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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


मंजरी और भी दृढ़तापूर्वक बोली, "इस बात पर मैं विश्वास नहीं करती हूं। अपने आपमें शक्ति हो तो ठीक रहा जा सकता है। खुद कमजोर नहीं होगे तो किसमें हिम्मत है कि तुम्हें बिगड़े अभिनय एक कला है, प्रोफेशन के तौर पर ग्रहण करके बर्बाद होना पड़ेगा यह किसने कहा है? मैं तो सोच ही नहीं सकती हूं...क्यों...''
बात पूरी होने से पहले ही वनलता खिलखिलाकर हंसने लगी, "मैं भी पहले इस तरह की बहुत सी बातें नहीं सोच सकती थी। ये ही तू-तूने क्या एक साल पहले सोचा था पति घर गृहस्थी छोड़, मान सम्मान को आग लगाकर एक थियेटर करने वाली औरत के घर में पड़ी रहेगी? घटनाचक्र समझी, सभी घटनाचक्र है।''
न:, अपनी नजरों में अपना स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता है इसीलिए इंसान बिना सोचे विचारे कुछ कह बैठता है, नासमझ जैसी बात करता है। सिर्फ जब दूसरों के दृष्टिदर्पण में अपने को देखा तब स्तब्ध हो जाओ, स्वस्तंभित हो जाओ।
जैसे आज स्तब्ध रह गयी मंजरी।
पहले दिन का वह अंतर्दाह, दैनिक कर्म प्रभाव का प्रलेप पाकर कब बुझ सा गया था, इस अद्मुत जीवन का अभ्यस्त हो गया था, इसीलिए यह बात इतनी स्पष्ट तरह से दिखाई नहीं पड़ी थी।

