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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


के आगे दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता क्या चीज है? गाँव ही तो है। वे नाक-सिकोड़ कर कहेंगे, बाप रे! वहाँ कोई रह सकता है?''
फिर कभी किसी दिन अगर प्यार-मोहब्बत की बात सुनकर आतीं तो आकर ही भविष्यवाणी करने लगती हैं, ''मैं आज भविष्यवाणी कर रही हूँ तुम लोग समय आने पर मिला लेना। इसके बाद शादी-ब्याह में पंडित-नाई का कोई काम नहीं होगा। प्रथा-पद्धति, देशाचार, कुलाचार सब भूल जाएँगे लोग।''
''...हमारे जैसे बुड्ढे-बुड्ढियों के मरने भर की देर है, उसके बाद जो जिस पर लट्टू हो गया, उसे माला पहना देगा और जब दिल उचाट हो जाएगा, माला तोड़ कर तलाक दे देगा। जैसे जंगल के पशु-पक्षी करते हैं और क्या! जानवरों की तरह लोग अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा कर देंगे, फिर दुनिया में चरने को छोड़ देंगे। शायद दस-बीस साल के बाद भेंट होने पर पहचान भी नहीं पायेंगे कौन किसके माँ-बाप हैं और कौन किसके बच्चे!....हँसो मत! हँसने की बात नहीं है। जिस तरह से स्वेच्छाचार बढ़ता जा रहा है, अब समाज नाम की कोई चीज रहेगी क्या? हाँ, तुम कह सकते हो, नहीं रहे बला से! मगर किसी ज़माने में अक्लमंद लोगों ने सोच-विचार कर समाज का निर्माण किया ही क्यों था फिर? आदमी को पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं से अलग करने के लिए ही तो? और अलग किया था तभी तो आदमी इतना आगे बढ़ सका। विद्या-बुद्धि-ज्ञान बढ़ाते-बढ़ाते आसमान में उड़ा, चाँद पर जा पहुँचा। अब अगर कहो उसे समाज की परवाह नहीं तो फिर उसी जंगल में वापस जाना पड़ेगा, जंगली-जीवन बिताना पड़ेगा। यही सब होगा अब, मैं कहे देती हूँ। होगा भी क्यों नहीं, कलि पूरा होगा कैसे? जितना सब अनाचार, अत्याचार, स्वेच्छाचार ये सब बढ़ते-बढ़ते तभी तो कलियुग सम्पूर्ण होगा! उसी की तैयारी हो रही है।''
अगर 'कलि' को पूर्ण होना ही है और उसके लिए तैयारी होगी यह भी नियम है और अगर क्षेत्रबाला को यह नियम अच्छी तरह मालूम है तो फिर आक्षेप किस बात का? यह बात घर के बाकी सदस्य पीछे में हँसी-मजाक के बहाने कर लेते हैं पर उन्हें सामने बुला कर नहीं कहते हैं।
नहीं कहने का यह कारण नहीं है कि वे उनसे डरते हैं बल्कि इसलिए कि उस बात के जवाब में क्षेत्रबाला की हजार बातें फिर सुननी पड़ेंगी। कौन सुनना चाहता है इतनी बातें? एक आदमी दिन-भर अनर्गल अपने-आप बुदबुदाये जा रहा है, यही कम चिढ़ने वाली बात है क्या?
मुक्तिनाथ की छोटी बेटी कहती है, ''सजीव ट्रांजिस्टर है। भगवान् ने चालू करके इस धरा-धाम पर भेज दिया था, फिर अपने पास ले जाकर कान ऐंठ कर बंद कर देंगे।''

क्या क्षेत्रबाला को मालूम नहीं सब उनका मज़ाक उड़ाते हैं? जिनका मज़ाक करने का रिश्ता है वे भी और जिनका नहीं है, वे भी?
मगर करें क्या? स्वभाव तो आदमी अपने ही साथ लेकर आता है और अपने ही साथ लेकर जाता है।
शक्तिनाथ तो हर दम ही इस बातूनी बहन को सम्हालते रहते हैं, ''खेतू तू चुप करेगी? खेतू! अब बस भी कर खेतू तू जितना बकेगी, उतना ही गलत बोलेगी...खेतू, कभी-कभी तुझे मौन रखना चाहिए, उससे वाक्-संयम की आदत बनती है।...''

लेकिन इस चिर-अभागिन मूर्ख लड़की को कठोर शब्दों में डाँटने में झिझक होती है उन्हें।...

