नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
भीतर का इतिहास कुछ-कुछ अनुमान लगा सके थे सोमप्रकाश पर क्या सारी बातों का
अनुमान लगाया जा सकता है? वे क्या समझ सके थे कि उनकी सीधी-सादी बड़ी बहूमाँ
हर दिन हंगरस्ट्राइक की धमकियाँ दे रही है उनके बड़े बेटे को? और उसी डर से
धीरे-धीरे उसके कब्जे में चला जा रहा था वह? और अन्त में बहूमाँ घोषणा कर
बैठी थी-'ठीक है। जब तुम्हें इतना ही कर्त्तव्यबोध है तो तुम यहीं पड़े रहो और
पूज्यनीय पिता-माता की सेवा करो। मैं चली जाती हूँ अपने माँ के पास।'
उसका कहना था, रूबी की नौकरी अफसर की है इसलिए क्या वह जीत जायेगी? कमाई के
मामले में उसके पति से तुम क्या कुछ कम हो? और इसीलिए रूबी लिफ्ट वाले फ्लैट
की आठवीं मंजिल में जाकर रहेगी? यह तो लगभग स्वर्ग के बरामदे तक पहुँच जाने
के बराबर हो गया। और मैं इस सड़े-पुराने डिजाइन के मकान में पड़ी रहूँ और एक
मंजिले से तिमंजिले और तिमंजिले से एक मंजिल करूँ सीढ़ियाँ चढ़-चढ़कर? और
सास-ससुर के लिए बैठे-बैठे खाना बनाऊँ? क्यों? क्यों? क्यों?'
साधारणतया निर्लिप्त स्वभाव की घर की बड़ी बहूमाँ के मन में तीव्र 'क्यों' की
उत्पत्ति ने उसे आमूल बदल डाला।
अगर आँखों के आगे से एक जने को 'लिफ्ट' पर चढ़कर 'स्वर्ग के बरामदे' तक पहुँच
जाते न देखती, वो वह शायद जिन्दगी भर परम सन्तोष से यहीं पड़ी रहती। परम सुख
से अपने 'सिलाई स्कूल' की नौकरी करती रहती। और दाय दायित्वहीन इस गृहस्थी से
निकलकर, नित्य अपने माँ के घर चक्कर लगाती, कहानी की किताबें पढ़ती,
दिवानिद्रा और टी.वी. के पर्दे को निहारती सुख से।
यहीं तीन-तीन काम करने के लिए आदमी हैं। जिनमें से दो तो आदिकाल के ढाँचे में
ढले पुराने लोग हैं। वे ही इस घर के धारक हैं वाहक हैं।...इसके अलावा हैं सब
कुछ पर ध्यान रखने वाली, घर के समस्त सदस्यों की सुख-स्वच्छन्दता ही जिनका
ध्यान-ज्ञान है-वही सास। आराम का तो अन्त ही नहीं था।
लेकिन अचानक कालसर्प ने डस लिया-क्यों? क्यों? क्यों? अतएव उसके पति को सिर
पर साँप बाँधकर भागते फिरना पड़ रहा है-किसी नए मोहल्ले में एक 'डेढ़ कमरे' का
फ्लैट ढूँढ़ने के लिए।...और तनख्वाह से एक मोटी रक़म इसके लिए व्यय करना
स्वीकार कर सपत्निक वहाँ चले जाने की व्यवस्था करने के लिए। कमरे केवलमात्र
डेढ़ हैं। हों...पर हैं तो ऊँचाई पर और लिफ्ट की व्यवस्था भी तो है।
हालाँकि सोमप्रकाश ने इतना सब अनुमान नहीं लगाया था। फिर भी अचानक लड़के का
खिड़की की तरफ मुँह करके खड़े हो जाने से सारांश समझ लिया था। इसीलिए गम्भीर
ममता भरे हृदय से कहा था, 'जहाँ भी रहना, सुखी रहना।'
हालाँकि दूसरे लोग इसे 'युग धर्म' कहकर निन्दा करने लगे और सोमप्रकाश के
प्रति करुणा प्रदर्शन करने लगे।
सुकुमारी का मामला और है। वह सबके पास हृदय वेदना भार उतारने के लिए, इतने
दिनों तक न पहचान में आई भीगी बिल्ली बड़ी बहूमाँ के 'ईर्ष्या' और 'अक्ल' की
आलोचना करने में मुखर हो उठीं। ऐसी घटना घटी सिर्फ छोटी देवरानी के प्रति
हिंसा के कारण ही न?
