नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
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"इस घर की दूसरी मंजिल के वाशिंदे मानो अभिशप्त जीव हैं।"
मन-हीं-मन मनीषा ने कहा-"सामयिक कड़वाहट के कारण इस तरह की बात कोई नहीं करता
है।"
अत: मानना पड़ेगा, उसके मन में यह कड़वाहट काफी दिनों से जमा हो रही है।
हालाँकि देखने से ऐसा लगता है कि मनीषा के अजीबोगरीब आचरण तथा परिवार के
प्रति उसकी उदासीनता और लापरवाही के कारण परिवार के लोगों के मन में उसके
प्रति कड़वाहट है।
मनीषा के आचरण से लगता है कि वह इस बात को मानने को तैयार नहीं कि इस घर की
वह कोई लगती है। मानो वह इस घर की मेहमान हो, अत: इस घर के कर्त्तव्यों,
रीति-रिवाजों के बारे में पूरी तरह उदासीन है वह। किसी नियमित कार्य के साथ
वह बँधना नहीं चाहती। घर में कितनी घटनाएँ घटती हैं जिनके बारे में अनजान
रहकर भी वह लज्जित महसूस नहीं करती। घर में कोई मेहमान आए तो आवभगत के लिए
आगे नहीं आती, पूजा-पाठ, तीज-त्योहार में अपनी खुशी से कभी हाथ नहीं बँटाती
है।
विशेषकर इस छोटी बहू के लिए ही क्षेत्र 'महारानी', 'मेमसाहब', 'कुटुम्बकन्या'
आदि विशेषणों का प्रयोग करती हैं।
रमोला तो दिन-रात इस घर से निकल कर कहीं और अपनी गृहस्थी बसाने के लिए बेचैन
रहती है, फिर भी जब तक यहाँ है, इसकी सत्ता को नकार तो नहीं सकती है।
चाहे नाखुश होकर ही सही, रमोला इतू पूजा के दिन सुबह घट के बासी फूल-जल को
बदल कर आल्पना देने बैठ जाती है, पसंद न हो तो भी षष्ठी, अष्टमी और मंगल-चंडी
के व्रत पर शुद्ध वस्त्र पहन कर निरामिष भोजन की तैयौरी में लग जाती है और
मुँह फुलाकर ही सही पर द्वादशी के दिन पौ फटते ही दफ्तर जाने वालों के लिए
'टाइम' का खाना पकाने बैठ जाती है जो काम बाकी सारे दिन क्षेत्रबाला अपने
कब्जे में रखती है।
द्वादशी के दिन अगर क्षेत्रबाला बिना पूजा-पाठ किये, बिना कुछ खाये-पीये चौके
में चली जाती हैं तो शक्तिनाथ असंतुष्ट होते हैं, मुक्तिनाथ चीख-चिल्लाकर घर
में हंगामा खड़ा करता है और ऐलान कर देता है कि अगर समय पर खाना पकाना किसी के
लिए संभव नहीं हो तो महीने के वे दो दिन मुक्तिनाथ चूड़ा फाँककर दफ्तर जग़ागा।
ऐसा लगता है जैसे अकेले मुक्तिनाथ ही दफ्तर जाता हो, जैसे उसी ट्रेन में
भक्तिनाथ भी न जाता हो, जैसे उसके अपने ही दो बेटे उनके बाद वाली ट्रेन पकड़ने
के लिए न भागते हों या फिर भक्तिनाथ के तीन बेटे और दो चढ़ती उम्र की लड़कियाँ
उन्हीं में शामिल न होती हों।
एक के बाद एक सिलसिला चलता ही तो रहता है।
चलता ही रहा है सदा से।
सदा की भारप्राप्त कर्मचारी क्षेत्रबाला सदा से कहती आई है, "मैं भी एक
स्टेशन मास्टर हूँ! जैसे स्टेशन-मास्टर को भोर से साँस लेने की फुर्सत नहीं,
एक पर एक ट्रेन को पास देता चला जाता है, मेरा भी वही हाल है।"
मगर क्या उस कर्मव्यस्त जीवन से निकल कर मुक्ति की साँस लेने की बात
क्षेत्रबाला अपने दुःस्वप्न में भी सोच सकती है? कहती जरूर है, "इस क्षेत्र
ब्राह्मणी के कंधे से जुआ कभी नहीं उतरने वाला है।" मगर कोई उस जुए को लेने
के लिए हाथ बढ़ाये भी तो क्या दे देगी उसे?
महीने के वे दो दिन द्वादशी की सुबह क्षेत्रबाला को जैसे कोई तड़पा कर मारता
है। पूजा पर बैठकर भी कईस बार गर्दन निकाल कर बात करती है और जैसे-तैसे
पूजा-समाप्त कर हरिनाम की झोली हाथ में लेकर चौके के दरवाजे पर आकर खड़ी हो
जाती हैं।
मगर केवल खड़ी हो तब न? लगातार प्रश्नों की जो झड़ी लगा देती है, रमोला का पारा
गरम करने के लिए वह काफी से भी अधिक नहीं है क्या?
"चावल धोकर डालते समय कंकड़ बहा लिए थे न बड़ी बहू? दाल में कटहर के बीज डाल
दिये? अभी तक नहीं? अब दोगी? इसमें क्यों देर लगाना बहू? दाल चढ़ाते ही डाल
देती! अब वह क्या पकेगा! पत्थर के टुकड़े जैसे लगेंगे।...थोड़1 की सब्जी तो
मुक्ति को मिलने से रही। बेचारे को इतना पसंद है तभी तो रात को काट-कूट कर
नमक तक लगा कर रखा था मैंने। अभी तक नहीं हुआ मतलब अब होगा भी नहीं। रात में
खाने की चीज तो है नहीं।"
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1. थोड़-केले के पौधे के तने का भीतरी भाग
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