ठीक यही समय था जब अभिमन्यु स्तब्ध बैठा था। घर में नहीं, बारामदे में नहीं, पार्क के बेंच में नहीं, कलकत्ते में कहीं नहीं। बैठा था हरिद्वार के एक निर्जन स्थान में। यहां से गंगा-दर्शन नहीं होता है। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी जगह, और थोड़ा ऊपर जाने पर एक अवहेलित मंदिर है। वहां तक पहुंचने की एक लुप्त प्राय: सीढ़ी भी है, यह उसी के पास बना चबूतरा है।
यहां कदाचित ही कोई यात्री आता है। कभी-कभी कोई उदार चित्त यात्री, स्नान करके रास्ते में जहां जितने विग्रह मूर्तियां देखते पानी छींटते-छींटते चलते हैं, उन्हीं में से कभी कोई इस तृर्षाक्त मूर्ति पर भी दो चार बूंद पानी छींट जाता है। बाकी वक्त निस्तब्ध निर्जन।
नीचे थोड़ी ही दूर पर हरकी पैड़ी का घाट-कितना शोर मचा था वहां, कितने लोग। कौन कह सकता है कि उसी घाट के इतने पास ऐसा जन मानवहीन एक अद्भुत जगह है। बैठे-बैठे इंसान यह भी भूल जाता है कि वह है कहां? मानो पृथ्वी से अलग एक अनैसर्गिक स्तब्धता विराज रही हो।
जबकि कुछ मिनट का रास्ता, नीचे उतरते ही शहरी जीवन की प्राचुर्यता मिलेगी। तांगे वालों का चिल्लाना, असंख्य रिक्शे, उनकी घंटियों की टनटनाहट, अनगिनत दुकानें और उनके सामने खड़े लोग, खरीददार, अकथनीय भिखारियों की भीड़ और अनगिनत पुण्यार्थियों द्वारा पढ़ा जाने वाला स्तोत्र पाठ।
कुल मिलाकर दिशाहीन उद्भ्रांति।
उन्हीं लोगों के बीच हैं पूर्णिमा। अभिमन्यु आया है इस निर्जन पर्वत पर।
यही तीर्थ है।
इसीलिए तीर्थ का महात्म्य है।
इसी अपूर्व आश्रय की खोज में थका, काम से पिसता इंसान कभी-कभी मुक्ति पाने की आशा से तीर्थस्थलों में आता है। भागे-भागे आते है आनंद पाने की खोज में कुछ उत्साही, आते हैं गृहस्थ, परलोक लोभी पुण्यार्थी और आते हैं उदासीन वैरागी।
अपने आपको खोना चाहते हो तो तीर्थ स्थलों में जाओ।
अपने को खोजना हो तो तीर्थ स्थल में जाओ।
कौन जाने अभिमन्यु यहां क्यों आया है।
अपने आपको खोने या अपने को ढूंढ़ने?
फिलहाल वह पूर्णिमा के जाल में फंस गया है। लोकलाज से बचने के लिए भाग आईं थीं पूर्णिमा। जिसकी बहू दिनदहाड़े कुल त्यागकर चली जाए, उसके पास मुंह छिपाने की जगह कहां है?-काशी वृंदावन हरिद्वार ऋषिकेश नहीं जाएंगी तो जायेंगी कहां? कहा है यहां से वह बद्रीनाथ, केदारनाथ भी जायेंगी।
पूर्णिमा चक्कर काटा करती हैं मंदिरों के, घाटों के, साधू-संतों के आश्रमों के और अभिमन्यु भागता फिरता है एकांत की तलाश में, परितक्त मंदिरों के आसपास।
इन्हीं मूर्तियों के बीच ही क्या छिपी है सांत्वना?
"मावल्स।"
दो तीन दिन से आ रहा था, किसी प्राणी से भेंट नहीं हुई है। आज सहसा एक बंगाली युवक का आविर्भाव हुआ और वह भी हाथों में कमंडल नहीं, सिगरेट का टिन लिए हुए।
पोशाक-धोती कुर्ता नहीं, सूट।
"मार्वल्स।"
अनजाने में उच्छावसित यह मंतव्य मुंह से निकलते ही युवक की नजर अभिमन्यु पर पड़ गयी। जल्दी से अपने को संभालते हुए नमस्कार करने जैसी मुद्रा बनाते हुए बोला, "माफ कीजिएगा, आपको देखा नहीं था। आपकी शांति में विघ्न डालने के लिए लज्जित हूं।"
अभिमन्यु भी चौंक उठा था। उठकर खड़े होते हुए हाथ जोड़कर बोला,  "अरे आप इस तरह से क्यों कह रहे हैं? मैं तो टहलते हुए यहां आ गया था।" 
"मैं भी। लेकिन यहां आकर अच्छा लग रहा है। यह जगह बड़ी अच्छी है।"
लड़के के चेहरे पर, आंखों में खुशियों से भरा, कौतुकपूर्ण उच्छलता थी।
उसके कंधे से लटके कैमरे पर अभिमन्यु की नजर पड़ी। ओ: तो इसीलिए इस परितक्त भूमि पर इनका आविर्भाव हुआ है।
कंधे से कैमरा उतारते हुए युवक बोला, "आप अच्छे भले बैठे थे, आप की फिगर भी जबर्दस्त है। बात करके सब मिट्टी कर बैठा। चुपचाप एक तस्वीर खींच लेता और एलबम में लगाकर नीचे लिखता "भूला नहीं भूला नहीं हूं प्रिया।" 
"मतलब?'' चौंककर तीखा प्रश्न पूछा अभिमन्यु ने, "आपने ऐसा क्यों कहा?''
लड़का शायद इस तरह के प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। जरा अप्रस्तुत सा होकर बोला, "मैंने कोई गंभीरता से सोचकर यह बात नहीं कही थी। यूं ही...आपके बैठने का ढंग कुछ विरही-विरही सा लगा इसीलिए कह दिया। अपराध हो गया हो तो क्षमा कर दीजिए।" युवक को संदेह हुआ, शायद महाशय का हाल ही में पत्नी वियोग हुआ है।
अब लज्जित होने की बारी थी अभिमन्यु की।
पलटकर क्षमाप्रार्थना उसने भी की और दो-चार बातों के बीच दोनों मित्रता के बंधन में बंध गए।
युवक अविवाहित था। अभिमन्यु से उम्र में काफी छोटा था। नाम सुरेश्वर।
पेशे से वाणिज्य करता था। उसके अपने शब्दों में, ''यह काम गौण है। बाप दादाओं की चालू की गयी गाड़ी, उसी पर बैठकर उसे लुढ़काता चल रहा हूं। प्रधान पेशा है फोटोग्राफी। बाप का पैसा हो तो इंसान में कितनी बुरी लते पड़ जाती हैं। ये तो अच्छी आदत है। आपका क्या कहना है?''

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