उपन्यास >> राग दरबारी (सजिल्द) राग दरबारी (सजिल्द)श्रीलाल शुक्ल
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राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है।....
शिवपालगंज के जुआरी-संघ के मैनेजिंग डायरेक्टर के चले जाने पर दारोगाजी ने एक
बार सिर उठाकर चारों ओर देखा। सब तरफ़ अमन था। इमली के पेड़ के नीचे भंग
घोटनेवाला लंगोटवन्द सिपाही अब नजदीक रखे हुए एक शिवलिंग पर भंग चढ़ा रहा था,
घोड़े के पुट्ठों पर एक चौकीदार खरहरा कर रहा था, हवालात में बैठा हुआ एक डकैत
जोर-जोर से हनुमान-चालीसा पढ़ रहा था, बाहर फाटक पर ड्यूटी देनेवाला
सिपाही-निश्चय ही रात को मुस्तैदी से जागने के लिए-एक खम्भे के सहारे टिककर सो
रहा था।
दारोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बन्द करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए
दिखायी पड़े। वे भुनभुनाए कि पलक मारने की फुरसत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते
ही वे कुर्सी से खड़े हो गए और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद,
उन्होंने विनम्रता के साथ हाथ मिलाया। रुप्पन बाबू ने बैठते ही कहा, “रामाधीन
के यहाँ लाल स्याही से लिखी हुई एक चिट्ठी आयी है। डाकुओं ने पाँच हजार रुपया
माँगा है। लिखा है अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर...।"
दारोगाजी मुस्कराकर बोले, “यह तो साहब बड़ी ज्यादती है। कहाँ तो पहले के डाकू
नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कि कोई उन्हीं के
घर जाकर रुपया दे आवे।'
रुप्पन बाबू ने कहा, "जी हाँ। वह तो देख रहा हूँ। डकैती न हुई, रिश्वत हो गई।"
दारोगाजी ने भी उसी लहजे में कहा, "रिश्वत, चोरी, डकैती-अब तो सब एक हो गया
है...पूरा साम्यवाद है !"
रुप्पन बाबू बोले, “पिताजी भी यही कहते हैं।"
"वे क्या कहते हैं ?"
"...यही कि पूरा साम्यवाद है।"
दोनों हँसे । रुप्पन बाबू ने कहा, “नहीं। मैं मजाक नहीं करता। रामाधीन के यहाँ
सचमुच ही ऐसी चिट्ठी आयी है। पिताजी ने मुझे इसीलिए भेजा है। वे कहते हैं कि
रामाधीन हमारा विरोधी है तो क्या हुआ, उसे इस तरह न सताया जाए।"
"बहुत अच्छी बात कहते हैं। जिससे बताइए उससे कह दूं।"
रुप्पन बाबू ने अपनी गढ़े में धंसी हुई आँखों को सिकोड़कर दारोगाजी की ओर देखा।
दारोगाजी ने भी उन्हें घूरकर देखा और मुस्करा दिए। बोले, “घबराइए नहीं, मेरे
यहाँ होते हुए डाका नहीं पड़ेगा।"
रुप्पन बाबू धीरे-से बोले, “सो तो मैं जानता हूँ। यह चिट्ठी जाली है। जरा अपने
सिपाहियों से भी पुछवा लीजिए। शायद उन्हीं में से किसी ने लिख मारी हो।"
"ऐसा नहीं हो सकता। मेरे सिपाही लिखना नहीं जानते। एकाध हैं जो दस्तखत-भर करते
हैं।"
रुप्पन बाबू कुछ और कहना चाहते थे, तब तक दारोगाजी ने कहा, “जल्दी क्या है !
अभी रामाधीन को रिपोर्ट लिखाने दीजिए...चिट्ठी तो सामने आए।"
थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दारोगाजी ने फिर कुछ सोचकर कहा, “सच पूछिए तो बताऊँ।
मुझे तो इसका सम्बन्ध शिक्षा-विभाग से जान पड़ता है।"
"कैसे ?"
"और शिक्षा-विभाग से भी क्या-आपके कॉलिज से जान पड़ता है।"
रुप्पन बाबू बुरा मान गए, “आप तो मेरे कॉलिज के पीछे पड़े हैं।"
"मुझे लगता है कि रामाधीन के घर यह चिट्ठी आपके कॉलिज के किसी लड़के ने भेजी
है। आपका क्या ख्याल है?"
"आप लोगों की निगाह में सारे जुर्म स्कूली लड़के ही करते हैं।" रुप्पन बाबू ने
फटकारते हुए कहा, “अगर आपके सामने कोई आदमी जहर खाकर मर जाए, तो आप लोग उसे भी
आत्महत्या न मानेंग। यही कहेंगे कि इसे किसी विद्यार्थी ने जहर दिया है।"
“आप ठीक कहते हैं रुप्पन बाबू, जरूरत पड़ेगी तो मैं ऐसा ही कहूँगा। मैं
बख्तावरसिंह का चेला हूँ। शायद आप यह नहीं जानते।"
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