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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


"न्यू-मार्केट में महिलाओं के लिए पुरुष-गाईड! किसी से कहना नहीं चित्रा! ऊपर से, आधे दर्जन के लगभग महिलाओं के लिए।''
व्यंग्य किया मगर गया भी और पूरे समय हँसाता रहा।
लड़कियाँ भी चुप कहाँ थीं। सभी बोल रही थीं।
"ओह आलोक जी, हमलोगों का केस तो एकदम 'मर्डर केस' है, समझे? सिनेमा देखने निकले, बैग में सिर्फ लौटने का किराया है। चोर-उचक्कों के डर से ज्यादा लेकर भी नहीं आए। ऐसी हालत में आप ढाई घंटे तक इस मार्केट में हमें घुमायेंगे? यह तो मौत से भी दर्दनाक है!"
आलोक अपनी 'जेब' से ढेर सारे काजू खरीद कर सभी लड़कियों को खिला रहा था और खुद भी खा रहा था जम कर। थोड़ा मुस्कुरा कर बोला, "महान् ग्लैडस्टोन कह गये हैं, महिलाएँ जब मार्केट में प्रविष्ट हों तब चुपके-से उनके बटुए हटा लेने चाहिए।''
सुनकर कई स्वर गूँजने लगे एक साथ, "क्या कहते हैं आलोक जी! ऐसी बात वह कब कह गये?''
"वाह! वह कब क्या कह गये, उसका हिसाब आपने रखा है क्या ?"
"वाह! ऐसा कैसे? अच्छा किस किताब में लिखा है, कहिए तो?''
चित्रा बोली, "किताब की खबर रहने दे रे! महान् ग्लैडस्टोन की ऐसी अनेक अनकही बातें भैया के व्यक्तिगत स्टॉक में हैं।"
हास्य-तरंग में लड़कियाँ हवा के झोंक से काँपती बेलों की तरह झूम उठीं। अनिन्दिता और शाश्वती ने इससे पहले कभी न्यू मार्केट नहीं देखा था, इसी कारण भीतर-ही-भीतर काफी उत्तेजित हो रही थीं। मन की आँखें तो आश्चर्य से बड़ी-बड़ी हो रही थीं और इसी कारण बाहर से वे बड़ी निरासक्त उदासीनता दिखा रही थीं। आँखों के आईने में कहीं मन की आँखों की झलक न दिखाई पड़े।
बल्कि जो अक्सर ही आती है वही चित्रा ललक-भरी निगाहों से देखकर बार-बार कह रही थी, "ए भैया, देखो क्या गजब की सुंदर साड़ी है। उफ, वह शीशा जड़ा हुआ बैग देखो जरा...भैया देखो न! इस कार्पेट का डिजाइन तुम्हें कैसा लग रही है? माँ कह रही थी छोटे ड्राइंगरूम के लिए एक कार्पेट खरीदना है।"
सिनेमा देखने के बाद काँफी पीकर और पिलाकर जब ये लड़के उन दोनों को पहुँचाने के लिए हावड़ा चलने लगे, शिशिर सबकी नजर बचाकर चित्रा की पीठ पर हाथ रखकर धीरे से बोला-"तुम्हारे दोस्तों के पीछे इतना समय दे रहा हूँ उसके बदले में क्या मिलेगा?''

चित्रा उदास स्वर में बोली, "देखिये, अब कौन किसका दोस्त हो जाता है!" 
"घबड़ा गई?''
"भरोसा भी नहीं है। एक ने तो भैया को शायद घायल कर दिया है।" 
"मुझे अब कोई घायल नहीं कर सकता। पहले से ही घायल हूँ।''

हँसते-हँसते गाड़ी स्टार्ट कर दी उसने। आलोक भी उसके साथ गया।
बाकी लड़कियों ने एक टैक्सी पकड़ ली, अपने-अपने स्टॉप पर उतर जायेंगी। पर अंत में जिसे उतरना है उसका चेहरा उतर गया था हालाँकि वह मानने को तैयार नहीं थी।
इस मत्स-न्याय की दुनिया में नारी और पुरुष का सम्पर्क तो खाद्य-खादक का है। ऊँचे घर का हो या नीचे घर का, युवक हो या वृद्ध, किसी के साथ भी नि:शंक नहीं हुआ जा सकता है।
अभी इस देर रात की ट्रेन में इनके कम्पार्टमेंट में इन दो बहनों के अलावा और कोई यात्री नहीं है। सब्जी वाली, फेरे वाली, ये सब एकदम अंतिम ट्रेन में लौटती हैं, वह भी एकजुट होकर।
अनिन्दिता खिड़की से बाहर अँधेरे में काले-काले राक्षस जैसे भागते पेड़ों की ओर देखते-देखते एक समय लम्बी साँस छोड़कर बोली, "पता नहीं आज क्या है नसीब में!"
शाश्वती थोड़ा हँसकर बोली, "नसीब में किस दिन क्या लिखा है, वह पहले कभी पता चलता है भला?"
अनिन्दिता सोचने लगी, "कितना है यह खेत, खलिहान, बाग, मैदान, धान-खेत। कितना आनंद-विहीन है वह घर!"
शाश्वती कुछ और सोच रही थी। उसी 'कुछ और' में डूबा हुआ था उसका मन।

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