सारी ज़िंदगी तो यहीं बिता-दी उसने। कभी पराये घर गई नहीं, इसीलिए वाक्-संयम की आदत भी नहीं पड़ी। परंतु इसके अलावा और क्या दोष है उसमें? बराबर से जी-जान लगाकर मेहनत करती आई, अब इस उम्र में आकर भी कड़ी मेहनत करती है। जिधर से पानी गिरता है उधर ही छतरी तान देती है, जिधर खुला देखती है, उधर ही बेड़ लगाती है।...अपना कहने के लिए तो कुछ है नहीं, अपनी माँग भी कुछ नहीं है। कभी 'तीर्थ' जाने की ज़िद नहीं करती, कभी नहीं कहती है कि 'व्रत के दिन उत्सव करूँगी'...घर बैठकर ही जम कर उपवास कर लेती है वह। रहा खाना-पहनना? वह तो सभी देखते हैं, एक जून चावल-सब्ज़ी खा लेती है, रात को फलाहार। वह भी जो फल घर में मिल जाय, खीरा, कटहल, केला जो घर में मौजूद हो। आम के दिनों में थोड़ा सुख मिल जाता है, अपना 'आम का बगीचा' है, इसलिए। बीस झमेलों में खटाल सूना ही रह गया। तब से दूध का भी तो नाम नहीं।
पहनना? वह भी कहने लायक क्या है?
दिनभर तो पूजा की एक 'तसर' साड़ी में ही बिता देती है। शाम के समय धुली हुई एक थान की धोती और एक ढीली समीज़ पहन कर बाहर दलान पर बैठती है महाभारत सुनने के लिए।...समीज़ हाल में पहनने लगी है। खुले-बदन रहने से भतीजे और पोते नाराज़ होते हैं। मुक्ति के दो और भक्ति के तीन, ये पाँचों लड़के अब जवान हो रहे हैं। मुक्ति के दोनों बेटे तो कमाने भी लगे हैं। उन्हीं को संकोच होता है। समीज़ भी उन्हीं लोगों ने खरीद कर ला दी है।
वह समीज़ क्षेत्रबाला को आफत जैसी ही लगती है। पहनती है और बड़बड़ाती है, ''अब इस बुढ़ापे में समीज़-कमीज पहन कर घूमो। अरे, हम तो एक वस्त्र में ही सब-कुछ ढक लेते हैं और तुम लोग इस जमाने में सात कपड़े ओढ़ कर
भी आधे नंगे रहते हो।...जवान-जवान सब क्वाँरी लड़की दो बित्ता का घागरा पहन कर बे-आबरू होकर दुनिया का चक्कर लगा रही है, उसमें कोई शरम नहीं। जितना शरम है इस सत्तर साल की बुढ़िया को लेकर जो कि घर में बैठी है।''
बड़बड़ाती है मगर पहनती भी है।
किसी की बात टाली जा सकती है, किसी के आदेश की उपेक्षा की जा सकती है, यह क्षेत्रबाला ने जाना ही नहीं। इसलिए नाराज़ होती है मगर मान भी लेती है।
ऐसे आदमी को केवल अधिक बोलने के कारण क्या शक्तिनाथ कठोर होकर डाँट सकते हैं?
पर आश्चर्य की बात यह है कि जिनके लिए क्षेत्रबाला ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया, मौका पाते ही वे क्षेत्रबाला को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं, चोट पहुँचा कर बात करते हैं।
यद्यपि मुक्तिनाथ और भक्तिनाथ दोनों चाचा-भतीजे ऐसे नहीं हैं। 'दीदी' पर जान छिड़कता है भक्तिनाथ, 'बूआ' के नाम से श्रद्धा से सर झुका लेता है मुक्तिनाथ। ब्रतीनाथ बाहर रहता है फिर भी बूआ से लगाव है उसे, इज्ज़त करता है। हर चिट्ठी में उनकी खबर लेता है।
हो सकता है यही बात औरों को सहन नहीं होती हो। अगर ये लोग क्षेत्रबाला की परवाह नहीं करते तो शायद उन लोगों की करुणा मिल जाती। किसी भी व्यक्ति के स्त्री-पुत्र-परिवार को यह सहन नहीं होता कि उनको मिलने वाले प्यार का और कोई भागीदार हो, चाहे वह भागीदार कितना ही दीन-हीन क्यों न हो। सोलह आने से ऊपर मिल जाय फिर भी एक फूटी कौड़ी हाथ से निकल जाने का घाटा सहन नहीं होता है किसी से।
