नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
मनीषा ने शांत स्वर में पूछा, ''इससे माँ की सारी कमी पूरी हो जाएगी?'' घबरा
कर उत्तेजित हो गया भक्तिनाथ। बोला, ''सब कमी पूरी कर सकूँ इतनी हैसियत कहीं
है मेरी?''
''तो फिर रहने दो न यह बात?''
इसके बाद से एक अजीब कोशिश में लगी है मनीषा, जिसकी खबर एकमात्र उसके बड़े
बेटे को है।
रोज उसी के साथ सलाह करती है, उसके घर लौटते ही धीमे स्वर में पूछती है,
''लाया है?''
यह लाने वाली चीज और कुछ नहीं, अखबार के 'नौकरी के विज्ञापन' विभाग से लाई गई
कटिंग। सारे अखबार तो घर में आते नहीं। घर के पुरुष तो बाहर जाते हैं, वहीं
से समाचार इकट्ठा कर लेते हैं। घर की लड़कियाँ भी तो वही करती हैं।
रमोला को इन बेकार बातों में रुचि नहीं है।
मनीषा की रुचि किस बात में है और किसमें नहीं, समझ पाना मुश्किल है। ले-देकर
बची क्षेत्रबाला।
उन्हीं का नाम लेकर एक बंगला अखबार घर में आता है, मगर वह क्या खाक पढ़ेगी।
सुबह में मेल, एक्सप्रेस, पैसेंजर सभी ट्रेन को झंडी दिखाकर पूजा-पाठ करती
है। फिर चाय-पानी पीकर इस कमरे के दरवाजे पर आकर पैर पसार कर बैठ जाती है और
कहती हैं, ''कहीं गये भैया? जरा कागज पढ़कर सुनाओ तो!''
अगर शक्तिनाथ क्रोधित होकर कहते हैं, ''क्यों, क्या तू बंगला अक्षर भी नहीं
पढ़ सकती है?''
हँसकर क्षेत्रबाला कहती है, ''अरे क्यों नहीं? चश्मे की डंटी जो टूटी पड़ी
है।"
"पड़ी है तो किसी को दे क्यों नहीं देती? कलकत्ते से बनवाकर ला देता!''
क्षेत्रबाला आराम से बोलती है, ''वे लोग जब निकलते हैं उस समय तो बाप का नाम
ही याद नहीं रहता है तो चश्मे की डंडी क्या चीज है! तुम पढ़ो तो सुनूँ।''
शक्तिनाथ भी तो अखबार को इसी समय के लिए रख छोड़ते हैं। खेतू की समझ में आने
वाले हिस्सों को पढ़कर सुनाते हैं उसे।
बीच-बीच में खेतू की टिप्पणी चलती रहती है, ''ज़माना क्या से क्या हो गया।
कैसी थी यह दुनिया जब आई थी यहाँ और अब क्या देख रही हूँ। राम जाने आगे और
क्या देखना है।...''
पर शक्तिनाथ की मेहनत बेकार ही होती है क्योंकि क्षेत्रबाला को समाचार
पहुँचाने के माध्यम हैं आस-पड़ोस वाले। मुहल्ले में टहलते समय पड़ोसियों के
माध्यम से ही उन्हें गाँव-समाज देश-विदेश की सारी खबर मिल जाती है।
और इस प्राप्ति को स्वार्थी की तरह वह अकेले ही नहीं उपभोग करती बल्कि टहल कर
लौटते ही बरामदे में पाँव पसार कर बैठ जाती हैं और शून्य की ओर देखकर ही कहने
लगती हैं, ''खाद्य-वस्तुओं का दाम जिस तरह दिन पर दिन अग्निमूल्य होता जा रहा
है, इसके बाद खाना पकाने के लिए आग की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपनी गर्मी से खुद
ही पक जाएगा।''......कहती हैं, ''अरे क्या हाल हो गया देश का! सारे लोग
चोर-डाकू गुंडा और खूनी होते जा रहे हैं। इसके बाद लगता है-'यदुवंश ध्वंस'
जैसे आपस में मार-काट करके खत्म हो जायेंगे।....नहीं तो कभी लोभ और दुर्नीति
की सब गोपनीय जटिल वार्ता संग्रह करके कहती हैं, ''अभी तक माँ वसुंधरा इस पाप
का बोझ कैसे सह रही है, पता नहीं।'' वासुकी तो कम-से-कम एक बार अपना फन हिला
सकते थे।''
रसीली बातें भी छूटती कहाँ हैं! अपने दोनों पाँव पसार कर बैठ जाती हैं और
कहती हैं, ''पहले जमाने में लड़कियाँ खाना खाते समय पाँव पसार कर नहीं बैठती
थीं कि कहीं ससुराल दूर न हो जाय और अब? अब तो जिसकी जितनी दूर शादी हो उसे
उतना ही गौरव होता है। अब तो बिलायत-अमेरिका का लड़का न हो तो किसी काम का
नहीं! हमारे श्याम की बहू की एक भाँजी है जो शादी करके 'अष्ट मंगला'1 होते ही
दूल्हे की पूँछ पकड़ कर अमरीका चली गयी, इसी पर श्याम की बहू क्या अकड़ रही
है।....पता नहीं किस दिल से माँ-बाप अपने बच्चों को देश से निकाल बाहर कर
खुशी से झूमते हैं। मुझे तो नहीं समझ में आता है बाबा!
ऐसी बातों का विरोध भी किया जाता है कभी-कभी, परंतु बातों में क्षेत्रबाला से
कौन जीत सकता है भला? वह तो इतिहास की मिसालें देंगी, कहेंगी-
''अभी खुशी मना लो, बाद में जब अपना यह देश मुँह के बल गिरेगा, तब पता चलेगा।
जिस तरह पहले ज़माने में लड़के पढ़-लिखकर आदमी बने कि शहर की ओर भागते थे। ऐसा
करते-करते गाँव पिछड़ता गया। इसी तरह आजकल के लड़के पढ़-लिख गये कि
विलायत-अमेरिका भागते हैं। तुमलोगों के इस ज़माने में विलायत-अमरीका ही 'शहर'
है और अपना देश 'गाँव' और कान खींचो तो मस्तक आ ही जाएगा। मियाँ गया तो बीबी
भी गई। वहीं घर बसा लिया। उस ज़माने में जिस तरह एक बार कलकत्ते की मौज-मस्ती
छोड़कर बहुएँ गाँव में टिक नहीं सकती थीं, देखना, इस जमाने में भी वही होगा।
विलायत-अमरीका के ऐश-आराम
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1. विवाह के पश्चात् आठवें दिन वर के साथ वधू का मैके आना!
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