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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


गगन घोष ठहरे गहरे पानी की मछली लेकिन गुस्सा उन्हें भी आता है। वे क्रुद्ध कंठ से बोले, "बंबई जाना रोक सके इतना पैसा किसके पास है? कौन देगा? हमारी ललाटलिपि ही यही है। गधे पीट-पीटकर जब हम घोड़े तैयार कर देते हैं तब चील झपट्टा मारकर ले उड़ती है। गधा होने की वजह से उसमें तो कृतज्ञता के भाव रहते नहीं हैं।"
रिसीवर कान से लगाए वनलता खिलखिलाकर हंसने लगी, "रहेगा कहां से-गधा जो ठहरा। आपने कभी धोबी के प्रति गधे को कृतज्ञ होते देखा है?"
इसी तरह महीने गुजरते चले गए। मंजरी यहीं रह गयी और दोनों के बीच एक अद्मुत सुंदर सखित्व ने जन्म लिया।

लेकिन कैसे?

मंजरी तो हर समय वनलता की नीतियों का विरोध करती थी। उसकी उच्छृंखलता से घृणा करती थी। वनलता शराब पीकर मदहोश होती, रातों को पुरुष मित्रों को साथ ले आती अपने घर में उन्हें रखती, वनलता अजीब-अजीब तरह की पोशाकें पहनती-इन सब चीजों का कोई भी शरीफ घर की लड़की के लिए समर्थन करना कठिन था। फिर भी जब दूसरे दिन सुबह वनलता बेहूदे कपड़ों में, मेकअपविहीन फीका चेहरा लिए सोफे पर औंधी पड़ी मिलती और करुण दृष्टि से उसे देखकर पूछती, "तू मुझसे बहुत घृणा करती है न मंजू?"
तब न जाने क्यों मंजरी का हृदय ममता से भर जाता। हर रात वह निश्चय कर लेती कि सुबह होते ही यहां से चली जाएगी, यहां के गंदे, कुत्सित माहौल को छोड़कर, घृणा से मुंह फेर लेगी, बात नहीं करेगी लेकिन सुबह वनलता के उस चेहरे को देखकर सब कुछ गड़बड़ हो जाता। मानव मन का चिरंतन रहस्य यही है।
बात बंद करना संभव न होता।
आज भी वही तर्क-पर्व चल रहा था।

चले जाने का स्थिर संकल्प किए मंजरी कठोर हुई बैठी थी। चाय तक नहीं पी थी उसने। मालती ने जाकर वनलता से ज्यों-ही बताया वह अपने कमरे से इस कमरे में आ पहुंची।
एक सर्वांग प्रदर्शित करता छोटा सा ब्लाउज, बड़ी कठिनाई से गिरते-गिरते बची, शरीर से लिपटी जार्जेट की साड़ी पैरों में मखमल की चप्पल...किसी तरह से घिसटती हुई वनलता आई।
सामने वाले सोफे पर गिरते हुए अस्पष्ट स्वरों में बोली, "क्यों मुझसे घृणा कर जलग्रहण तक न करेगी?"
सख्त पड़ी देह और अधिक सख्त हो गयी-मंजरी ने मुंह फेर लिया। वनलता उसी तरह से अधलेटी हालत में बोली, "मुझ पर गुस्सा होकर क्या करेगी मंजू? मैं तो खराब हूं ही। मैं शराब पीती हूं मैं मर्दों को लाती हूं रात में साथ देने के लिए, यह तो तुझे पता है न? फिर?"
और भी कठोर हो उठी मंजरी। तीव्र स्वरों में बोल उठी, "जानती हूं। और जान-बूझकर निश्चित आश्रय की आशा से यहां पड़ी हुई हूं सोचकर अपने आपसे घृणा हो रही है मुझे। मैं चली जा रही हूं।"
पल भर मंजरी के उसे क्रोधारक्त और वितृष्णा से कुंचित चेहरे को देखने के बाद वनलता ने एक सांस छोड़ी, "जा फिर। अब मैं तुझे नहीं रोकूंगी। हां, चली ही जा। मेरे संसर्ग में मत रह-मैं बड़ी खराब हूं। नाली के कीड़े की तरह बुरी हूं मैं।"
मंजरी इस स्वीकारोक्ति से विचलित हुई।
विचलित होने पर भी क्रुद्ध स्वरों में बोली, "अपने को ऐसा सोचते हुये तुम्हें शर्म नहीं आती है?''
"शर्म? हाय-हाय! तूने तो हंसा दिया मंजू! हम भला क्या शर्माएंगे?" गुस्सा उतर गया। मंजरी हताश भाव से बोली, "लेकिन लता दी अपने को तुम जितनी बुरा कहती हो, उतनी बुरी तो हो नहीं।"

