड़ा बावला और उसकी बीवी उदासीन है? और क्या भतीजे भी पंख निकलते
ही शहर की ओर दौड़ेंगे, जैसे पतंगे प्रकाश कीं ओर भागते हैं?
अब उसका क्या समाधान है?
सारी जिम्मेदारी मुक्तिनाथ की तो नहीं है!
अब और धूप ढलने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती हे। पूस की धूप दुर्लभ वस्तु है।
दोपहर के तीन बजते ही तन पर गरम चादर लपेट कर बाहर दलान पर आकर शक्तिनाथ
महात्मा काली प्रसन्न सिंह के अठ्ठारह पर्व महाभारत के एक खण्ड को लेकर बैठे
हैं-शायद जीवन की असम्पूर्णता को पूर्णता प्रदान करने के लिए।
आँखों पर चश्मा चढ़ाकर ग्रंथ का एक पृष्ठ खोला उन्होंने। पृष्ठ को चिह्नित
रखने वाली जिस वस्तु को खींचकर निकाला उन्होंने, वह थी बस की एक टिकट, बरसों
पुरानी।
मुक्तिनाथ का बड़ा बेटा मुन्ना जब सचमुच 'मुन्ना' था, उस समय एक बार ननिहाल से
लौटकर यह परम वस्तु अपने परम प्रिय दादाजी को उपहार में देकर उसने कहा था,
"दादू तुम दब तलतत्ता दाओगे, ये तित्थी ले दाना, बछ में बहु...त दूल धूम
आओगे।''
शक्तिनाथ ने हँसकर कहा था, "दे, भई दे! देखते हैं इस टिकट से बहु..त दूर के
उस देश तक पहुँचा जा सकता है कि नहीं!"
तभी से इस वस्तु को महाभारत के पन्नों में आश्रय मिल गया है।
चश्मे को उतार कर फिर से साफ़ किया उन्होंने और फिर पहन कर पूर्वपठित अंश से
पढ़ने लगे...
'मनुष्य बारम्बार मृत्यु प्राप्त होता है, बारम्बार जन्म-ग्रहण करता है!
बारम्बार उसका क्षय होता है, बारम्बार उसकी वृद्धि होती है! वह बार-बार
दूसरों के आगे हाथ जोड़ता है, दूसरे भी उसके आगे याचना करते हैं। बार-बार वह
दूसरों के लिए शोक करता है, दूसरे भी उसके लिए शोक करते हैं। सुख-दुख,
जन्म-मरण, लाभ-
क्षति यह सभी बारी-बारी से भोगना पड़ता है, अत: धीर पुरुष कभी भी हर्ष अथवा
शोक के वशीभूत नहीं होंगे। चक्षुरादि इन्द्रियों से...'
"दादाजी?''
शाश्वती पास आकर बैठी। जब से व्रती आया है वह कॉलेज नहीं गई है। अगले दिन
सुबह ही उनके चले जाने की बात है। यहाँ से कलकत्ते जाकर ननिहाल में दिन
बिताकर शाम की गाड़ी से रवाना होंगे ये लोग।
शक्तिनाथ चश्मा उतार कर डिब्बे में भरकर महाभारत के भीतर समेट कर प्यार से
बोले, "आ बिटिया, बैठ!"
शाश्वती दादाजी के घुटने पर एक हाथ रखकर टूटे हुए स्वर में बोली,
"दादाजी, आप पापा से कहिए...''
शक्तिनाथ हैरान होकर बोले, "क्या कहूँगा?"
"मैं उनके साथ नहीं जाऊँगी, यहीं रहूँगी।"
शक्तिनाथ और भी हैरान हो गये, "क्यों रे! तेरे पापा तो कह रहे थे तू खुद ही
जाना चाहती है, कलकत्ते के कॉलेज में और पढ़ना नहीं चाहती है?''
अपने घुटनों को समेट कर उस पर अपनी ठोड़ी रखकर बैठी थी शाश्वती। उसी तरह बोली,
"वह तो मैंने अचानक गुस्से में कह दिया था।''
शक्तिनाथ को कौतुक का अनुभव हुआ। बोले, "किस पर गुस्सा था बिटिया? इस बुड्ढे
पर?''
"अहा!" रुँधे स्वर मैं शाश्वतौई बोली, "ऐसे ही...कलकत्ते पर!"
"कलकत्ते पर?''
शक्तिनाथ ने चंचल भाव से चश्मे को डिब्बे से निकाला, नाक पर चढ़ाकर फिर उतार
लिया और बोले, "कलकत्ते पर कोई भला गुस्सा करता है? बिटिया, यह तो बड़ी नई बात
सुनाई तूने! किसी से प्यार-व्यार तो नहीं हो गया? अभी चोट खाकर...''
मजाक में ही बोले पर शाश्वती चौंक उठीं। उसे लगा अनिन्दिता ने कह दिया होगा!
आलोक वाली घटना बिल्कुल सामान्य घटना है। आँखों को भला लग जाने पर ऐसी आँखें
चार तो कितनी बार ही होती हैं! यह शाश्वती नहीं समझती है। उसका आलोक के साथ
गाड़ी में सैर को जाना और उसके बाद वाली घटना उसे काँटे की तरह चुभ रही है।
अपने-आपको पापी समझ रही है वह।
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