नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
अमल ने एक बार अपनी पत्नी से पूछा था-'किंग को तो काल छोड़ देंगे कह रहे हैं।
आज उसे कमरे से निकाला जा सकता है। उसे क्या उस ब्लाक में नहीं ले जाया जा
सकता है? यहाँ से माँ को ले जाने से पहले एक बार...'
सुनकर रूबी सिहर उठी।
'क्या कह रहे हो? पागल हो गये हो क्या? उसे उसकी इस हालत में उस भयंकर दृश्य
के सामने खड़ा करना चाहते हो?'
अमल अप्रतिभ भाव से बोला-'सोच रहा था, बाद में जब पूछेगा कि अम्मा कहाँ गई तब
क्या जवाब देंगे?'
'वह तब की तब देखी जायेगी। लेकिन अभी इस हालत में कभी नहीं। तुम भी ऐसी
एब्सर्ड बातें करते हो। कहेंगे कि तुम्हारा अम्मा तस्वीर बन गईं हैं। टी.वी.
में देखा करता है कि जीता जागता आदमी अचानक तस्वीर बनकर दीवार पर लटक रहा
है।-वो क्या हुआ है जरूर समझ जायेगा।'
अमल इस तर्क को मान लेता है।
उसके सिर पर तो बोझ ही बोझ है। भइया बड़ा बेटा होने की वजह से मुखाग्नि करेगा।
भले ही इस दायित्व से मुक्त हो गया हो, और भी अनेकों दायित्व तो हैं-उनमें से
कुछ का भार तो वहन करना ही होगा। इधर कल लड़के को घर भी ले जाने का झमेला है।
उधर सोमप्रकाश हैं।
अवनी और रसोइया तो हैं लेकिन सिर्फ उनके हिफ़ाजत में तो एक वयस्क हार्ट के
मरीज को, जो शोक से कातर भी है, छोड़कर निश्चिन्त नहीं रहा जा सकता है।
डेडबॉडी अस्पताल से निकाल ले जाना इतना आसान काम नहीं। बहुत कहने-सुनने, बहुत
दौड़धूप करने और हाथ-पाँव जोड़ने की जरूरत पड़ती है।
कई लोगों से कहना पड़ता है।
जबकि हर रोज़ कितने लोग अस्पताल में मर रहे हैं। सिर्फ इसी एक अस्पताल में
नहीं, अनगिनत अस्पतालों में। इस ज़माने में कितने आदमी हैं जो अपने घर में
बिस्तर पर लेटकर मर रहे हैं?
पैदा होने के लिए भी अस्पताल आते हैं और मरने के लिए भी अस्पताल आते हैं।
सोचने लगो तो आश्चर्य होता है।
एक शताब्दी पहले क्या समाज का यह रूप देखने को मिलेगा, कोई सोच सका होगा?
बन्धन कट गए हैं 'जच्चाखाने के'।
बन्धन कटा है 'तुलसी तला का'।
हो सकता है तुलसीमंच के पास मरणासन को लिटाना एक विशेष धर्म तक ही सीमाबद्ध
था। अलग-अलग धर्मों की धारणाएँ अलग-अलग थीं। लेकिन 'सूतिकागृह' 'जच्चाखाना'?
वह तो शायद काफी व्यापक ढंग से था। लेकिन आज? ये अस्पताल! सर्वधर्म समन्वय का
विशाल क्षेत्र।
आज अगर कोई अपने घर में पैदा हो जाता है तो निहायत ही मजबूरी से। कोई अगर
अपने घर में लेटे-लेटे मरता है तो यहाँ भी मानना पड़ेगा कि लाचारी रही होगी
कोई।
'जन्म मृत्यु' यह दोनों अस्पताल में हो यही स्वाभाविक हो गया है।
लेकिन शादी?
चह भी अब कहाँ हमेशा नियमानुसार घर पकड़े पड़ी है? अपने घर में जाकर शादी करने
के लिए पहले प्रवासी लोग कितने झंझट झमेलों का सामना करते थे, कितना परिश्रम
करते थे। मन में एक सन्टीमेन्ट-'मेरी दादी, मेरी माँ जिस घर में आकर 'दूध
आलता' की पत्थर की थाली में पाँव डुबोकर खड़ी हुई थीं, धान बिखेरते हुए जिसने
लक्ष्मी के पूजागृह में प्रवेश कर पति के साथ प्रणाम किया था, मेरा बेटा-बहू
भी वही करेंगे।'
कितने आश्चर्य की बात है कि समाज की वह भावप्रवणता आज कहाँ उड़ गई है?