सुकुमारी के सुख-दुःख का भार उतरने की जगह ज़्यादातर अवनी महारानी और कभी-कभी
तो मोहिनी की माँ तक है। कारण 'असली' जगह पर स्वच्छन्द हो नहीं पाती हैं। इस
आलोचना का श्रीगणेश करते ही सोमप्रकाश कहते 'अच्छा ऐसी 'छोटी बातों' के अलावा
और कोई बात करने की तुम्हारी इच्छा नहीं होती है क्या?' तब? तब क्या बात आगे
बढ़ सकती है?
मन का बोझ हल्का करने की जगह अपमान के बोझ से और अधिक भारी हो उठतीं।
हालत तो ये है-परन्तु घर का हर काम नित्य-नियम से चलता रहता है। मोहिनी की
माँ सुबह तड़के आकर घंटी बजाती। सीढ़ी के नीचे रहने वाला महाराज यानी रसोइया
जल्दी से उठकर दरवाज़ा खोल देता।...सदैव के नियमानुसार घर में झाड़ू लगती,
पोंछा होता। बर्तन माँजना, कपड़े फींचना भी। सिर्फ इन चीजों को संख्या कम हो
गई है।
रसोई में गैस पर खाना पकता है। चाय का पानी चढ़ता है, टोस्टर में टोस्ट भी
सिकता है और थोड़ा बहुत मालिक मालकिन के भोग चढ़ने के बाद फेंका नहीं जाता है।
एक बड़ा हिस्सा तीनों नौकरों को प्रसादस्वरूप मिलता है। हमेशा के माप में कमी
की जाए तो कितनी? और कम करेगा कौन? सुकुमारी? उन्हें कौन सी ज़रूरत आ पड़ी है?
अब तो वह 'मुक्ति के पथ की खोज' में व्यस्त है। सारी सुबह ढ़ाई मंजिले के उसी
कमरे में गुज़ार देती हैं।
खाना यथासमय ही बनता है। और बहुत कम बनता है ऐसी बात भी नहीं है। मोहिनी की
माँ भी आजकल इसी रसोई से कुछ-न-कुछ ले ही जाती है क्योंकि मोहिनी के बच्चा
होने वाला है इसीलिए वह खाना बना नहीं पाती है।
बूढ़ा रसोइया बड़ा ही स्नेहशील है और अवनी तो हमेशा से ही उदार। वह स्वयं
आलतू-फालतू चीज़ें नहीं खा सकता है अतएव मोहिनी की माँ को उठाकर दे देता है।
अतएव भले ही पूरा घर खाली हो गया है, गृहस्थी मज़े से चल रही थी। किसी तरह की
ढील पड़ी हो ऐसा लगता ही नहीं है।
और लगता नहीं है इसीलिए बाहर से जो लोग बेचारे सान्याल दम्पत्ति पर करुणा
बरसाने या सहानुभूति जताने आते हैं, वे यहाँ का नज़ारा देखकर अवाक रह जाते
हैं।
'आज भी उसी तरह आपकी गृहस्थी का पहिया घूम रहा है? ये काम करने वाले लोग इस
तरह से रामराज्य चला रहे हैं? घर का खर्च पहले जैसा ही है क़रीब-क़रीब?'
'नहीं-नहीं', सुकुमारी शर्म से दोहरी होकर कहतीं-'कुछ तो ज़रूर कम हुआ है।
दूध के पैकेट चार की जगह सिर्फ एक आता है। और मक्खन तो आता ही नहीं है-कहा जा
सकता है। और दैनिक बाज़ार में रुपये जाते ही कितने हैं? एक तरह की मछली के
अलावा दूसरी मछली तो आती नहीं है। अण्डा गोश्त वह तो यदा-कदा...ही...'
