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नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं

चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6385
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।


और ठीक उसी समय?
सुनेत्रा के राजा वसन्त राय रोड वाले घर में एक ग्रामीण वृद्धा अनभ्यस्त ढंग से किसी तरह फोन पकड़कर थरथराती आवाज़ में कह रही थीं-'एँ? ऐसी बात है? नहीं नहीं, पिता की ऐसी तबियत खराब देखकर क्या चले आते बनता है? ठीक है। ज़रा सम्भल जायें तभी आना। उस बदमाश लड़के ने दोनों परिवार को डुबोकर रख दिया। मेरा खाना? वह बात छोड़ो। तुम्हारी लड़कियों को झोल भात खिला दिया है। अभिलाष? उसने भी यही सब खाया है। तुम्हें? माँ खाये बगैर छोड़ नहीं रही हैं? ऐसा तो करेंगी ही। जो बन सके खा ही लो। अच्छा, रखती हूँ।'
यही है संसार लीला।
धोखाधड़ी का कारोबार केवल बातों की खेती के ज़रिए गड्ढे खाई खन्दक भरते चलो।
*                          *                           *

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