"क्या कहा? एं? उतनी खराब नहीं हूं? हा-हा-हा! तू क्या हंसा-हंसाकर मुझे मार डालना चाहती है? मैं कितनी बुरी हूं बुरी हो सकती हूं-यह शरीफ घराने की तेरी जैसी बहुएं सोच ही नहीं सकती हैं मंजू! सुनेगी तो रोंगटे खड़े हो जायेंगे।"
मंजरी दृढ़ स्वरों में बोली, "मैं किसी और की बात नहीं जानती हूं लेकिन तुम्हारे लिए कह सकती हूं तुम सचमुच बुरी नहीं हो। तुम जान-बूझकर बुरी बनती हो। लापरवाही और गंदगी दिखाने का तुम्हें शौक है। यूं तुम्हें देखकर सोचा नहीं जा सकता है, विश्वास नहीं होता है कि तुम...लेकिन तुम्हारे अभद्र व्यवहार देखकर शर्म और घृणा से मेरा ही जी करता है कि मर जाऊं।"
"एं, क्या कह रही है? मेरे शर्म से मेरा मरने को जी चाहता है?" कहते हुए नशे से चूर वनलता ने एक अद्भुत कार्य किया।
दोनों हाथ से सीना पकड़कर फूट-फूटकर रोने लग गयी।
दौड़ी आई मालती।
भागा आया देवनारायण। हाथ के इशारे से उसे हटाते हुए मालती ने पूछा,  "क्या हुआ है नई दीदीजी? दीदी अचानक ऐसे क्यों कर रही हैं?''
मंजरी ने सिर हिलाते हुए कहा, "पता नहीं।"
"अरे! जानती कैसे नहीं हो? सामने बैठी हो...''
अब वनलता ने रोते-रोते कहा, "अरे मुझसे जो इतनी खुशी बर्दाश्त नहीं हो रही है...मेरा दिल फटा जा रहा है।"
"खुशी किस बात की? रात को तो जरा भी होश नहीं था। कहते हुए मालती ने ऊंची आवाज में पुकारा, "देवा, एक गिलास पानी तो ले आ जल्दी।" पानी आते ही थोड़ा सा पानी चुल्लू में लेकर वनलता के मुंह और आंख पर छींटा मारा, वनलता को खींचकर उठाया फिर उसके मुंह के आगे गिलास पकड़कर बोली, "लो पी लो।"
वनलता ने एक ही सांस में पी लिया पानी फिर बोली, "ओ मंजू मेरा फिर से जीने का जी कर रहा है।"
"जीना 'ही होगा तुम्हें।'' दृढ़ स्वरों में बोली मंजरी।
"मालती तू जा।"
वनलता जार्जेट की साड़ी की आचल से आंख मुंह पोंछते हुए बोली, "वह सोच रही है शराब का असर है। लेकिन नहीं रे मंजू अचानक खुशी के कारण मैं रो पड़ी थी।"
"तुम चाहो तो अभी भी संभल सकती हो लता दी।"
वनलता ने गंभीर भाव से सिर हिलाया।
"आज इस बात का उत्तर नहीं दूंगी...दो साल बाद, दो साल बाद इस बात का उत्तर तुझे अपने आप ही मिल जाएगा।"
मंजरी सिहर उठी।
स्पश्ट प्रत्यक्ष था वह सिहरना।
"क्यों, डर गयी?'' वनलता ने अनुकंपा भरी हंसी हंसकर कहा।
"शुरू शुरू में मैं भी ऐसे ही सिहर उठती थी।"

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