मंद-बुद्धि क्षेत्रबाला इस परम सत्य को समझ नहीं पाती है। इसीलिए भाई-भतीजों का प्यार पाकर खुशी से इठलाती रहती है।
नहीं तो भला 'महा अपराध' करके आई दोनों लड़कियों को ऊँचे स्वर में डाँटने जाती वह? है कौन वह? बाप की बूआ ही तो है! इससे अधिक और कुछ?
हालाँकि दोनों अपराधी लड़कियों ने ऐसा कुछ मुँह पर कहा नहीं था। अनिन्दिता और शाश्वती गर्दन झुकाकर ही खड़ी थीं, मगर बोल उठी एक की माँ। शाश्वती की माँ यहाँ रहती नहीं है। पर अनिन्दिता की माँ रहती है। रमोला को यह अनधिकार हस्तक्षेप पसंद नहीं हुआ।
रमोला बरस पड़ी।
अर्थात् क्षेत्रबाला के जाने-पहचाने कलि देवता ने क्षेत्रबाला के सामने इसी मंडल विस्तर गाँव के राय-परिवार में पूर्णता की ओर एक कदम बढ़ाया।
हर घटना की एक प्रस्तुति तो होती ही है। नहीं तो थोड़े से अनास्वादित आनंद चखने के लोभ में फँसी हुई दो लड़कियाँ जब ट्रेन में बार-बार घड़ी देख रही थीं और हर पल का हिसाब लगा रही थीं, तभी क्यों अचानक वह ट्रेन बीच मैदान में रुक गई? अब रुकी तो हिलने का नाम ही नहीं!
क्यों रुकी-यह बताने वाला भी कोई नहीं था।
बाहर घुप अँधेरा, भीतर अलग-थलग होकर कुछ यात्री बैठे थे। एक-दो ने खिड़की से गर्दन निकाल कर बाहर देखने की कोशिश की, कुछ दिखाई नहीं पड़ा तो फिर गर्दन को भीतर करके भाग्य के हाथों आत्म-समर्पण कर बैठे।
मगर अनिन्दिता और शाश्वती, ये दो लड़कियाँ क्या करें? इनका दिल तो कह रहा है कि ट्रेन से कूद पड़े और जंगल-मैदान सब पार कर उस घर के दरवाजे पर जा गिरे जहाँ से पंद्रह घंटे पहले निकल आई हैं वे।
दोनों में उम्र का अंतर कम ही है, इसलिए कोई किसी को 'दीदी' कहने को तैयार नहीं। नाम लेकर ही पुकारती हैं एक-दूसरे को। बल्कि उम्र में थोड़ी कम शाश्वती को ही अनिन्दिता मान कर चलती है। क्योंकि उसकी धारणा में शाश्वती समझदार है। तभी तो 'ईवनिंग शो' में सिनेमा देखने के बारे में ना-ना करते-करते अचानक जब शाश्वती ने हामी भर दी तो अनिन्दिता भी निस्संकोच और निश्चिंत हो गई।
शाश्वती ने 'हाँ' की है, अब वह जाने।...शाश्वती पर इतना भरोसा होने का कारण भी है। वह तो इस मंडल विस्तर गाँव की पाठशाला में 'अ आ क ख' का पाठ लेकर बड़ी होकर कलकत्ते में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने नहीं गई। भली-भाँति अँगरेजी स्कूल में पढ़ी है वह। बंगाल के एक फालतू गाँव में नहीं, बल्कि किसी अच्छे शहर में ढंग से पली है वह।
उसकी माँ अनिन्दिता की माँ की तरह लक्ष्मी, षष्ठी, मनसा, मंगल-चंडी और गोबर-गंगाजल के चक्कर में फँस कर दिन-रात नसीब को नहीं कोसती। वह तो उसके बाबूजी के जैसे दफ्तर में नौकरी करती है। इससे अधिक गौरव की बात और क्या हो सकती है?...इसके अलावा उनके घर में रसोइया, नौकर, माली, सोफा-सेट, डिवान, फ्रिज, रेडिओ, रेकॉर्ड-प्लेयर...क्या नहीं है! गैराज में गाड़ी है, बगीचे में कैक्टस।...केवल कुत्ता नहीं पाला है क्योंकि कुत्ते से अनिन्दिता की चाची बहुत डरती

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