आत्मपक्ष के समर्थन में सुकुमारी कहतीं-'वाह! ये लोग काम करेंगे, मेहनत
करेंगे, खायेंगे नहीं? रसोई में पहले जैसा समारोह भी तो नहीं है। उन्हें भी
तब उसमें हिस्सा मिलता था। अब तो बस दाल चच्चोड़ी भात ही पर गुजर बसर कर रहे
हैं।'
सोमप्रकाश के एक परम हितैषी दूर के रिश्ते के साढ़ूभाई एक बार आए और गृहस्थी
का वर्त्तमान रूप देखकर सकते में आ गये। बोले-'आप दो लोगों के लिए तीन-तीन
काम करने वाले? देखकर तो ताज्जुब हो रहा है दादा। ये लोग सारे दिन करते क्या
हैं?'
ये लोग सारे दिन करते क्या हैं?
सोमप्रकाश अवाक होकर बोले-'यह तो नहीं जानता हूँ। लेकिन मकान तो छोटा नहीं हो
गया है भई। और खाना बनाना, बाज़ार जाना...माप भले ही कम हो गया हो तो सब कुछ
रहा ही है।'
'तो वह सब कुछ क्या एक आदमी द्वारा नहीं हो सकता है? दो दो आदमी को मोटी
तनख्वाह और चार वक्त का खाना देकर पालना...और वह भी आज के ज़माने में?'
सोमप्रकाश मरी-मरी आवाज़ में बोले-'लेकिन इस ज़माने में इनकी अचानक नौकरी गई
तो ये लोग जायेंगे कहाँ?'
'हूँ! इन्हें भला नौकरी की क्या चिन्ता?'
सोमप्रकाश और भी क्षीण स्वरों में बोले-'असल में ये लोग घर के लोग ही हो गए
हैं। इन्हें क्या अब उस नज़र से देखा जा सकता है? फिर इसमें इनका क्या दोष?
बिना अपराध के 'नौकरी खत्म' हो जाएगी? मेरी-गृहस्थी अचानक छोटी भले ही हो गई
हो, उनकी गृहस्थी तो छोटी नहीं हुई है? गाँव में बड़ी गृहस्थी है, रुपया भेजते
हैं।'
साढ़ूभाई ने सोचा, इनका दिमाग बिल्कुल ही ख़राब हो चुका है। बड़ा बेटा कभी-कभी
आता है, पिताजी की दवाएँ सब ठीक-ठाक हैं या नहीं, ठीक से वक्त पर लेते हैं या
नहीं-आकर पूछताछ करता है। माँ के पास बैठकर चाय-नाश्ता खाता है फिर चला जाता
है।
खाने की चीज़ें हालाँकि बाज़ार की ख़रीदी चीज़ें ही होती हैं। इतना समय उसके
पास रहता नहीं है कि बनाकर खिलाया जा सके। एक दिन अचानक शाम को, चाय के वक्त
आ गया था। देखकर बोला-'पिताजी चाय के साथ बिस्कुट खायेंगे? क्यों? घर में कुछ
बनाया नहीं गया है क्या?'
सुकुमारीं खेद प्रकट करते हुए बोलीं-'किसके लिए घर में नाश्ता बने?
एक थाल कचौड़ी बनेगी तो अगर ये खाएँगे तो मुश्किल से एक। और मैंने माना कि दो
खा ली, बाक़ी तो खाएँगे अवनी और महाराज ही न। कुछ बनाने की इच्छा नहीं होती
है।'
हरी मटर की कचौड़ी, चने के दाल की दालपूडी, हींग की कचौड़ी-ये सब सोमप्रकाश को
बहुत प्रिय थीं। और हर शाम को यही सब बनता था। यह बातें बड़े लड़के के इतनी
जल्दी भूल जाने की नहीं हैं। खुद भी तो काम से लौटने पर यही सब खाता था और
ज्यादा ही मिलता था। इन खाद्यों का वह भी तो भक्त है। उस पर माँ की जबरदस्ती।
उसके अपने घर में तो वह सब बीती बातें...सपना बनकर रह गई हैं। 'चाय के साथ
खाने के लिए सभ्य आधुनिक चीजे नहीं हैं क्या? फालतू में ढेर सारी कचौड़ियाँ,
दालपूडी, आलूदम खाने का कोई मतलब है?'
इस वक्त उपरोक्त प्रश्न पूछने वाला उपस्थित नहीं है सो आवाज़ नीची कर कहता
है-'एक थाल भरकर बनाने की जरूरत ही क्या है? पिताजी और तुम्हारे भर की दो चार
नहीं बन सकती हैं?'
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