अब तो शादी दूसरे एक घर में होना, कहना चाहिए एक अमोघ कानून सा बन गया है। अब
तो 'बरातघर' किराए पर न लिया तो शादी कैसी?
अब तो निहायत ही अधम अभागा ही अपने घर से शादी करता है-और कोई नहीं। अब अपने
घर की दीवाल पर 'वसुधारा' अंकित नहीं की जाती है।
अब लोगों की नज़रों में यही स्वाभाविक है। बल्कि उल्टा होते देख लोगों को
आश्चर्य होता है-'ओ माँ, एक 'बारातघर' किराए पर नहीं लिया है? घर में
ठूँसठाँस कर शादी कैसे करोगे?'
आज यह बात कोई सोचता तक नहीं है कि रातोंरात जो लड़की गोत्रान्तरित होकर
पितृगृह से विदा होकर दूसरे घर में प्रतिष्ठित होगी, वह लड़की रोते-रोते विदाई
के वक्त, एक अपरिचित घर से जाने के लिए मोटर पर चढ़ेगी।...आँखें तो उसे पोंछनी
ही है क्योंकि आज भी हम बंगालियों के यहाँ 'कनकांजली' की प्रथा मौजूद है। एक
गिलास चावल और एक रुपया दे के आज तक का पितृगृह का 'खाना कपड़ा' का ऋण उतार
डालने की प्रथा। यह प्रथा अभी तक चालू है। सच में, क्या ही 'खिचड़ी प्रथा' चल
रही है हमारे समाज में।
असली बात तो ये है कि आज के समाज ने बेझिझक पुराने चश्मे के शीशे तो उतार कर
फेंक दिए हैं लेकिन उसका फ्रेम कानों में फँसा रखा है।
अब अगर सम्भव हो तो कौन विद्युतचुल्ली में शवदाह के लिए लाइन न लगाकर चिता
सजाने बैठता है? अब तो राजा-महाराजाओं को भी अन्त्येष्टि के लिए मनों घी और
चन्दन की लकड़ी की जरूरत नहीं पड़ती है। उनका भी अन्त उसी अग्निविहीन
सुड़ंगचिता में ही लिखा है। फिर भी 'मुखाग्नि' नामक एक निर्मम प्रथा आज भी
चालू है। अधिकारी का निर्णय भी शास्त्रीय विधि से। अतएव सुकुमारी का छोटा
बेटा मन-ही-मन चैन की साँस लेकर सोचता है-'ख़ैर बाबा! यह काम भइया के मत्थे
रहेगा।'
कहने की कोई जरूरत ही नहीं-यही होना ही है। अभी भी वह समय नहीं आया है। अमल
बाप के पास आकर खड़ा हुआ-'पिताजी, आप क्या बर्निंगघाट तक जायेंगे?'
'मैं?'
सिहर उठे सोमप्रकाश-'नहीं-नहीं! क्यों? मेरा जाना क्या ज़रूरी है?'
'नहीं, ये बात नहीं है। फिर आप अस्वस्थ हैं। आपको क्या दीदी के घर पहुँचा
दूँ?'
'दीदी के घर? माने सूनी के यहाँ?'
सोमप्रकाश मानों असहाय हो गए हों, बोले-'हमें वह घर तो आज ही नहीं छोड़ना है
ओमू।'
'ओ हो! आश्चर्य है। आज क्यों? अभी तो काफी दिन बाक़ी हैं। माने घर में अकेले
जाकर...'
'अवनी नहीं है? कुलदीप? वे लोग क्या गाँव चले गये हैं?'
'नहीं नहीं। सभी हैं। आपको बताए बगैर चले जायेंगे क्या?'
'वही तो! देखो...कैसी भूल हो गई।...तो तुमलोग तो अपनी माँ को एक बार वहाँ ले
जाओगे, कह रहे हो। तभी मुझे भी ले जाकर वहाँ उतार देना।'
'इस बार 'डेडबॉडी' न कहकर 'अपनी माँ' बोले।
लड़का बोला-'ठीक है।'
सोमप्रकाश थोड़ा झिझकते हुए बोले-'अच्छा बाबूसोना तो अब ठीक है ज़रा उससे मिल
लेता। मिल सकता हूँ न?'
बेटा अमलप्रकाश एक अन्तरालवर्तिनी का चेहरा याद करके बोला-'सकते तो हैं
लेकिन...ये है कि...माँ वाली घटना उसे न बताना ही शायद...माने अचानक शॉक लग
सकता है न।'
ज़रा हँसने जैसा मुँह बनाते हुए सोमप्रकाश बोले-'ओमू, तुम लोगों को पालपोस कर
मैंने ही बड़ा किया है।'
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